जिसे हम ढूंढ़ रहे थे वह तो हम स्वयं हैं ---
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भगवान हैं, इसी समय, हर समय, यहीं पर और सर्वत्र हैं। यह सम्पूर्ण अनंत विराटता और सम्पूर्ण अस्तित्व प्रकाशमय है, जो हम स्वयं हैं, यह नश्वर देह नहीं। उस निरंतर विस्तृत हो रहे प्रकाश का ही ध्यान कीजिये जो हम स्वयं हैं। बीच बीच में कभी कभी इस शरीर पर भी दृष्टि डालकर यह भाव कीजये कि मैं यह शरीर नहीं, परमात्मा की अनंतता और परमात्मा के साथ एक हूँ। यह समर्पण का भाव इतना गहन हो जाये कि परमात्मा के साथ एकत्व के स्थान पर यह भाव आ जाये कि हम स्वयं ही परमात्मा हैं। जिसे हम ढूंढ़ रहे थे वह तो हम स्वयं हैं।
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उपासना के समय कमर सदा सीधी रहे, ठुड्डी भूमि के समानांतर, मुख पूर्व या उत्तर दिशा में, दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर, और उनी आसन पर हम स्वयं बिराजमान हों। यदि बैठने में कठिनाई हो तो एक कंबल भूमि पर बिछाकर, उस पर बिना हत्थे की कुर्सी रख कर उस पर आप स्वयं बिराजमान हो जाइये।
अब आपको ये दो साधनायें करनी हैं, एक तो "हंस: योग" की और दूसरी "मूर्धा में ओंकार के जप" की। इन पर मैं अनेक बार बहुत लिख चुका हूँ। अब और लिखने का धैर्य मुझमें नहीं है। दोनों वैदिक साधनायें हैं।
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यदि कोई संशय है तो किन्हीं श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ महात्मा से मार्गदर्शन प्राप्त कीजिये, या श्रीमद्भगवद्गीता का किसी अच्छे भाष्य की सहायता से स्वाध्याय कीजिये। सभी गुरुओं के गुरु भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से सब कुछ समझ में आ जायेगा।
मेरे पास बिल्कुल भी समय नहीं है, क्योंकि मैं किनारे पर बैठा हूँ, और जो भी समय बचा है वह पूर्णतः परमात्मा को समर्पित है। सब ओर से मन को खींचकर अंतर्मुखी कर रहा हूँ। मेरे लिए एकमात्र महत्व परमात्मा की पूर्ण उपस्थिती और उनको को पूर्ण समर्पण का है। मैंने अपने सारे संशय दूर किए हैं। मुझे कोई संशय नहीं है। मुझे किसी अन्य की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि स्वयं भगवान मेरे समक्ष हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०२५
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