Thursday 11 January 2018

परमप्रेम ही सच्चिदानंद का द्वार है .....

परमप्रेम ही सच्चिदानंद का द्वार है .....
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परमात्मा के प्रति परमप्रेम के अतिरिक्त अन्य कोई आदर्श, कर्तव्य, आचार-विचार या नियम नहीं है| जिसने उस प्रेम को पा लिया, उसके लिए आचरण के कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं है क्योंकि उसने परम अनुशासन को पा लिया है| वह सब अनुशासनों और नियमों से ऊपर है|
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यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) आदि सभी गुण उसमें स्वतः ही आ जाते हैं| ये गुण उसके पीछे पीछे चलते हैं, वह इनके पीछे नहीं चलता| प्रभु के प्रति परमप्रेम अपने आप में सबसे बड़ी साधना, साधन और साध्य है| यही मार्ग है और यही लक्ष्य है|
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फिर धीरे धीरे साधक का स्थान स्वयं परमात्मा ले लेते हैं| वे ही स्वयं को उसके माध्यम से व्यक्त करते हैं| यहाँ भक्त और भगवान एक हो जाते हैं| उनमें कोई भेद नहीं रहता| जब शब्दातीत ज्ञान अनुभूत होना आरम्भ हो जाता है, तब शब्दों में रूचि नहीं रहती|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ जनवरी २०१८

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