Tuesday, 27 June 2017

कामनाओं से मुक्ति ही जीवनमुक्ति है .......


कामनाओं से मुक्ति ही जीवनमुक्ति है .......
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निष्कामता हमारा स्वभाव ही बन जाए तो हम जीवनमुक्त ही हैं| आत्मा वास्तव में नित्य जीवनमुक्त है, सिर्फ अज्ञान का ही आवरण है| शिवभाव में स्थित होने से अज्ञान नहीं रहता|
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आजकल के मनोविज्ञान में यही सिखाया जाता है कि यदि मन में कोई कामना हो, और जिस से किसी की कोई हानि नहीं हो तो वह कामना पूरी कर लेनी चाहिए, अन्यथा मन कुंठित हो जाएगा| यह एक धोखा है|
कामना कभी भी तृप्त नहीं होती| कामनाओं का शमन होना चाहिए, न कि पूर्ती|

कामनाएँ ही सब बंधनों का कारण हैं| कामनाएँ छूटने पर ही जीवात्मा मुक्त होती है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

अहंकारवृत्ति नहीं, बल्कि परमात्मा ही हमारा स्वरुप है .....

अहंकारवृत्ति नहीं, बल्कि परमात्मा ही हमारा स्वरुप है .....
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साधना में जहाँ भी अशक्तता, विवशता, जड़ता, अक्षमता और अहंकार आदि आ जाएँ तो उनका भी सकारात्मक विकल्प है| गुरु महाराज से प्रार्थना कीजिये, उनके पास इसका निश्चित समाधान है|
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जितनी साधना हम स्वयं के लिए करते हैं, उतनी ही गुरु महाराज भी हमारे लिए ही करते हैं| फिर दोनों मिलकर जितनी साधना करते हैं, उतनी ही हमारे लिए भगवान स्वयं भी करते हैं|
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गुरु महाराज से ही प्रार्थना करना और विवेक-बुद्धि से कर्ताभाव और कर्मफल दोनों उन्हीं को समर्पित कर देने में ही सार्थकता है| तभी सफलता मिलेगी| .
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अहंकारवृत्ति हमारा स्वरूप नहीं है, शुद्ध ईश्वर ही हमारा स्वरूप है| मैंने यह किया, मैंने वह किया, मैं यह करूँगा, वह करूँगा, इस तरह की सोच हमारा अहंकार मात्र है| सही सोच तो यह है कि .... भगवान ने मेरे माध्यम से यह सब किया है, मैं तो निमित्त मात्र था| जिसने इस सृष्टि को रचा, जो इसकी रक्षा कर रहा है और जो इसे धारण किये हुए है, वह ही एकमात्र सहारा है| वह ही कर्ता और भोक्ता है| उससे पृथक मेरा कोई अस्तित्व नहीं है|
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परमात्मा की परोक्षता और स्वयं की परिछिन्नता को मिटाने का एक ही उपाय है ... परमात्मा का ध्यान|
परम प्रेम और ध्यान से पराभक्ति प्राप्त होती है और ज्ञान में निष्ठा होती है, जो एक उच्चतम स्थिति है, जहाँ तक पहुँचते पहुँचते सब कुछ निवृत हो जाता है, और त्याग करने को भी कुछ अवशिष्ट नहीं रहता|
यह धर्म और अधर्म से परे की स्थिति है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Monday, 26 June 2017

साधक कौन है ? .....

साधक कौन है ? .....
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साधना के कठिनाइयों से भरे मार्ग पर साधना का आरम्भ तो साधक स्वयं करता है, क्योंकि तब तक अहंभाव प्रबल रहता है| फिर इतनी अधिक कठिनाइयाँ आती हैं कि साधक विचलित हो जाता है|
उस समय गुरु महाराज काम आते हैं| साधक का स्थान वे स्वयं ले लेते हैं और साधना वे ही करते हैं| शरीर और मन तो साधक का ही रहता है पर कर्ता गुरु महाराज हो जाते हैं|
फिर शीघ्र ही वह समय आता है जब गुरु महाराज तो अपने स्थान से हट जाते हैं और उनका स्थान भगवान स्वयं ले लेते हैं| ऐसे समय में साधक का कुछ भी दायित्व नहीं रहता, सब कुछ परमात्मा स्वयं ही बन जाते हैं|
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इससे आगे कहने के लिए और कुछ भी नहीं है| हे परमशिव, आप ही सर्वस्व हैं| "मैं" नहीं आप ही आप रहें| यह "मैं" और "मेरापन" सदा के लिए नष्ट हो जाएँ |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२६ जून २०१७

परमेश्वरार्पण बुद्धि ......


परमेश्वरार्पण बुद्धि ......
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"परमेश्वरार्पण बुद्धि" .... यह शब्द मैनें पहली बार जोधपुर के स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के एक लेख में पढ़ा था| बड़ा अद् भुत शब्द है जिसने मेरे अंतर्मन पर गहरा प्रभाव डाला| उनका अभिप्राय यह था कि जब सारा जीवन ही अर्चना बन जाता है, जहाँ शास्त्रोक्त वर्णाश्रम के धर्म को परमेश्वर की अर्चना के लिये, उनकी आज्ञापालन के लिये ही किया जाता है, न फल की इच्छा और न कर्म में आसक्ति रहे ...... वह "परमेश्वरार्पण बुद्धि" है|
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जब साधक स्वयं के लिए कुछ न चाह कर सब कुछ यानि कर्ताभाव और साधना का फल भी परमात्मा को समर्पित कर देता है तभी उसका अंतःकरण शुद्ध होता है और परमात्मा उस पर प्रसन्न होते हैं| परमात्मा की प्रसन्नता और कृपा के अतिरिक्त हमें और चाहिए भी क्या?
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हे परमशिव, हमारी बुद्धि परमेश्वरार्पिता हो, चैतन्य में सिर्फ आप का ही अस्तित्व रहे, आप से पृथक अन्य कुछ भी न हो| आपसे विमुखता और पृथकता कभी न हो|


ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

"काम वासना" ही "शैतान" है .....

"काम वासना" ही "शैतान" है .....
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"शैतान" शब्द के अर्थ का जितना अनर्थ किया गया है सम्भवतः उतना अन्य किसी भी शब्द का नहीं| शैतान का अर्थ लोग लगाते हैं कि वह कोई राक्षस या बाहरी शक्ति है पर यह सत्य नहीं है| शैतान कोई बाहरी शक्ति नहीं अपितु मनुष्य के भीतर की कामवासना ही है जो कभी तृप्त नहीं होती और अतृप्त रहने पर क्रोध को जन्म देती है| क्रोध बुद्धि का विनाश कर देता है और मनुष्य का पतन हो जाता है| यही मनुष्य की सबसे बड़ी शत्रु है|
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मूल ईसाईयत आदि मजहबों में इसे Devil या Satan कहा गया| उनके अनुसार भगवान सही रास्ते पर ले जाता है पर शैतान गलत रास्ते पर भटका देता है| पर वास्तव में यह काम वासना ही है जो शैतान है|
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इससे बचने का एक ही मार्ग है और वह है साधना द्वारा स्वयं को देह की चेतना से पृथक करना|
यह अति गंभीर विषय है जिसे प्रभुकृपा से ही समझा जा सकता है|
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स्वयं के सही स्वरुप का अनुसंधान और दैवीय शक्तियों का विकास हमें करना ही पड़ेगा जिसमें कोई प्रमाद ना हो| यह प्रमाद ही मृत्यु है जो हमें इस शैतान के शिकंजे में फँसा देता है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||


कृपा शंकर
२६ जून २०१६

Saturday, 24 June 2017

हर मनुष्य अपने Religion का चुनाव स्वयं करे ......

हर मनुष्य अपने Religion का चुनाव स्वयं करे ......
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क्या मनुष्य जाति के भाग्य में ऐसा भी दिन आयेगा कि हर व्यक्ति समझदार होकर अपने मत / पंथ / मजहब / Religion का चुनाव स्वयं करेगा?
क्या पागलपन है कि ईसाई के घर में जन्मा तो ईसाई, मुसलमान के घर में जन्मा तो मुसलमान, यहूदी के घर जन्मा तो यहूदी, हिन्दू के घर जन्मा तो हिन्दू, बौद्ध के घर जन्मा तो बौद्ध, और जैन के घर जन्मा तो जैन हो गया|
........... क्या यह पागलपन और मुर्खता नहीं है? हिन्दू के घर जन्मा यदि सेकुलर हो जाए तो यह एक अलग ही प्रजाति है|
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किसी भी Religion की श्रेष्ठता का क्या मापदंड हो सकता है?
कोई शिशु समझदार तो होता ही नहीं है, उससे पूर्व ही उस पर मुखौटे ओढा दिए जाते हैं तुम फलाँ फलाँ हो| क्या यह कृत्रिमता नहीं है? मनुष्य जन्म लेता है तब कोरा कागज़ होता है, अकेला होता है, उसे जब भीड़ के साथ जोड़ दिया जाता है तब उसकी आत्मा खो जाती है|
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कम से कम समझदार होने पर हर मनुष्य को यह अवसर मिलना चाहिए कि वह यह निर्णय ले सके कि कौन सा मत/पंथ/सिद्धान्त/Religion/मज़हब उसके लिए सर्वाधिक अनुकूल और सर्वश्रेष्ठ है| फिर उसके निर्णय में किसी अन्य को बाधा नहीं बनना चाहिए|
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इस विषय पर देश-विदेश में मेरी अनेक प्रबुद्ध स्वतंत्र विचारकों से चर्चा हुई है| कई तरह तरह के विचित्र विचित्र उत्तर मुझे लोगों से मिले हैं| धीरे धीरे जैसे जैसे मनुष्य की चेतना विकसित होगी, मानव जाति इसी दिशा में आगे बढ़ेगी|
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यह सत्य नहीं है कि सभी मार्ग एक ही गंतव्य पर जाते हैं| हो सकता हो कि कोई मार्ग सिर्फ भूल-भुलैया ही हो, कहीं भी नहीं जाता हो, या घूम फिर कर वहीं बापस पहुंचा देता हो|
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महाभारत में इसका सही उत्तर है ....
धर्मस्य तत्वं निहितम् गुहायां, महाजनो येन गतः सः पन्था |
यानि महापुरुष जिस मार्ग पर चले हों वही मार्ग सर्वश्रेष्ठ है| परमात्मा की अहैतुकी भक्ति, परम प्रेम, समर्पण, आध्यात्म और आत्मसाक्षात्कार आदि की अवधारणा ही मेरी दृष्टी में धर्म है|

ॐ ॐ ॐ ||

एक पुरानी स्मृति .... बीते हुए कल के हीरो हुए आज जीरो .....

एक पुरानी स्मृति ....
(संसार में कल के बने हीरो आज जीरो हैं, और आज के हीरो बनने वाले कल को जीरो बन जायेंगे)
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आज से ३७ वर्ष पहिले की बात है| सन १९८० में मैं पंद्रह-बीस दिनों के लिए उत्तरी कोरिया गया हुआ था| वहाँ बाहरी विश्व से किसी भी तरह का कोई समाचार सुनना या पढ़ना असम्भव था| उन दिनों तक मेरा रूसी भाषा का ज्ञान बहुत अच्छा था, अतः वहाँ सम्बंधित लोगों से बातचीत में कोई कठिनाई नहीं आती थी क्योंकि सब को रूसी भाषा आती थी| रूसी लोग भी वहाँ काम करते थे| एक दिन सुबह सुबह दो रूसी सज्जन बड़े उदास होकर मुँह लटकाए एक रूसी समाचार पत्र के साथ आये और संवेदना प्रकट करते हुए कहा कि बहुत बुरी खबर है ..... सोवियत संघ में अति लोकप्रिय, आपके देश की प्रधानमंत्री का पुत्र वायुयान दुर्घटना में मारा गया है| उस रूसी अखबार में संजय गाँधी की फोटो भी थी| उसी से पता चला कि संजय गाँधी वायुयान दुर्घटना में मारे गए हैं|
उस घटना के लगभग दो माह बाद एक बार मैं दिल्ली से बीकानेर जा रहा था जहाँ उन दिनों मेरा परिवार रहता था| प्रथम श्रेणी के उस डिब्बे में मेरी सामने वाली बर्थ पर स्वर्गीय राजेश पायलट भी सपत्नीक बीकानेर जा रहे थे| रात को नींद नहीं आई और पूरी रात उनसे बातचीत में ही बीत गयी|
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संजय गाँधी की आज पुण्य तिथि है| १९७५ में लगे आपात्काल में प्रधानमंत्री का पद चाहे इंदिरा गाँधी के पास रहा हो, पर देश के प्रशासन पर चलती संजय गाँधी की ही थी| संजय गाँधी की मर्जी के बिना देश में एक पत्ता भी नहीं हिलता था| सारे मंत्री और सारे सरकारी अधिकारी संजय गाँधी के सामने डर से थरथर काँपते थे| सारे देश में उनका आतंक था| आपात्काल के पश्चात बनी जनता दल की मोरारजी भाई देसाई की सरकार को गिराने में भी संजय गाँधी की कुशाग्रता या कुटिलता को ही श्रेय जाता है| यह एक विवाद का विषय है कि वे वायुयान दुर्घटना में मरे या किसी षडयंत्र में (उनके बारे में अनगिनत लेख लिखे गए थे जो गूगल पर ढूँढने से मिल जायेंगे)|
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आज संजय गाँधी का नाम लेने वाला कोई नहीं है| उनके बारे में कहीं कोई समाचार नहीं है| पता नहीं उनके परिवार वाले भी उनकी समाधि पर पुष्पांजली देने जाते हैं या नहीं|

सार की बात यह है कि कल तक जो हीरो थे, वे आज जीरो हैं| अतः हीरो बनने में कोई सार नहीं है| जीरो बनकर रहना ही अच्छा है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

पता नहीं यह दे बापस मिले या न मिले ...

पता नहीं यह दे बापस मिले या न मिले ...
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अभी तो यह बुद्धि थोड़ा बहुत काम कर रही है, अतः जितना लाभ इससे ले सकता हूँ वह मुझे ले लेना चाहिए| फिर पता नहीं है कि यह बापस मिले या न मिले|
मुझे यह आभास हो रहा है कि इस जन्म में इस शरीर महाराज की मृत्यु से पूर्व यदि आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ तो बापस यह लोक या इस से अच्छे लोक मिलेंगे या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है| हो सकता है कई जन्मों तक भटकने के उपरांत बापस यह नरदेह मिले और इस जन्म में जहाँ से छोड़ा था, फिर वहीं से प्रारम्भ करना पड़े| यह शरीर महाराज अब जीर्ण होना आरम्भ हो गया है| बहुत कम समय बचा है|
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हे परमशिव यदि कुछ अनहोनी हो भी जाए और बापस जन्म लेना ही पड़े तो उचित वातावरण में यह नर देह ही देना, किसी भोगभूमि में मत भेजना|
हे परमशिव, आप ही मेरी करुणामयी माता भी हो, अतः इस शरीर महाराज की मृत्यु से पूर्व ही अपना तत्त्व-बोध भी करा दो| मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए| मुझे विषयों में रमण मत कराओ| मेरा रमण निरंतर आप में ही हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हमारा ब्रह्मभाव जागृत क्यों नहीं होता ? .....

हमारा ब्रह्मभाव जागृत क्यों नहीं होता ? .....
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अहंकार, राग-द्वेष, क्रोध, और कामवासना ..... ये जब तक हैं तब तक ब्रह्मभाव जागृत नहीं हो सकता| इनसे मुक्त होने का एक ही उपाय है, और वह है ...... यथासंभव पूर्ण प्रेम पूर्वक आत्माकार वृत्ति से परमात्मा का ध्यान, ध्यान, ध्यान और ध्यान|
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"अहं" शब्द केवल प्रत्यगात्मा यानि परमात्मा के लिए ही प्रयुक्त होना चाहिए, न कि इस देह, बुद्धि और मन के लिए| हमारी चेतना सिर्फ सच्चिदानंद में ही स्थित रहे, ऐसा अनवरत प्रयास हो| हम इस मन, बुद्धि और शरीर को "अहं" मानते हैं, यही अहंकार है|
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हे अकारणकरुणावरुणालय, परमप्रिय, परमशिव, हमारी चेतना क्षणमात्र के लिए भी आपसे विमुख न हो| यही हमारी प्रार्थना है|

ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हम मुक्त कैसे हों ? ....

हम मुक्त कैसे हों ? ....

इसका एकमात्र उत्तर जो मेरी सीमित व अल्प बुद्धि सोच सकती है वह है .... "परम प्रेम यानि पूर्ण भक्ति को जागृत कर गहन ध्यान साधना द्वारा अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का परमात्मा में पूर्ण विसर्जन|" ...... अन्य कोई मार्ग मेरी दृष्टी में नहीं है|
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वेदांत के शिखर पुरुष स्वामी रामतीर्थ से किन्हीं अनजान लोगों ने पूछा :
"आप देवों के देव हैं ?"
"हाँ|"
"आप ईश्वर हैं ?"
"हाँ, मैं ईश्वर हूँ.... ब्रह्म हूँ|"
"सूरज, चाँद, तारे आपने बनाये ?"
"हाँ, जब से हमने बनाये हैं तबसे हमारी आज्ञा में चल रहे हैं|"
"आप तो अभी आये| आप की उम्र तो तीस-इक्कतीस साल की है |"
"तुम इस विषय में बालक हो| मेरी उम्र कभी हो नहीं सकती| मेरा जन्म ही नहीं तो मेरी उम्र कैसे हो सकती है ? जन्म इस शरीर का हुआ| मेरा कभी जन्म नहीं हुआ|"
न मे मृत्युशंका न में जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्मः|
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ||
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | शिवोहं शिवोहं | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
ॐ ॐ ॐ ||

मन में आने वाले दूषित विचारों पर लगाम लगाएँ .....


मन में आने वाले दूषित विचारों पर लगाम लगाएँ  .....
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मन में आने वाले दूषित विचारों पर यदि लगाम नहीं लगाई जाए तो सुषुम्ना में कुण्डलिनी का ऊर्ध्वगमन थम जाता है, सहस्त्रार में आनंद रूपी अमृत का प्रवाह बंद हो जाता है, सारे आध्यात्मिक अनुभव स्मृति से लुप्त होने लगते हैं, और उन्नति के स्थान पर अवनती आरम्भ हो जाती है| बहुत कीमती मूल्य चुका कर यह बात मेरे समझ में आई है|
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अतः हर समय अपने विचारों के प्रति सचेत रहें और चिंतन सदा परमात्मा का ही रहे|
जब भी कोई बुरा विचार आये तब अपने इष्ट देव का स्मरण और ॐ शिव शिव शिव शिव शिव का जाप आरम्भ कर दें| भगवान परम शिव अपने शरणागत की सदा रक्षा करते हैं|
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वह परिवर्तन हम स्वयं हैं जो विश्व में हम होते हुए देखना चाहते हैं
नित्य नियमित परमात्मा का ध्यान करने का संकल्प लें| सिर्फ बातों से कुछ नहीं होगा| परिवर्तन एक एक व्यक्ति में ही होता है| हम स्वयं बदलेंगे तो सारा युग बदलेगा| अन्धकार का सकारात्मक प्रतिकार निरंतर होना चाहिए| कोई भी संकल्प और कोई भी योजना तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक हम स्वयं ध्यान साधना न करें| पूरे विश्व में उथल-पुथल हो जाए तो भी हमारे ह्रदय में शान्ति बनी रहनी चाहिए| यह शांति ध्यान-साधना द्वारा ही संभव है| जीवन की सारी समस्याओं का समाधान ध्यान साधना द्वारा ही करें क्योंकि ध्यान साधना में जागृत परमात्मा की शक्ति ही सृष्टि की धारा को बदलने में पूर्णतः सक्षम है|
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ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||

जाति हमारी ब्रह्म है, माता-पिता हैं राम .....

जाति हमारी ब्रह्म है, माता-पिता हैं राम |
घर हमारा शुन्य में, अनहद में विश्राम ||

इस संसार में अपने प्रारब्ध कर्मों का भोग भोगने के लिए बाध्य होकर हम सब को आना ही पड़ा है| तब कोई विकल्प नहीं था| पर अब तो राग-द्वेष भी नष्टप्राय हो चुका है| एकमात्र सम्बन्ध भी सिर्फ परमात्मा से ही रह गया है|

जाति हमारी "अच्युत" है यानि जो जाति परमात्मा की है, वही जाति हमारी भी है| सांसारिक जातियाँ तो इस नश्वर देह महाराज की हैं, इस शाश्वत जीवात्मा की नहीं| इस नश्वर देह महाराज के अवसान के पश्चात् यह नश्वर जाति भी नष्ट हो जायेगी| साथ सिर्फ परमात्मा का ही होगा|

परमात्मा की अनंतता ही हमारा घर है और प्रणव रूपी अनाहत नाद का श्रवण ही विश्राम है| परमात्मा का और हमारा साथ शाश्वत है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

चेतना को छल-कपट से मुक्त करें ......


चेतना को छल-कपट से मुक्त करें ......
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प्रातःकाल में जब प्रकृति शांत होती है, तब उठें, कुछ देर प्राणायाम कर के पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर के कुशासन या ऊनी आसन पर बैठ जाएँ| आपको ह्रदय की धड़कन या तो सुनाई देगी या उसकी अनुभूति होगी| ह्रदय की हर धड़कन पर अपने गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र का या ओंकार का मानसिक जप करते रहें| जप की गति उस से तीब्र यानि अधिक भी कर सकते हैं पर कम नहीं| यह जप निरंतर चलता रहे, कभी रुके नहीं| अब किसी भी बाहरी ध्वनि को भूल जाएँ ओर अंतर में सुनाई दे रही ब्रह्मांड की ध्वनी को ही अवचेतन मन में सुनते रहें जो हमारा जप है| यह हमारा स्वभाव बन जाना चाहिए| आगे का मार्गदर्शन स्वयं परमात्मा करेंगे|
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इन बीजमंत्रों के जाप से विशुद्ध बुद्धि और परानिष्ठा की प्राप्ति होगी| छल-कपट और राग-द्वेष से रहित बुद्धि ..... विशुद्ध बुद्धि कहलाती है जो हमें साधना से ही प्राप्त होती है| मन में कपट होगा तो बुद्धि में भी कपट होगा| जहां छल-कपट और राग-द्वेष होगा वहाँ भगवान नहीं आते| घर में भी कोई अतिथि आता है तो उसके स्वागत के लिए घर में साफ़-सफाई करते हैं| यहाँ तो हम साक्षात परमात्मा को आमंत्रित कर रहे हैं| परमात्मा को अपने चेतना में प्रतिष्ठित करने के लिए चेतना को छल-कपट रूपी गन्दगी से मुक्त करना होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२० जून २०१७

बंगाल में गोरखा प्रदेश की माँग पूर्णतः न्यायसंगत और न्यायोचित है ...

बंगाल में गोरखा प्रदेश की माँग पूर्णतः न्यायसंगत और न्यायोचित है .......
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कल मैंने एक पंक्ति प्रस्तुत कर बंगाल के दार्जिलिंग में हो रहे गोरखा आन्दोलन का समर्थन किया था| उसको अनेक लोगों ने पसंद भी किया, और कुछ लोगों ने प्रतिप्रश्न भी पूछा था कि क्या मुझे वहाँ की परिस्थितियों का ज्ञान है?
कल उनको पूरा उत्तर देने के लिए मेरे पास समय नहीं था अतः मैनें वह प्रस्तुति ही हटा दी थी| आज में कम से कम शब्दों में गोरखाप्रदेश आन्दोलन की पृष्ठ भूमि बताना चाहता हूँ|
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> सन १७८० ई. तक दार्जिलिंग और सिलिगुड़ी सिक्किम का भाग थे|
> सन १७८० ई. में नेपाल ने सिक्किम पर आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार कर लिया था|
> अँगरेज़ सेना नेपाल को तो जीत नहीं पाई थी पर सिक्किम को गुरखाओं से मुक्त कराने के लिए सन १८१४ ई. में अँगरेज़ सेना ने सिक्किम में एंग्लो-गोरखा युद्ध कर के गोरखाओं को पराजित कर दिया|
> सन १८१५ ई.में हुई सुगोली की संधि के अनुसार यह सारा क्षेत्र ब्रिटिश सरकार ने अपने अधिकार में ले लिया|
> सन १८१७ ई. में हुई टटियालिया की संधि के अनुसार सिक्किम का क्षेत्र अंग्रेजों ने सिक्किम के चोग्याल को बापस सौंप दिया,
> पर सन १८३५ ई. में दार्जिलिंग के १३८ वर्गमील के क्षेत्र को सिक्किम के चोग्याल ने अंग्रेजों को भेंट में दे दिया| उसी समय अंग्रेजों ने भूटान के किल्मपोंग को भी अपने अधिकार में ले लिया|
> सन १८६६ ई. में अंग्रेजों ने दार्जिलिंग जिले का निर्माण किया और अंग्रेजों के रहने योग्य मानकर इसका खूब विकास किया|
> आज़ादी के पश्चात नेपाल भी भारत में विलय होना चाहता था, पर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने नेपाल को भारत में नहीं मिलने दिया क्योंकि नेपाल के राजा इसका घोषित हिन्दू राष्ट्र का दर्जा बरकरार ही रखना चाहते थे जो भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री को पसंद नहीं था| सूचनार्थ यह भी बताना चाहूँगा कि उत्तराखंड का कुमायूँ हिमालय का अधिकाँश क्षेत्र भी कभी नेपाल का ही भाग था जिसे अंग्रेजों ने नेपाल से छीन लिया था|
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> अंग्रेजों ने अपने प्रिय दार्जिलिंग क्षेत्र को बंगाल में मिला दिया था क्योंकि उस समय कोलकाता पूरे भारत की राजधानी थी| दार्जिलिंग क्षेत्र में गोरखाओं का बहुमत है जो बंगला भाषा का बिलकुल भी प्रयोग नहीं करते| ये देवनागरी लिपि में नेपाली भाषा का प्रयोग करते हैं| यहाँ के गोरखा लोग कट्टर हिन्दू हैं जिन्हें गोह्त्या बिलकुल भी सहन नहीं है|
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> जब बंगाल में मार्क्सवादी सत्ता में थे तब कांग्रेस ने मार्क्सवादियों को परेशान करने के लिए अलग गोरखालैंड की माँग का पूरा समर्थन किया था| एक पूर्व फौजी सुभाष घीसिंग जिसने यह आन्दोलन आरम्भ किया था वह पक्का कोंग्रेसी और राजीव गाँधी का भक्त था| उसे राजीव गाँधी का पूरा समर्थन प्राप्त था| सन १९८८ ई. तक इस आन्दोलन में बारह सौ से अधिक लोग सरकारी आंकड़ों के अनुसार मारे जा चुके थे|
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> सन १९८८ में ही एक स्वशासी दार्जिलिंग गोरखा कोंसिल बना कर इस क्षेत्र का प्रशासन उसे सौंप दिया गया| सन २००४ में इस आन्दोलन में फूट पड़ गयी|
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> सन २००९ के आम चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी ने वादा किया था कि यदि वे बापस सत्ता में आये तो तेलंगाना और गोरखालैंड नाम के दो नए राज्य बनाएँगे| इस क्षेत्र के लोगों ने भाजपा का पूरा समर्थन किया और राजस्थान के रहने वाले जसवंत सिंह को यहाँ से सांसद बना कर लोकसभा में भेजा|
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> सन २०११ के विधानसभा के चुनाव में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के चार विधायक जीते| ३० जुलाई २०१३ को कोंग्रेस ने पृथक तेलंगाना राज्य का प्रस्ताव पास कर दिया| पश्चिमी बंगाल सरकार ने पृथक गोरखालैंड नहीं बनने दिया और गोरखा जनमुक्ति आन्दोलन के सभी नेताओं को बंदी बना लिया|
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> पश्चिमी बंगाल में सन १९६१ में नेपाली भाषा को राज्य भाषा का दर्जा मिल गया था| सन १९९२ में नेपाली भाषा को भारत सरकार ने भारतवर्ष की एक सरकारी भाषा की मान्यता दे दी थी|
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> अब बंगाल की वर्त्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बंगाली भाषा को यहाँ अनिवार्य कर दिया है जिसके विरोध में पृथक गोरखालेंड का हिंसक आन्दोलन प्रारम्भ हो गया है| यह यहाँ के लोगों के विरुद्ध एक वचन भंग हुआ है|
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अब मैं इसका निर्णय पाठकों पर छोड़ता हूँ की एक पृथक गोरखा प्रदेश की मांग न्यायसंगत है या नहीं| अगर यह बंगाल का ही भाग रहा तो बांग्लादेशियों से भर जाएगा, यह भी विचार का विषय है|
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जय जननी जय भारत ! ॐ ॐ ॐ ||

Friday, 16 June 2017

नैष्कर्म्यसिद्धि .....

नैष्कर्म्यसिद्धि   .....
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श्रीमद्भगवद्गीता के मोक्ष-संन्यासयोग में भगवान श्रीकृष्ण ने नैष्कर्म्यसिद्धि की बात कही है .....
"असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः |
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ||"
यहाँ "सर्वत्र असक्तबुद्धिः", "विगतस्पृहः", और "नैष्कर्म्यसिद्धिं" इन तीन शब्दों पर विचार करना और समझना हम सब के लिए अति आवश्यक है| ये तीनों शब्द झकझोर कर रख देते हैं| इस पर हम स्वयं विचार करें और समझें|
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हे प्रभु, मुझे सब प्रकार के राग-द्वेष और आसक्तियों से मुक्त करो, कोई किन्तु-परन्तु न हो| अन्तःकरण मुझ पर हावी हो रहा है, मैं अंतःकरण पर विजयी बनूँ| अप्राप्त को प्राप्त करने की कोई स्पृहा न रहे| इस भौतिक देह और इस के भोग्य पदार्थों के प्रति कोई तृष्णा न रहे| कोई कर्ता भाव न रहे| आपका सच्चिदान्द स्वरूप ही मैं हूँ, इससे कम कुछ भी नहीं| अस्तित्व सिर्फ आपका ही है, मेरा नहीं| मेरा आत्मस्वरूप आप ही हैं| आप ही कर्ता और भोक्ता हैं| आप की जय हो|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

ध्यान से पूर्व की एक धारणा .......


ध्यान से पूर्व की एक धारणा .......
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आज्ञा चक्र में एक प्रकाश की कल्पना करें जो समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त है| पूरा ब्रह्मांड उसी प्रकाश के घेरे में है| फिर यह भाव करें कि मैं स्वयं ही वह प्रकाश हूँ, यह देह नहीं|
"परमात्मा की पूर्ण कृपा मुझ पर है| मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व, मेरा सम्पूर्ण प्रेम परमात्मा को समर्पित है| मेरा प्रेम पूरी समष्टि में व्याप्त है| पूरी समष्टि ही मेरा प्रेम है| समस्त प्रेम मैं स्वयं हूँ| जहां भी मैं हूँ, वहीं परमात्मा हैं| परमात्मा सदा मेरे साथ हैं| मेरे से पृथक कुछ भी नहीं है| मैं यह देह नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हूँ|".
"मैं ज्योतिषांज्योति हूँ, सारे सूर्यों का सूर्य हूँ, प्रकाशों का प्रकाश हूँ| जैसे भगवान भुवन भास्कर के समक्ष अन्धकार टिक नहीं सकता वैसे ही मेरे परम प्रेम रूपी प्रकाश के समक्ष अज्ञान, असत्य और अन्धकार की शक्तियां नहीं टिक सकतीं|"
"मैं पूर्ण हूँ, सम्पूर्ण पूर्णता हूँ, परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हूँ| मेरी पूर्णता ही सच्चिदानंद है, मेरी पूर्णता ही परमेश्वर है| मैं मेरे प्रियतम प्रभु के साथ एक हूँ|"
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फिर परमात्मा के शिव रूप पर ध्यान करें ...
शिवोहं शिवोहं ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१६ जून २०१६

जीवन का मूल उद्देश्य है शिवत्व की प्राप्ति ...

जीवन का मूल उद्देश्य है शिवत्व की प्राप्ति .....
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श्रुति भगवती का आदेश है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’, अर्थात शिव बनकर शिव की आराधना करो| हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस पर गहन चिंतन करें| शिवत्व का चिंतन कामनाओं/वासनाओं का शमन करता है|
जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि कामनाओं पर विजय है| पूर्ण निष्काम भाव मनुष्य का देवत्व है|
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परमात्मा सदा मौन है| यही उसका स्वभाव है| परमात्मा ने कभी अपना नाम नहीं बताया| उसके सारे नाम ज्ञानियों व् भक्तों के रचे हुए हैं| यह परमात्मा का स्वभाव है जो हमारा भी स्वभाव होना चाहिए| मौन ही सत्य और सबसे बड़ी तपस्या है| जो मौन की भाषा समझता है और जिसने मौन को साध लिया वह ही मुनि है|
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वास्तव में परमात्मा अपरिभाष्य और अचिन्त्य है| उसके बारे में जो कुछ भी कहेंगे वह सत्य नहीं होगा| सिर्फ श्रुतियाँ ही प्रमाण है, बाकि सब अनुमान| सबसे बड़ा प्रमाण तो आत्म साक्षात्कार ही है|
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सीमित व अशांत मन ही सारे प्रश्नों को जन्म देता है| जब मन शांत व विस्तृत होता है तब सारे प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं| चंचल प्राण ही मन है| प्राणों में जितनी स्थिरता आती है, मन उतना ही शांत और विस्तृत होता है| प्राणों में स्थिरता आती है प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से| अशांत चित्त ही वासनाओं को जन्म देता है| अहंकार एक अज्ञान है| ह्रदय में भक्ति (परम प्रेम) और शिवत्व की अभीप्सा भी आवश्यक है|
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शिवत्व एक अनुभूति है| उस अनुभूति को उपलब्ध होकर हम स्वयं भी शिव बन जाते हैं| शिव है जो सब का कल्याण करे| हमारा भी अस्तित्व समष्टि के लिए वरदान होगा| हमारा अस्तित्व भी सब का कल्याण करेगा| हम उस शिवत्व को प्राप्त हों|
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कूटस्थ में ओंकार रूप में शिव के गहन ध्यान से हम शिवत्व को उपलब्ध होते हैं| इससे किसी कामना की पूर्ति नहीं अपितु कामनाओं का शमन होता है| आते जाते हर साँस के साथ उनका चिंतन-मनन और समर्पण ..... उनकी परम कृपा की प्राप्ति करा कर आगे का मार्ग प्रशस्त कराता है| जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है .... कामना और इच्छा की समाप्ति| जीवन अति अल्प है, क्या हम इसे वासनाओं/कामनाओं की पूर्ती में ही नष्ट कर देंगे?
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जिनसे जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में व्याप्त हैं, जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, वे ही शिव हैं| शिव शब्द का अर्थ मंगल एवं कल्याण है| जो सबका मंगल और कल्याण करने वाले हैं, वे ही शिव हैं|
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ॐ नमः शम्भवाय च | मयोभवाय च | नमः शङ्कराय च | मयस्कराय च | नमः शिवाय च | शिवतराय च || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१६ जून २०१६
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पुनश्चः --- पतंग उड़ता है और चाहता है कि वह उड़ता ही रहे और उड़ते उड़ते आसमान को छू ले| पर वह नहीं जानता कि एक डोर से वह बंधा हुआ है जो उसे खींच कर बापस भूमि पर ले आती है| असहाय है बेचारा ! और कर भी क्या सकता है? वैसे ही जीव भी चाहता है शिवत्व को प्राप्त करना, यानि परमात्मा को समर्पित होना| उसके लिए शरणागत भी होता है और साधना भी करता है पर अवचेतन में छिपी कोई वासना अचानक प्रकट होती है और उसे चारों खाने चित गिरा देती है| पता ही नहीं चलता कि अवचेतन में क्या क्या कहाँ कहाँ छिपा है| कोई Short Cut यानि लघु मार्ग नहीं है जो इन वासनाओं से मुक्त कर दे| मार्ग एक ही है जो उपासना और समर्पण का है जिससे शिवकृपा प्राप्त होती है| अन्य कोई मार्ग मेरी दृष्टी में तो नहीं है| ॐ ॐ ॐ ||

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श्रुति भगवती का आदेश है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’, अर्थात शिव बनकर शिव की आराधना करो| हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस पर गहन चिंतन करें| शिवत्व का चिंतन कामनाओं/वासनाओं का शमन करता है|
जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि कामनाओं पर विजय है| पूर्ण निष्काम भाव मनुष्य का देवत्व है|
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परमात्मा सदा मौन है| यही उसका स्वभाव है| परमात्मा ने कभी अपना नाम नहीं बताया| उसके सारे नाम ज्ञानियों व् भक्तों के रचे हुए हैं| यह परमात्मा का स्वभाव है जो हमारा भी स्वभाव होना चाहिए| मौन ही सत्य और सबसे बड़ी तपस्या है| जो मौन की भाषा समझता है और जिसने मौन को साध लिया वह ही मुनि है|
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वास्तव में परमात्मा अपरिभाष्य और अचिन्त्य है| उसके बारे में जो कुछ भी कहेंगे वह सत्य नहीं होगा| सिर्फ श्रुतियाँ ही प्रमाण है, बाकि सब अनुमान| सबसे बड़ा प्रमाण तो आत्म साक्षात्कार ही है|
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सीमित व अशांत मन ही सारे प्रश्नों को जन्म देता है| जब मन शांत व विस्तृत होता है तब सारे प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं| चंचल प्राण ही मन है| प्राणों में जितनी स्थिरता आती है, मन उतना ही शांत और विस्तृत होता है| प्राणों में स्थिरता आती है प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से| अशांत चित्त ही वासनाओं को जन्म देता है| अहंकार एक अज्ञान है| ह्रदय में भक्ति (परम प्रेम) और शिवत्व की अभीप्सा भी आवश्यक है|
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शिवत्व एक अनुभूति है| उस अनुभूति को उपलब्ध होकर हम स्वयं भी शिव बन जाते हैं| शिव है जो सब का कल्याण करे| हमारा भी अस्तित्व समष्टि के लिए वरदान होगा| हमारा अस्तित्व भी सब का कल्याण करेगा| हम उस शिवत्व को प्राप्त हों|
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कूटस्थ में ओंकार रूप में शिव के गहन ध्यान से हम शिवत्व को उपलब्ध होते हैं| इससे किसी कामना की पूर्ति नहीं अपितु कामनाओं का शमन होता है| आते जाते हर साँस के साथ उनका चिंतन-मनन और समर्पण ..... उनकी परम कृपा की प्राप्ति करा कर आगे का मार्ग प्रशस्त कराता है| जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है .... कामना और इच्छा की समाप्ति| जीवन अति अल्प है, क्या हम इसे वासनाओं/कामनाओं की पूर्ती में ही नष्ट कर देंगे?
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जिनसे जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में व्याप्त हैं, जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, वे ही शिव हैं| शिव शब्द का अर्थ मंगल एवं कल्याण है| जो सबका मंगल और कल्याण करने वाले हैं, वे ही शिव हैं|
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ॐ नमः शम्भवाय च | मयोभवाय च | नमः शङ्कराय च | मयस्कराय च | नमः शिवाय च | शिवतराय च || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१६ जून २०१६
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पुनश्चः --- पतंग उड़ता है और चाहता है कि वह उड़ता ही रहे और उड़ते उड़ते आसमान को छू ले| पर वह नहीं जानता कि एक डोर से वह बंधा हुआ है जो उसे खींच कर बापस भूमि पर ले आती है| असहाय है बेचारा ! और कर भी क्या सकता है? वैसे ही जीव भी चाहता है शिवत्व को प्राप्त करना, यानि परमात्मा को समर्पित होना| उसके लिए शरणागत भी होता है और साधना भी करता है पर अवचेतन में छिपी कोई वासना अचानक प्रकट होती है और उसे चारों खाने चित गिरा देती है| पता ही नहीं चलता कि अवचेतन में क्या क्या कहाँ कहाँ छिपा है| कोई Short Cut यानि लघु मार्ग नहीं है जो इन वासनाओं से मुक्त कर दे| मार्ग एक ही है जो उपासना और समर्पण का है जिससे शिवकृपा प्राप्त होती है| अन्य कोई मार्ग मेरी दृष्टी में तो नहीं है| ॐ ॐ ॐ ||

'वयं तव' (हम तुम्हारे हैं) .....

'वयं तव' (हम तुम्हारे हैं) .....
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जब हम अपने प्रेम को व्यक्त करते हुए इस निर्णय पर पहुँच जाते हैं कि हे प्रभु हम सदा सिर्फ तुम्हारे हैं, तब माँगने के लिए बाकी कुछ भी नहीं रह जाता|
कुछ माँगना ही क्यों? प्रेम में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है|
कुछ माँगना एक व्यापार होता है, देना ही सच्चा प्रेम है|
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'वयं तव' ..... एक सिद्ध वेदमन्त्र है|
इस स्वयंसिद्ध वाणी में साधना की चरम सच्चाई निहित है|
यह भाव ..... परम भाव है|
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मनुष्य के जीवन का केंद्र बिंदु परब्रह्म परमात्मा है जिसमें शरणागति और समर्पण अनिवार्य है| जिस क्षण जीवन के हर कर्म के कर्ता परब्रह्म परमात्मा बन जायेंगे, उसी क्षण से हमारा अस्तित्व मात्र ही इस सृष्टि के लिए वरदान बन जायेगा
यह उच्चतम भाव है|
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मनुष्य की देह का केंद्र नाभि है| जब नाभि अपने केंद्र से हट जाती है तब देह की सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है| वैसे ही जब हम अपने जीवन के केंद्रबिंदु परमात्मा को अपने जीवन से हटा देते हैं तब हमारा जीवन भी गड़बड़ा जाता है|
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भगवान के पास सब कुछ है, पर एक चीज नहीं है, जिसके लिए वे भी तरसते हैं|
हमारे पास जो कुछ भी है वह भगवान का ही दिया हुआ है| हमारे पास अपना कहने के लिए सिर्फ एक ही चीज है, जिसे हम भगवान को अर्पित कर सकते हैं, और वह है हमारा अहैतुकी पूर्ण परम प्रेम| भगवान सदा हमारे प्रेम के लिए तरसते हैं| अपना समस्त अहंभाव, अपनी पृथकता का बोध, अपना पूर्ण प्रेम परमात्मा को समर्पण कर दीजिये| यही जीवन की सार्थकता है|
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भक्त और भगवान..... एक दुसरे में डूबे हुए ..... दोनों कितने प्यारे हैं ..... बिना एक दूसरे के दोनों अधूरे हैं ..... जीवन कैसा भी हो, सौंदर्य यही है ..... सचमुच... जीवन यही है|
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हम तुम्हारे हैं, मैं तुम्हारा हूँ | यह कभी ना भूलें |
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ||

कृपाशंकर
14June2016

Thursday, 15 June 2017

परमात्मा के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा .....

परमात्मा के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा .....
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परमात्मा के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मनुष्य की निम्न-प्रकृति है जो अवचेतन मन में राग-द्वेष और अहंकार के रूप में व्यक्त होती है| इससे निपटना मनुष्य के वश की बात नहीं है, चाहे कितनी भी दृढ़ इच्छा शक्ति और संकल्प हो| जहाँ राग-द्वेष व अहंकार होगा वहीं काम, क्रोध और लोभ भी स्वतः ही बिना बुलाये आ जाते हैं| ये मनुष्य को ऐसे चारों खाने चित्त पटकते हैं कि वह असहाय हो जाता है|
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बिना वीतराग हुए आध्यात्मिक प्रगति असम्भव है जिस के लिए परमात्मा की कृपा अत्यंत आवश्यक है| बिना प्रभुकृपा के एक कदम भी आगे बढना असम्भव है| यहीं भगवान की भक्ति, शरणागति और समर्पण काम आते हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
१५ जून २०१६

हम परमात्मा में पूर्ण हैं.......

हम परमात्मा में पूर्ण हैं.......
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इस सत्य को वे ही समझ सकते हैं जो ध्यान साधना की गहराई में निज चेतना के विस्तार और समष्टि के साथ अपनी एकात्मता की कुछ कुछ अनुभूति कर चुके हैं| अपनी पूर्णता का अज्ञान ही हमें दुखी बनाता है| दुःख शब्द का अर्थ ही है जो आकाश तत्व से दूर है| सुख का अर्थ है जो आकाश तत्व के साथ है| आध्यात्मिक स्तर पर हम स्वयं को यह देह मानते हैं यही हमारी परिच्छिन्नता और सब प्रकार के दुःखों का कारण है|
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परमात्मा की पूर्णता का ध्यान करें और निज अहं को उसमें विलीन कर दें| अन्य कोई उपाय मेरी सीमित दृष्टि में नहीं है| यह छुरे की धार पर चलने वाला मार्ग है|
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मुझे भगवान ने इतनी पात्रता नहीं दी है कि इस विषय को गहराई से समझा सकूँ| फिर भी मैंने यह प्रयास किया है| अपनी अपनी गुरु-परम्परा के अनुसार परमात्मा पर ध्यान और वैराग्य का अभ्यास करें| हमारा एकमात्र शाश्वत सम्बन्ध सिर्फ परमात्मा से ही है| अपनी चेतना को उन्हीं की चेतना से युक्त करने का सदा अभ्यास करते रहें|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

"मैं" "तुम" से पृथक नहीं हूँ .....

"मैं" "तुम" से पृथक नहीं हूँ .....
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"तुम" में और "मुझ" में कोई भेद नहीं है| "मैं" सदा तुम्हारा ही हूँ| जब "मैं" सदा तुम्हारा ही हूँ तो "मेरे" पास "मेरा" कहने को कुछ भी नहीं है| जो कुछ भी है वह "तुम" और "तुम्हारा" ही है| "मैं" और "मेरापन" एक भ्रम है| इतनी तो कृपा करना कि कभी कुछ माँगने की कामना जन्म ही न ले| "मैं" कोई मँगता-भिखारी नहीं हूँ, माँगने से एक पृथकता और भेद उत्पन्न होता है| माँगना एक व्यापार है, देना ही सच्चा प्रेम है|
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इस जीवन के केंद्र बिंदु हे परम प्रिय परब्रह्म परमात्मा "तुम" ही हो| लोकयात्रा के लिए दी हुई यह देह जिन अणुओं से निर्मित है, उसका एक एक अणु भी तुम्हारा ही है| जिन तत्वों से यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार निर्मित हुए हैं, वे सब तुम्हारे ही हैं| साधना के मार्ग पर दिया हुआ यह साधन भी तुम्हारा ही है| "तुम" और "मैं" एक हैं, इनमें कोई भेद नहीं है, कभी कोई भेद का झूठा भाव उत्पन्न ही न हो| ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१४ जून २०१७

ब्राह्मण के शास्त्रोक्त कर्म ...

ब्राह्मण के शास्त्रोक्त कर्म ... "वेदाभ्यासे शमे चैव आत्मज्ञाने च यत्नवान्" हैं :---
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आजकल इतने भयंकर मायावी आकर्षणों और गलत औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के पश्चात भी शास्त्रोक्त कर्मों को नहीं भूलना चाहिए| मनु महाराज ने ब्राह्मण के तीन कर्म बताए हैं ....."वेदाभ्यासे शमे चैव आत्मज्ञाने च यत्नवान्"| अर्थात अन्य सारे कर्मों को छोड़कर भी वेदाभ्यास, शम और आत्मज्ञान के लिए निरंतर यत्न करता रहे|
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पूरे भारत के अधिकाँश ब्राह्मणों की शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता की माध्यन्दिन शाखा है| इस का विधि भाग शतपथब्राह्मण है, जिसके रचयिता वाजसनेय याज्ञवल्क्य हैं| शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ सम्बन्धी सभी अनुष्ठानों का विस्तृत वर्णन है| जो समझ सकते हैं उन ब्राह्मणों को अपने अपने वेद का अध्ययन अवश्य करना चाहिए|
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यहाँ यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि मेरी अति अल्प और सीमित बुद्धि वेदों के कर्मकांड, उपासनाकांड और ज्ञानकांड आदि को समझने में एकदम असमर्थ है| इस जन्म में तो यह मेरे प्रारब्ध में भी नहीं है| जब भी प्रभु की कृपा होगी तब वे इसका ज्ञान कभी न कभी अवश्य करायेंगे| अभी तो सूक्ष्म प्राणायाम, ध्यान और गायत्री जप ही मेरा वेदपाठ है|
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इन्द्रियों के शमन को 'शम' कहते हैं| चित्त वृत्तियों का निरोध कर उसे आत्म-तत्व की ओर निरंतर लगाए रखना भी 'शम' है| धर्म पालन के मार्ग में आने वाले हर कष्ट को सहन करना 'तप' है| यह भी ब्राह्मण का एक कर्त्तव्य है| जब परमात्मा से प्रेम होता है और उसे पाने की एक अभीप्सा (कभी न बुझने वाली तीब्र प्यास) जागृत होती है तब गुरुलाभ होता है| धीरे धीरे मुमुक्षुत्व और आत्मज्ञान की तड़प पैदा होती है| उस आमज्ञान को प्राप्त करने की निरंतर चेष्टा करना ही ब्राह्मण का परम धर्म है|
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हे परमशिव, आपकी कृपा ही मेरा एकमात्र आश्रय है| आपकी कृपा मुझ पर सदा बनी रहे और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
१२ जून २०१७

Sunday, 11 June 2017

रस्सी खींची गयी| पं.रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये .....

फाँसी पर ले जाते समय बड़े जोर से कहा ........"वन्दे मातरम ! भारतमाता की जय !"
......... और शान्ति से चलते हुए कहा ...........
"मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे|
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे, तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे||"
फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा .....
"I wish the downfall of British Empire! अर्थात मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ!"
.......... उसके पश्चात यह शेर कहा --
"अब न अह्ले-वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है |"
........... फिर ईश्वर का ध्यान व प्रार्थना की और यह मन्त्र ---
"ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानी परासुवः यद् भद्रं तन्न आ सुवः"
पढ़कर अपने गले में अपने ही हाथों से फाँसी का फंदा डाल दिया|
.............. रस्सी खींची गयी| पं.रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये, आज जिनका १२०वाँ जन्मदिवस है|
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"तेरा गौरव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें"
उन्हीं के इन शब्दों में भारत माँ के इन अमर सुपुत्र को श्रद्धांजलि|
जय जननी जय भारत | ॐ ॐ ॐ ||
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हे पराशक्ति ! भारतवर्ष अब भ्रष्ट, कामचोर, राष्ट्र-धर्मद्रोही, झूठे और रिश्वतखोर कर्मचारियों, अधिकारियों व राजनेताओं का देश हो गया है| इन सब का समूल नाश कर ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
११ जून २०१७

इस भूमि पर वीर पुरुष ही राज्य करेंगे ......

इस भूमि पर वीर पुरुष ही राज्य करेंगे ......
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इस धरा पर सदा वीरों ने ही राज्य किया है और वीर ही राज्य करेंगे| हमें राज्य ही करना है तो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक हर दृष्टी से वीर बनना पडेगा| मैं उस महायान मत का अनुयायी नहीं हूँ जिसने आत्मरक्षा के लिए प्रतिकार का ही निषेध कर दिया और अहिंसा की इतनी गलत व्याख्या की कि पूरा भारत ही निर्वीर्य हो गया| महायान मत के नालंदा विश्वविद्यालय में दस हज़ार विद्यार्थी और तीन हज़ार आचार्य थे| उन्होंने बख्तियार खिलजी के तीन सौ घुड़सवारों का प्रतिरोध क्यों नहीं किया? उन्होंने अपने अहिंसा परमो धर्म का पालन करते हुए अपने सिर कटवा लिए पर आतताइयों से युद्ध नहीं किया| वही बख्तियार खिलजी बंगाल को रौंदता हुआ जब आसाम पहुँचा तो सनातन धर्मानुयायी आसामी वीरों ने उसकी सेना को गाजर मूली की तरह काट दिया| पूरा मध्य एशिया महायान बौद्ध मत का अनुयायी हो गया था पर वे अरब से आये मुट्ठी भर आतताइयों की तलवार की धार का सामना न कर सके और मतांतरित हो गए| सिंध के महाराजा दाहर सेन भी ऐसे ही कायरों के कारण पराजित हुए थे|
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शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक तीनों प्रकार की निर्बलता कोई स्थायी स्थिति नहीं है| यह हमारी गलत सोच, अकर्मण्यता और आलस्य के कारण हमारे द्वारा किया हुआ एक पाप है जिसका फल भुगतने के लिए हम पराधीन होते हैं, या नष्ट कर दिए जाते हैं|
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मानसिक निर्बलता के कारण हम प्रतिकूल परिस्थितियों और कठिनाइयों का सामना नहीं कर पाते और निराश व किंकर्तव्यमूढ़ हो जाते हैं| बौद्धिक निर्बलता के कारण हम सही और गलत का निर्णय नहीं कर पाते| दृढ़ मनोबल के अभाव में ही हम आध्यात्मिक क्षेत्र में भी कोई प्रगति नहीं कर पाते| दुर्बल के लिए देवता भी घातक हैं| छोटे मोटे पेड़ पौधे गर्मी में सूख जाते हैं पर बड़े बड़े पेड़ सदा लहलहाते हैं| प्रकृति भी बलवान की ही रक्षा करती है| निर्बल और अशक्त लोगों को हर क़दम पर हानियाँ उठानी पड़ती हैं|
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भारत की ही एक अति प्रसिद्ध आध्यात्मिक/राष्ट्रवादी/धार्मिक/सामाजिक संस्था के मार्गदर्शक महोदय का कुछ वर्ष पूर्व एक भाषण पढ़ा और सुना था जिसमें उन्होंने साधना द्वारा ब्रह्मतेज को प्रकट करने की आवश्यकता पर बल दिया था| मैं उससे इतना प्रभावित हुआ कि उनको सादर घर पर निमंत्रित किया और वे आये भी| उन जैसी ही कुछ और संस्थाएँ भी भारत में जन जागृति का बहुत अच्छा कार्य कर रही हैं|
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हमें हर दृष्टी से बलवान बनना पड़ेगा क्योंकि शक्ति सम्वर्धन ही उन्नति का एकमात्र मार्ग है| (आध्यात्मिक रूप से) बलहीन को परमात्मा की प्राप्ति भी नहीं होती है| हमारे आदर्श भगवान श्रीराम हैं जिन्होनें आतताइयों के संहार के लिए धनुष धारण कर रखा है| हमारे हर देवी-देवता के हाथ में शस्त्रास्त्र हैं| कायरता हमारे धर्म में है ही नहीं|
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किसी भी क्षेत्र में अनायास सफलता नहीं मिलती| उसके लिए तो निरन्तर प्रयत्न करते हुए अपनी शक्तियों को विकसित करना होता है| शक्ति का विकास अनवरत श्रम-साधना के द्वारा ही किया जा सकता है| हमें बौद्धिक सामर्थ्य का भी अति विकास करना होगा, अन्यथा इस पाप का परिणाम हमें पथभ्रष्ट कर विपत्तियों के गर्त में धकेल देगा| निर्बलता रूपी पाप का दंड अति कठोर है| "वीर भोग्या वसुंधरा" यह नीति वाक्य यही कहता है कि वीर ही इस वसुंधरा का भोग करेंगे|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
११ जून २०१७

किसी को प्रभावित करने से क्या मिलेगा ? .....


किसी को प्रभावित करने से क्या मिलेगा ? .....
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किसी को प्रभावित करने का प्रयास एक बहुत बड़ा और छिपा हुआ अहंकार है| यह स्वयं के साथ बेईमानी और धोखा है| यह राग और द्वेष की ही अभिव्यक्ति है| किसी को प्रभावित करने से क्या मिलेगा? कुछ भी नहीं मिलता, मात्र अहंकार की ही तृप्ति होती है|
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महत्वपूर्ण हम नहीं हैं, महत्वपूर्ण तो परमात्मा है जो हमारे ह्रदय में है| यह सृष्टि .... प्रकाश और अन्धकार के रूप में उन्हीं की अभिव्यक्ति है| हमें अपने रूप, गुण, धन, विद्या, बल, पद, यौवन और व्यक्तित्व का बहुत अधिक अभिमान होता है, जिसके बल पर हम दूसरों को हीन और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहते हैं| अपने शब्दों या अभिनय द्वारा एक झूठे वैराग्य और झूठी भक्ति का प्रदर्शन .... सबसे बड़ा धोखा है जो हम स्वयं को देते हैं| निश्चित रूप से यह अहंकार हमें परमात्मा से दूर करता है|
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यह अहंकार परमात्मा के अनुग्रह से ही दूर हो सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है| इसके लिए हमें भगवान से ही प्रार्थना करनी पड़ेगी जिससे वे करुणावश द्रवित होकर किसी न किसी के माध्यम से हमारा मार्गदर्शन करें| फिर अभ्यास द्वारा हमें अंतर्मुखी भी होना पड़ेगा| तब परमात्मा की ही कृपा से हमें उनकी अनुभूतियाँ भी होंगी और हम अहंकार मुक्त हो सकेंगे|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
१० जून २०१७

जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु ही है ...

जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु ही है .....
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जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु ही है| जीवात्मा अर्थात क्षेत्र को ही पशु कहते हैं जो जन्म से नाना प्रकार के पाशों यानि बंधनों में बंधा रहता है| जब तक जीव सब प्रकार के पाशों यानि बंधनों से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त नहीं होता, वह पशु ही है|
शैवागम शास्त्रों के अनुसार पदार्थ के तीन भेद होते हैं .....पशु, पाश और पशुपति|
पशुपति सर्व समर्थ, नित्य, निर्गुण, सर्वव्यापी, स्वतंत्र, सर्वज्ञ, ऐश्वर्यस्वरुप, नित्यमुक्त, नित्यनिर्मल, अपार ज्ञान शक्ति के अधिकारी, क्रियाशक्तिसम्पन्न, परम दयावान शिव महेश्वर हैं| शिवस्वरूप परमात्मा ही पशुपति के नाम से जाने जाते हैं| सृष्टि, स्थिति, विनाश, तिरोधान और अनुग्रह इनके पांच कर्म हैं|
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शिष्य की देह में जो आध्यात्मिक चक्र हैं उन पर जन्म-जन्मान्तर के कर्मफल वज्रलेप की तरह चिपके हुए हैं| इस लिए जीव को शिव का बोध नहीं होता| गुरु अपने शिष्य के चित्त में प्रवेश कर के उस के अज्ञानमय आवरण को गला देते हैं| जब शिष्य के अंतर में दिव्य चेतना स्फुरित होती है तब वह साक्षात शिव भाव को प्राप्त होता है| गुरु की चैतन्य शक्ति के बिना यह संभव नहीं है| शिष्य चाहे कितना भी पतित हो, सद्गुरु उसे ढूंढ निकालते हैं| फिर चेला जब तक अपनी सही स्थिति में नहीं आता, गुरु को चैन नहीं मिलता है| इसी को दया कहते हैं| यही गुरु रूप में शिवकृपा है|
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शैवागम दर्शन के मूल वक्ता हैं स्वयं पशुपति भगवान शिव| इसके श्रोता थे ऋषि दुर्वासा| शैवागम दर्शन के आचार्य भी दुर्वाषा ऋषि ही हैं| शैव दर्शन की अनेक परम्पराएँ हैं जिनके प्रायः सभी ग्रन्थ नेपाल के राज दरबार में सुरक्षित थे| अब पता नहीं उनकी क्या स्थिति है| बिना राज्य के सहयोग के प्राचीन ग्रन्थों का संरक्षण अति कठिन है|
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भगवान शिव से प्रार्थना है की वे सब जीवों पर कृपा करें और अपना बोध सब को कराएँ|
शिवमस्तु ! ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
१० जून २०१३
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आदि शंकराचार्य विरचित शिव स्तव :--
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पशूनां पतिं पापनाशं परेशं
गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्।
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं
महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम्॥
महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्॥
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं
गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्।
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्॥
शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले
महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्।
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप॥
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं
निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥
न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायु-
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा।
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे॥
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्।
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्॥
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते।
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ
महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः॥
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे
गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन्।
काशीपते करुणया जगदेतदेक-
स्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि॥
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ।
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मके हर चराचरविश्वरूपिन्॥

जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं .....

जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं ......
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हमारा जीवन प्रभु की चेतना से भरा हुआ हो, जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं| प्रातःकाल भोर में उठते ही परमात्मा को पूर्ण ह्रदय से पूर्ण प्रेममय होकर नमन करें, और संकल्प करें ....... "आज का दिन मेरे इस जीवन का सर्वश्रेष्ठ दिन होगा| मेरा प्रभु को समर्पण बीते हुए कल से बहुत अधिक अच्छा होगा| आज के दिन प्रभु की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मुझमें होगी| आज की ध्यान साधना बीते हुए कल से और भी अधिक अच्छी होगी|"
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ाधना की गहनता और दीर्घता से कभी संतुष्ट नहीं होना चाहिए| सदा ब्रह्मानंद में निमग्न रहने वाले योगी रामगोपाल मजूमदार ने बालक मुकुंद लाल घोष (जो बाद में परमहंस योगानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए) से कहा ......."20 वर्ष तक मैं हिमालय की एक निर्जन गुफा में नित्य 18 घंटे ध्यान करता रहा| उसके पश्चात मैं उससे भी अधिक दुर्गम गुफा में चला गया| वहां 25 वर्ष तक नित्य 20 घंटे ध्यान में मग्न रहता| मुझे नींद की आवश्यकता नहीं पडती थी, क्योंकि मैं सदा ईश्वर के सान्निध्य में रहता था| ...... फिर भी ईश्वर की कृपा प्राप्त होने का विश्वास नहीं है|...."
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परमात्मा अनंत रूप है| एक जीवन के कुछ वर्ष उसकी साधना में बीत जाना कोई बड़ी बात नहीं है| हमारा जीवन ही प्रभु की चेतना से भरा हुआ हो| जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं| उस अनंत के स्वामी के दर्शन समाधी में अवश्य होंगे| उसकी कृपा भी अवश्य होगी| उसके आनंद सागर में स्थिति भी अवश्य होगी| उसके साथ स्थायी मिलन भी अवश्य होगा| जितना हम उसके लिए बेचैन हैं, उससे अधिक वह भी हमारे लिए व्याकुल है|
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ॐ तत्सत् | गुरु ॐ, गुरु ॐ, गुरु ॐ || ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
१० जून २०१६

धर्म की रक्षा ......

धर्म की रक्षा ......
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मैंने पूर्व में कई बार अपना यह विचार व्यक्त किया है कि हम स्वधर्म की रक्षा, स्वधर्म का पालन कर के ही कर सकते हैं| अन्य कोई उपाय नहीं है| इसके लिए सर्वप्रथम तो हमें स्वयं को अपने निज जीवन में सदाचार लाने के लिए यथासंभव यम-नियमों का पालन करना होगा| अपने संस्कारों के बारे में सीखना होगा और उन्हें स्वयं के निज जीवन में उतारना होगा|
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हमारे बच्चे धर्म-रक्षक बनें इसके लिए उनके मन में बाल्यकाल से ही अच्छे संस्कार देने होंगे| बच्चों को किशोरावस्था में प्रवेश करते ही बाल रामायण, बाल महाभारत, पंचतंत्र की कहानियाँ और अच्छे से अच्छा बाल-साहित्य उपलब्ध कराना होगा| साथ साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बालक में आरम्भ से ही अच्छे संस्कार पड़ें| उन्हें भगवान से प्रेम करना और ध्यान साधना भी सिखानी होगी|
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जो वैदिक सनातन धर्म के अनुयायी हैं वे अपने बच्चों की युवावस्था आरम्भ होने से पूर्व ही उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराएँ ताकि वे गायत्री मन्त्र जाप के अधिकारी बनें| किशोरावस्था से ही गायत्री का विधि-विधान से नियमित जप करने से वे मेधावी होंगे|
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अंत में यह बात मैं बार बार दोहराऊँगा कि धर्म की रक्षा धर्म के पालन से ही हो सकती है, सिर्फ बातों से नहीं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
९ जून २०१७

परमात्मा के ध्यान में जो आनंद मिलता है वही वास्तविक सुख है .....

परमात्मा के ध्यान में जो आनंद मिलता है वही वास्तविक सुख है .....
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सुख और दुःख ये दोनों ही मन की एक अवस्था है| ये अवचेतन मन द्वारा आनंद की खोज का प्रयास है| मेरा अब तक का अनुभव तो यही कहता है कि हम जिस सुख को इन्द्रियों में ढूँढ रहे हैं, अंततः वह दुखदायी है| हमें ध्यान साधना द्वारा स्वयं ही आनंदमय होना होगा| इन्द्रियों द्वारा प्राप्त सुख हमारे आत्मबल को क्षीण करता है| उससे बुद्धि भी क्षीण होती है, और किसी भी परिस्थिति का सामना करने की सामर्थ्य कम हो जाती है| एक आध्यात्मिक साधक के लिए यह उसे परमात्मा से विमुख करने वाला है| परमात्मा के ध्यान में जो आनंद मिलता है वही वास्तविक सुख है|
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सभी साधक अन्तर्मुखी साधना में समय अधिक से अधिक दें| साधना के नाम पर इन्द्रियों के मनोरंजन को विष के सामान त्याग दें, क्योंकि यह माया का एक धोखा है| परमात्मा से हमारा वही सम्बन्ध है जो जल की एक बूँद का महासागर से है| जल की बूँद का महासागर से वियोग ही दुःखदाई है|
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भगवान की पराभक्ति, और वेदांत व योग दर्शन की बड़ी बड़ी बातें सुनने में और चर्चा करने में बहुत मीठी और अमृत के समान लगती हैं| पर व्यवहारिक रूप से साधना पक्ष अति कठिन है| परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग ऐसा है जिसमें साधना तो स्वयं को ही करनी पड़ती है जो एक बार तो अत्यधिक कष्टमय परिश्रम है| गुरु तो मार्गदर्शन करते हैं, पर चलना तो स्वयं को ही पड़ता है| इसमें कोई लघुमार्ग यानि Short cut नहीं है| बाद में तो यह स्वभाव बन जाता है| प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठना, संध्या, नामजप, अष्टांग योग आदि में बहुत अधिक उत्साह और ऊर्जा चाहिए| कहीं हम साधना के स्थान पर आध्यात्मिक/धार्मिक मनोरंजन में न फँस जाएँ| अतः सतर्क रहें| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
९ जून २०१७

जब तेल ही बेचना है तब फारसी पढने से क्या लाभ ?

जब तेल ही बेचना है तब फारसी पढने से क्या लाभ ?
यह बात बहुत देरी से समझ में आ रही है|
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"पढ़ें फ़ारसी बेचें तेल" एक बहुत पुराना मुहावरा है| देश पर जब मुसलमान शासकों का राज्य था तब उनका सारा सरकारी और अदालती कामकाज फारसी भाषा में ही होता था| उस युग में फारसी भाषा को जानना और उसमें लिखने पढने की योग्यता रखना एक बहुत बड़ी उपलब्धी होती थी| फारसी जानने वाले को तुरंत राजदरबार में या कचहरी में अति सम्मानित काम मिल जाता था| बादशाहों के दरबार में प्रयुक्त होने वाली फारसी बड़ी कठिन होती थी, जिसे सीखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती थी|
बादशाहों के उस जमाने में तेली और तंबोली (पान बेचने वाला) के काम को सबसे हल्का माना जाता था| अतः यह कहावत पड़ गयी कि "पढ़े फारसी बेचे तेल, देखो यह कुदरत का खेल"| अर्थात जब तेल ही बेचना है तो इतना परिश्रम कर के फारसी पढने का क्या लाभ हुआ?
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आध्यात्मिक अर्थ :---
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किसी को आत्मज्ञान ही प्राप्त करना है गुरु प्रदत्त आध्यात्मिक उपासना के द्वारा, तब उसे अपना सम्पूर्ण समय आध्यात्मिक साधना में ही लगाना चाहिए| उसके लिए गहन शास्त्रों का अध्ययन अनावश्यक है| आत्मज्ञान के पश्चात अन्य सारा ज्ञान तो वैसे ही प्राप्त हो जाता है| अतः एक मुमुक्षु को गुरुप्रदत्त उपासना ही करनी चाहिए| जब तेल ही बेचना है यानि आत्मज्ञान ही प्राप्त करना है तब साधना न कर के फारसी पढ़ना यानि शास्त्रों का गहन अध्ययन अनावश्यक है| इति|
ॐ ॐ ॐ ||

विपरीततम परिस्थितियों में महानतम कार्य संभव है, यदि ह्रदय में परमात्मा हो .....


विपरीततम परिस्थितियों में महानतम कार्य संभव है, यदि ह्रदय में परमात्मा हो .....
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कुछ दिन पूर्व इंदौर की प्रातःस्मरणीया, परमभक्त और इस मृत्युलोक की शिव पुत्री महारानी अहिल्याबाई होलकर के बारे में पढ़ रहा था| इनके गौरव और महानता के बारे में जितना लिखा जाए उतना ही कम है| व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में विकटतम कष्ट और प्रतिकूलताओं के पश्चात् भी इन्होने महानतम कार्य किये| इतने महान कार्य कि जिनकी तुलना नहीं की जा सकती|
इनका विवाह मल्हार राव होलकर के बेटे खाण्डेराव के साथ हुआ था जिनकी शीघ्र ही मृत्यु हो गयी| इनके एकमात्र पुत्र मालेराव भी जीवित नहीं रहे| इनकी एकमात्र कन्या बालविधवा हो गयी और पति की चिता में कूद कर स्वयं के प्राण त्याग दिए|
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अपने श्वसुर मल्हारराव होलकर की मृत्यु के समय ये मात्र ३१ वर्ष की थी और राज्य संभाला|
अपने दुर्जन सम्बन्धियों व कुछ सामंतों के षडयंत्रों और तमाम शोक व कष्टों का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए इन्होने अपने राज्य का कुशल संचालन किया| अपना राज्य इन्होने भगवान शिव को अर्पित कर दिया और उनकी सेविका और पुत्री के रूप में राज्य का कुशल प्रबंध किया| राजधानी इंदौर उन्हीं की बसाई हुई नगरी है| जीवन के सब शोक व दु:खों को शिव जी के चरणों में अर्पित कर दिया और उनके एक उपकरण के रूप में निमित्त मात्र बन कर जन कल्याण के व्रत का पालन करती रही| उनके सुशासन से इंदौर राज्य ऐश्वर्य और समृद्धि से भरपूर हो गया|
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सोमनाथ मंदिर के भग्नावशेषों के बिलकुल निकट एक और सोमनाथ मंदिर बनवाकर प्राण प्रतिष्ठा करा कर पूजा अर्चना और सुरक्षा आदि की व्यवस्था की| वाराणसी का वर्तमान विश्वनाथ मन्दिर, गयाधाम का विष्णुपाद मंदिर आदि जो विध्वंश हो चुके थे, इन्हीं के प्रयासों से बने| हज़ारों दीन दुखियारे बीमार और साधू लोग इन्हें करुणामयी माता कह कर पुकारते थे| सेंकडों असहाय लोगों और साधू संतों को अन्न वस्त्र का दान इनकी नित्य की दिनचर्या थी| पूरे भारतवर्ष में अनगिनत मंदिर, सडकें, धर्मशालाएं, अन्नक्षेत्र, सदावर्त, तालाब और नदियों के किनारे पक्के घाट इन्होने बनवाए| नर्मदा तट पर पता नहीं कितने तीर्थों को वे जागृत कर गईं| महेश्वर तीर्थ इन्हीं के प्रयासों से धर्म और विद्द्या का केंद्र बना| अमर कंटक में यात्री निवास और जबलपुर में स्फटिक पहाड़ के ऊपर श्वेत शिवलिंग स्थापित कराया| परिक्रमाकारियों के लिए व्यवस्थाएं कीं| ओम्कारेश्वर में ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति की| वहां प्रतिदिन पंद्रह हज़ार आठ सौ मिटटी के शिवलिंग बना कर पूजे जाते थे, फिर उनका विसर्जन कर दिया जाता था|
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यहाँ दो शब्द उनके श्वसुर मल्हार राव के बारे में भी लिखना उचित रहेगा|
छत्रपति शिवाजी के पोते साहू जी ने एक चित्तपावन ब्राह्मण बालाजी बाजीराव (प्रथम) को पेशवा नियुक्त किया| बालाजी बाजीराव वेश बदल कर बिना सुरक्षा व्यवस्था के तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े| मार्ग के एक गाँव में उनको मुगलों के जासूसों ने पहचान लिया और उनकी हत्या के लिए बीस मुग़ल सैनिक पीछे लगा दिए| मल्हार राव ने कुछ भैंसे पाल रखीं थीं और उस गाँव में दूध बेच कर गुजारा करते थे| वे मुग़ल जासूस भी उन्हीं से दूध खरीदते थे| उनकी आपसी बातचीत से मल्हार राव को सब बातें स्पष्ट हो गईं| उनकी देशभक्ति जागृत हो गयी और चुपके से उनहोंने पेशवा को ढूंढकर सारी स्थिति स्पष्ट कर दी| यही नहीं पेशवा को एक संकरी घाटी में से सुरक्षित निकाल कर भेज दिया और उनकी तलवार खुद लेकर उन बीस मुगलों को रोकने खड़े हो गए| उस तंग घाटी से एक समय में सिर्फ एक ही व्यक्ति निकल सकता था| ज्यों ही कोई मुग़ल सैनिक बाहर निकलता, मल्हार राव की तलवार उसे यमलोक पहुंचा देती| उन्होंने पांच मुग़ल सैनिकों को यमलोक पहुंचा दिया| इसे देख बाकी पंद्रह मुग़ल सैनिक गाली देते हुए बापस लौट गए| उन्होंने मल्हार राव के घर को आग लगा दी, उसके बच्चों और पत्नी की हत्या कर दी व भैंसों को हाँक कर ले गए|
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मल्हार राव, पेशवा बाजीराव के दाहिने हाथ बन कर उनके साथ हर युद्ध में रहे| समय के साथ बाजीराव विश्व के सफलतम सेनानायक बने| उन्होंने अनेक युद्ध लड़े और कभी पराजित नहीं हुए| वे महानतम हिन्दू सेनानायकों में से एक थे| उन्होंने कभी पराजय का मुंह नहीं देखा| उनकी असमय मृत्यु नहीं होती तो भारत का इतिहास ही अलग होता| पेशवाओं ने वर्त्तमान इंदौर क्षेत्र का राज्य मल्हार राव होलकर को दे दिया था जहाँ की महारानी परम शिवभक्त उनकी पुत्रवधू अहिल्याबाई बनी|
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हमें गर्व है ऐसी शासिका पर| दुर्भाग्य से भारत में धर्म-निरपेक्षता के नाम पर ऐसे महान व्यक्तियों के इतिहास को नहीं पढाया जाता| भारत के अच्छे दिन भी लौटेंगे| इस लेख को लिखने के पीछे यही स्पष्ट करना था की यदि ह्रदय में भक्ति और श्रद्धा हो तो व्यक्ति कैसी भी मुसीबतों का सामना कर जीवन में सफल हो सकता है| इति| ॐ स्वस्ति| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
June 08, 2013

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा .....

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा .....
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बिना परम प्रेम यानि बिना भक्ति के भगवान नहीं मिल सकते| अन्य सभी साधन भी तभी सफल होते हैं जब ह्रदय में भक्ति होती है| जीवन की हर कमी, विफलता, अभाव, दुःख और पीड़ा एक रिक्त स्थान है जिसकी भरपाई सिर्फ प्रभुप्रेम से ही हो सकती है| अपने समस्त अभाव, दुःख और पीड़ाएँ प्रभु को समर्पित कर दो| अपने प्रारब्ध और संचित कर्म भी उन्हें ही सौंप दो| हमारा स्वभाव प्रेम है जिसकी परिणिति आनंद है| कर्ता वे हैं, हम नहीं| सारे कर्म भी उन्हीं के हैं और कर्मफल भी उन्हीं के| साक्षी ही नहीं अपितु दृष्टी, दृष्टा और दृष्य भी वे ही हैं| इस मायावी दुःस्वप्न से जागो और अपने जीवत्व को परम शिवत्व में समर्पित कर दो| संसार में सुख की खोज ही सब दुःखों का कारण है| मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है| यह निराशा सदा दुःखदायी है|
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परमात्मा से अहैतुकी परम प्रेम, आनंददायी है| उस आनंद की एक झलक पाने के पश्चात ही संसार की असारता का बोध होता है| प्रभुप्रेमी की सबसे बड़ी सम्पत्ति, 'उनके' श्री-चरणों में आश्रय पाना है|
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जो योग-मार्ग के पथिक हैं उनके लिए सहस्त्रार ही गुरुचरण है| आज्ञाचक्र का भेदन और सहस्त्रार में स्थिति बिना गुरुकृपा के नहीं होती| जब चेतना उत्तरा-सुषुम्ना यानि आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य विचरण करने लगे तब समझ लेना चाहिए कि गुरु की कृपा हो रही है|
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जब स्वाभाविक और सहज रूप से सहस्त्रार में व उससे ऊपर की ज्योतिर्मय विराटता में ध्यान होने लगे तब समझ लेना चाहिए कि श्रीगुरुचरणों में अर्थात प्रभुचरणों में आश्रय प्राप्त हो रहा है| तब भूल से भी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए| एक साधक योगी की चेतना वैसे भी अनाहत चक्र से ऊपर ही रहती है| सहस्त्रार व उससे ऊपर की स्थायी स्थिति "परमहंस" होने का लक्षण है|
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एकमात्र मार्ग है ..... परम प्रेम, परम प्रेम और परम प्रेम| इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है|
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा| बिना प्रेम के राम (परमात्मा) की प्राप्ति नहीं है चाहे कितना भी योग जप तप कर लिया जाये|
रामही केवल प्रेम पिआरा, जान लेहु जो जाननिहारा ||
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गुरु भी कोई हाड -मांस की देह नहीं होती| वह तो एक तत्व चेतना होती है| भगवन शिव ही गुरु रूप में आते हैं| उन्नत अवस्था में गुरु शिष्य में कोई भेद नहीं होता| योगियों के लिए कूटस्थ ही गुरु होता है| समाधी की उन्नत ब्राह्मी अवस्था में कूटस्थ में एक पञ्चकोणीय नक्षत्र के दर्शन होते हैं जो पंचमुखी महादेव हैं| वे ही सद्गुरु हैं| उस नक्षत्र का भेदन कर योगी स्वयं शिवस्वरुप हो जाता है|
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आज के परिप्रेक्ष्य में ब्राह्मण भी वही है जो निरंतर समष्टि के कल्याण की कामना करता है, जिसकी चेतना ऊर्ध्वगामी है, और जिसके ह्रदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा है|
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ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
08June2016

ध्यान करो, मन ध्यान करो, गुरु के वचन का ध्यान करो .......

ध्यान करो, मन ध्यान करो, गुरु के वचन का ध्यान करो .......
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जो हमारे माध्यम से साँस ले रहा है, वह परमात्मा ही है |
जो हमारी आँखों से देख रहा है वह परमात्मा ही है |
जो हमारे ह्रदय में धड़क रहा है वह परमात्मा ही है |
जो हमारे माध्यम से सोच विचार कर रहा है वह परमात्मा ही है |
जो इस देह की सारी क्रियाओं का संचालक है, वह परमात्मा ही है |
जो हमारा प्राण और अस्तित्व है, वह परमात्मा ही है |
जो हमारा प्रेम और आनंद है, वह परमात्मा ही है |
जो कुछ भी हमारा है वह परमात्मा ही है |
हम तो कुछ हैं ही नहीं, सब कुछ तो परमात्मा ही है |
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उस परमात्मा के एक उपकरण मात्र बन जाओ |
उसे स्वयं में प्रवाहित होने दो |
उठते, बैठते, सोते, जागते और सर्वदा उसी के चैतन्य में रहो |
उसे अपना सब कुछ अर्पित कर दो |
कुछ भी बचा कर अपने पास न रखो |
हर साँस पर उसका नाम हो, हर साँस उसी की है, वो ही तो साँस ले रहा है |
वह ही हमारे माध्यम से यह जीवन जी रहा है |
वह ही इस जीवन का एकमात्र कर्ता है |
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सारा प्रेम उसी को दे दो, अपना सारा अस्तित्व उसी को समर्पित कर दो |
उससे पृथकता उसके प्रति परम प्रेम को व्यक्त करने के लिए ही है |
सार की बात यह है कि परमात्मा के एक उपकरण मात्र बन कर परमात्मा को अपना स्वयं का ध्यान करने दो |
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हम कुछ पाने के लिए परमात्मा का ध्यान नहीं कर रहे है, बल्कि उसका दिया सब कुछ उसी को बापस लौटाने के लिए कर रहे हैं, हमें उसी को उपलब्ध होना है क्योंकि हम उसे प्रेम करते हैं |
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उसी के प्रेम में मत्त, स्तब्ध और आत्माराम (आत्मा में रमण करने वाला) हो जाओ |
उस की चेतना में स्वयं को विसर्जित कर दो |
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गुरु रूप में उन्होंने ही ऐसा करने का आदेश दिया है | यह गुरु का आदेश और उपदेश है | कौन क्या कहता है और क्या सोचता है इस का कोई महत्व नहीं है |
हम गुरु और परमात्मा की दृष्टी में क्या हैं, महत्व सिर्फ इसी का है|
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ॐ श्रीगुरवे नमः | ॐ श्रीपरमात्मने नमः | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
07June 2016

भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, चाहे इसे कोई माने या न माने .....

भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, चाहे इसे कोई माने या न माने .....
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भारत की अस्मिता हिंदुत्व है| हिंदुत्व के बिना भारत, भारत नहीं है| भारत की आत्मा आध्यात्म है| दूसरे शब्दों में भारत एक आध्यात्मिक देश है| प्राचीन काल से अब तक इस देश पर कई बार असुरों का अधिकार हुआ है पर देवत्व की शक्तियों ने सदा उन्हें पराभूत कर के पुनश्चः धर्म की स्थापना की है|
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भारत का अस्तित्व सदा बचा रहा है सिर्फ धर्म की पुनर्स्थापना के लिए| सूक्ष्म रूप से भारत ऊर्ध्वमुखी चेतना के लोगों का समूह है जो चाहे कहीं भी रहते हों पर उनकी चेतना ऊर्ध्वमुखी है| चौबीस हज़ार वर्षों के कालखंड में चौबीस सौ वर्ष ही ऐसे आते हैं जब भारत का पतन होता है| भारत फिर खड़ा हो जाता है| वह पतन का समय अब निकल चुका है| आगे प्रगति ही प्रगति है| धर्म की निश्चित रूप से पुनर्स्थापना होगी और आसुरी शक्तियाँ पराभूत होंगी|
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जो अपनी बात मनाने के लिए हिंसा से दूर है वह हिन्दू है| भारत पुनश्चः आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र होगा| इसके लिए हमें धर्माचरण द्वारा ब्रह्मत्व को जागृत कर दैवीय शक्तियों का आश्रय भी लेना होगा| जो धर्माचरण नहीं करेंगे वे नष्ट हो जायेंगे|
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एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति का उदय हम सब के भीतर हो रहा है जिसके आगे असत्य और अन्धकार नहीं टिक पायेगा|
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ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ ||

वीर शैव मत ...........

वीर शैव मत ...........
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कर्णाटक में वीरशैव सम्प्रदाय के मतानुयायी बहुत अच्छी संख्या में हैं, जिनमें मेरे कुछ मित्र भी हैं| उन्हीं के लिए यह लेख लिख रहा हूँ| इस मत के सिद्धांतों की गहराई में न जाकर जो ऊपरी सतह है उसी की चर्चा कर रहा हूँ|
इस सम्प्रदाय का नाम "वीरशैव", भगवन शिव के गण 'वीरभद्र' के नाम पर पड़ा है जिन्होंने रेणुकाचार्य के रूप में अवतृत होकर वीरपीठ की स्थापना की और इस मत को प्रतिपादित किया|
स्कन्द पुराण के अंतर्गत शंकर संहिता और माहेश्वर खंड के केदारखंड के सप्तम अध्याय में दिए हुए सिद्धांत और साधन मार्ग ही वीर शैव मत द्वारा स्वीकार्य हैं|
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इस मत के अनुयायियों का मानना है कि ------ वीरभद्र, नंदी, भृंगी, वृषभ और कार्तिकेय ---- इन पाँचों ने पाँच आचार्यों के रूप में जन्म लेकर इस मत का प्रचार किया| इस मत के ये ही जगत्गुरू हैं| इन पाँच आचार्यों ने भारत में पाँच मठों की स्थापना की|
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(1) भगवान रेणुकाचार्य ने वीरपीठ की स्थापना कर्णाटक में भद्रा नदी के किनारे मलय पर्वत के निकट रम्भापुरी में की|
(2) भगवान दारुकाचार्य ने सद्धर्मपीठ की स्थापना उज्जैन में महाकाल मन्दिर के निकट की|
(3) भगवान एकोरामाराध्याचार्य ने वैराग्यपीठ की स्थापना हिमालय में केदारनाथ मंदिर के पास की|
(4) भगवान पंडिताराध्य ने सूर्यपीठ की स्थापना श्रीशैलम में मल्लिकार्जुन मंदिर के पास की|
(5) भगवान विश्वाराध्य ने ज्ञानपीठ की स्थापना वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर के पास की| इसे जंगमवाटिका या जंगमवाड़ी भी कहते हैं|
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वीरशैव मत की तीन शाखाएँ हैं ------- (1) लिंगायत, (2) लिंग्वंत, (३) जंगम|
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सन 1160 ई. में वीरशैव सम्प्रदाय के एक ब्राह्मण परिवार में आचार्य बासव का जन्म हुआ| उन्होंने भगवान शिव की गहन साधना की और भगवान शिव का साक्षात्कार किया| उन्होंने इसी सम्प्रदाय में एक और उप संप्रदाय --- जंगम -- की स्थापना की| जंगम उपसंप्रदाय में शिखा, यज्ञोपवीत, शिवलिंग, व रुद्राक्ष धारण और भस्म लेपन को अनिवार्य मानते हैं|
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वीरशैव के अतिरिक्त अन्य भी अनेक महान शैव परम्पराएँ हैं| सब के दर्शन अति गहन हैं| सब में गहन आध्यात्मिकता है अतः उन पर इन मंचों पर चर्चा करना असंभव है| कौन सी परंपरा किस के अनुकूल है इसका निर्णय तो स्वयं सृष्टिकर्ता परमात्मा या उनकी शक्ति माँ भगवती ही कर सकती है| शैवाचार्यों के अनुसार सभी शैवागमों के आचार्य दुर्वासा ऋषि हैं| इति|
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ॐ स्वस्ति ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव शिव शिव शिव शिव !
कृपाशंकर
०६ जून २०१३

बलहीन को परमात्मा नहीं मिलते ......

बलहीन को परमात्मा नहीं मिलते ......
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भारत में आसुरी शक्तियों को पराभूत करने के लिए हमें साधना द्वारा दैवीय शक्तियों को जागृत कर उनकी सहायता लेनी ही होगी| आज हमें एक ब्रह्मशक्ति की आवश्यकता है| जब ब्रह्मत्व जागृत होगा तो क्षातृत्व भी जागृत होगा| अनेक लोगों को इसके लिए साधना करनी होगी, अन्यथा हम लुप्त हो जायेंगे|
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युवा वर्ग को चाहिए कि वे अपनी देह को तो शक्तिशाली बनाए ही, बुद्धिबल और विवेक को भी बढ़ाएँ|
उपनिषद तो स्पष्ट कहते हैं --- "नायमात्मा बलहीनेनलभ्यः|" यानी बलहीन को परमात्मा नहीं मिलते|

उपनिषदों का ही उपदेश है --- "अश्मा भव, पर्शुर्भव, हिरण्यमस्तृताम् भव|"
यानी तूँ पहिले तो चट्टान की तरह बन, चाहे कितने भी प्रवाह और प्रहार हों पर अडिग रह|
फिर तूँ परशु की तरह तीक्ष्ण हो, कोई तुझ पर गिरे वह भी कटे और तूँ जिस पर गिरे वह भी कटे|
पर तेरे में स्वर्ण की पवित्रता भी हो, तेरे में कोई खोट न हो|
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हमारे शास्त्रों में कहीं भी कमजोरी का उपदेश नहीं है|
हमारे तो आदर्श हनुमानजी हैं जिनमें अतुलित बल भी हैं और ज्ञानियों में अग्रगण्य भी हैं|
धनुर्धारी भगवान श्रीराम और सुदर्शनचक्रधारी भगवन श्रीकृष्ण हमारे आराध्य देव हैं|
हम शक्ति के उपासक हैं, हमारे हर देवी/देवता के हाथ में अस्त्र शस्त्र हैं|
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भारत का उत्थान होगा तो एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति से ही होगा जो हमें ही जागृत करनी होगी|
ॐ ॐ ॐ ||

जून ०६, २०१५

माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं .......

माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं .......
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एक बार भगवान शिव और माँ पार्वती ने अपने दोनों पुत्रों कार्तिकेय जी और गणेशजी के समक्ष ब्रह्मांड का चक्कर लगाने की प्रतियोगिता रखी कि दोनों में से कौन पहले ब्रह्मांड का चक्कर लगाता है| गणेश जी और कार्तिकेय जी दोनों एक साथ रवाना हुए| कार्तिकेय जी का वाहन था मोर जबकि गणेश जी का मूषक| कार्तिकेय जी क्षण भर में मोर पर बैठकर आँखों से ओझल हो गए जबकि गणेश जी अपनी सवारी पर धीरे-धीरे चलने लगे| थोड़ी देर में गणेशजी बापस लौट आए और माता-पिता से क्षमा माँगी और उनकी तीन बार परिक्रमा कर कहा कि लीजिए मैंने आपका काम कर दिया| दोनों गद्‍गद्‍ हो गए और पुत्र गणेश की बात से सहमत भी हुए| गणेश जी का कहना था ‍कि माता-पिता के चरणों में ही संपूर्ण ब्रह्मांड होता है|
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माता पिता दोनों ही प्रथम परमात्मा हैं| पिता ही शिव हैं और माँ जगन्माता है| माता पिता दोनों मिलकर शिव और शिवानी यानि अर्धनारीश्वर के रूप हैं| किसी भी परिस्थिति में उनका अपमान नहीं होना चाहिए| उनका सम्मान परमात्मा का सम्मान है| यदि उनका आचरण धर्म-विरुद्ध और सन्मार्ग में बाधक है तो भी वे पूजनीय हैं| ऐसी परिस्थिति में हम उनकी बात मानने को बाध्य नहीं हैं पर उन्हें अपमानित करने का अधिकार हमें नहीं है| हम उनका भूल से भी अपमान नहीं करें| उनका पूर्ण सम्मान करना हमारा परम धर्म है|
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श्रुति भी कहती है ..... मातृदेवो भव, पितृदेवो भव| माता पिता के समान गुरु नहीं होते| माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं| यदि हम उनकी उपेक्षा करके अन्य किसी भी देवी देवता की उपासना करते हैं तो हमारी साधना सफल नहीं हो सकती| कोई भी ऐसा महान व्यक्ति आज तक नहीं हुआ जिसने अपने माता-पिता की सेवा नहीं की हो| श्री और श्रीपति, शिव और शक्ति .... वे ही इस स्थूल जगत में माता-पिता के रूप में प्रकट होते हैं| उनके अपमान से भयंकर पितृदोष लगता है| पितृदोष जिन को होता है, या तो उनका वंश नहीं चलता या उनके वंश में अच्छी आत्माएं जन्म नहीं लेती| पितृदोष से घर में सुख शांति नहीं होती और कलह बनी रहती है| आज के समय अधिकांश परिवार पितृदोष से दु:खी हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Monday, 5 June 2017

परमात्मा की कृपा ही हमें मुक्त कर सकती है .....


परमात्मा की कृपा ही हमें मुक्त कर सकती है .....
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भगवान स्वयं ही करुणावश कृपा कर के हमें अपने साथ एक कर सकते हैं| यह न तो निज प्रयास से संभव है और न ही किसी देवी-देवता के द्वारा| असुर और सुर दोनों ही आध्यात्म मार्ग में बाधक हैं| देवता भी बुद्धि में दोष और अविश्वास उत्पन्न कर देते हैं| अतः आध्यात्मिक साधना से पूर्व भगवान से प्रार्थना और कुछेक शांतिमंत्रों का पाठ अवश्य करना चाहिए ताकि साधनामार्ग निर्विघ्न रहे| गुरु भी वही हो सकता है जो श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ और जीवनमुक्त हो|
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कुछ शान्तिमंत्र :--
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
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ॐ सह नाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
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ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः | शं नो भवत्वर्यमा | शं न इन्द्रो वृहस्पतिः | शं नो विष्णुरुरुक्रमः |
नमो ब्रह्मणे | नमस्ते वायो | त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि | त्वमेव प्रत्यक्षम् ब्रह्म वदिष्यामि |
ॠतं वदिष्यामि | सत्यं वदिष्यामि | तन्मामवतु | तद्वक्तारमवतु | अवतु माम् | अवतु वक्तारम् |
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
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ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि |
सर्वम् ब्रह्मौपनिषदम् माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणम् मेऽस्तु |
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु |
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
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ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठित-मावीरावीर्म एधि |
वेदस्य म आणिस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्
संदधाम्यृतम् वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु
तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् |
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
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ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः |
स्थिरैरन्ङ्गैस्तुष्टुवागं सस्तनूभिः | व्यशेम देवहितम् यदायुः |
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः |
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः |
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः |
स्वस्ति नो ब्रिहस्पतिर्दधातु ||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
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ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: |
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ||
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ||
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ॐ असतो मा सद्गमय | तमसो मा ज्योतिर्गमय | मृत्योर्माऽमृतं गमय |
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ||
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ॐ ॐ ॐ ||

माता पिता दोनों ही प्रथम परमात्मा हैं ......

माता पिता दोनों ही प्रथम परमात्मा हैं ......
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पिता ही शिव हैं| और माता पिता दोनों मिलकर शिव और शिवानी यानि अर्धनारीश्वर के रूप हैं| किसी भी परिस्थिति में उनका अपमान नहीं होना चाहिए| उनका सम्मान परमात्मा का सम्मान है| यदि उनका आचरण धर्म-विरुद्ध और सन्मार्ग में बाधक है तो भी वे पूजनीय हैं| ऐसी परिस्थिति में आप उनकी बात मानने को बाध्य नहीं हैं पर उन्हें अपमानित करने का अधिकार आपको नहीं है| आप उनका भूल से भी अपमान नहीं करोगे| उनका पूर्ण सम्मान करना आपका परम धर्म है|
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श्रुति कहती है ..... मातृदेवो भव, पितृदेवो भव|
माता पिता के समान गुरु नहीं होते| माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं| यदि आप उनकी उपेक्षा करके अन्य किसी भी देवी देवता की उपासना करते हैं तो आपकी साधना सफल नहीं हो सकती|
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मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम, महातेजस्वी श्रीपरशुराम, महाराज पुरु, महारथी भीष्म पितामह आदि सब महान पितृभक्त थे| विनता-नंदन गरुड़, बालक लव-कुश, वभ्रूवाहन, दुर्योधन और सत्यकाम आदि महान मातृभक्त थे| कोई भी ऐसा महान व्यक्ति आज तक नहीं हुआ जिसने अपने माता-पिता की सेवा नहीं की हो| "पितरी प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवता|"
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श्री और श्रीपति, शिव और शक्ति .... वे ही इस स्थूल जगत में माता-पिता के रूप में प्रकट होते हैं|
उनके अपमान से भयंकर पितृदोष लगता है| पितृदोष जिन को होता है, या तो उनका वंश नहीं चलता या उनके वंश में अच्छी आत्माएं जन्म नहीं लेती| पितृदोष से घर में सुख शांति नहीं होती और कलह बनी रहती है| आज के समय अधिकांश परिवार पितृदोष से दु:खी हैं|
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वे प्रत्यक्ष रूप से आपके सम्मुख हैं तो प्रत्यक्ष रूप से , और नहीं भी हैं तो मानसिक रूप से उन देवी-देवता के श्री चरणों में प्रणाम करना आपका धर्म है| उन्हें प्रणाम करने का महा मन्त्र है ---
"ॐ ऐं ह्रीं"|
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यह मन्त्र स्वतः चिन्मय है| इस प्रयोजन हेतु अन्य किसी विधि को अपनाने की आवश्यकता नहीं है|
- "ॐ" तो प्रत्यक्ष परमात्मा का वाचक है|
- "ऐं" पूर्ण ब्रह्मविद्या स्वरुप है| यह वाग्भव बीज मन्त्र है महासरस्वती और गुरु को प्रणाम करने का| गुरु रूप में पिता को प्रणाम करने से इसका अर्थ होता है .... हे पितृदेव मुझे हर प्रकार के दु:खों से बचाइये, मेरी रक्षा कीजिये|
- "ह्रीं" यह माया, महालक्ष्मी और माँ भुवनेश्वरी का बीज मन्त्र है जिनका पूर्ण
प्रकाश स्नेहमयी माता के चरणों में प्रकट होता है|
अब आगे जो भी है वह आप स्वयं ही समझ लीजिये| वह मेरी क्षमता से परे है| यह एक सिद्ध संत का दिया हुआ प्रसाद है| इसमें मेरा कुछ भी नहीं है| इस मन्त्र से पितृदोष दूर होते हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
०५ जून २०१३

जगन्माता .......

जगन्माता .......
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एक शिशु अपनी माता के अतिरिक्त अन्य किसी को भी नहीं जानता| उसकी माँ ही उसके लिए सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और सब कुछ है| वह अपनी माँ के अतिरिक्त अन्य किसी की चिंता भी नहीं करता और एक मात्र माँ को ही पहचानता है| माँ भी उसकी निरंतर चिंता करती है| परमात्मा भी सर्वप्रथम हमारी माँ ही है| सृष्टिकर्ता और सृष्टिपालक के मातृरूप को नमन|
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वैसे तो परमात्मा ..... माता, पिता, बन्धु, सखा और सर्वस्व है पर माँ के रूप में उसकी अभिव्यक्ति सर्वाधिक प्रिय है| माँ के रूप में जितनी करुणा और प्रेम व्यक्त हुआ है वह अन्य किसी रूप में नहीं| अतः परमात्मा का मातृरूप ही सर्वाधिक प्रिय है| माँ का प्रेममय ह्रदय एक महासागर की तरह इतना विस्तृत है कि उसमें हमारी हिमालय सी भूलें भी एक छोटे से कंकर पत्थर से अधिक नहीं प्रतीत होतीं|
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ह्रदय की भावनाओं को व्यक्त करना चाहूँ तो मातृरूप में भी परमात्मा को कोई मानवी आकार नहीं दे सकता| जगत्जननी माँ ही मेरे ह्रदय का सम्पूर्ण प्रेम है जिसको पूर्ण रूप से पाने के अतिरिक्त अन्य कोई उद्देश्य जीवन का हो ही नहीं सकता|
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जीवन में यदि कुछ प्राप्त करने योग्य है तो वे जगन्माता ही हैं, जिनसे परे कुछ भी नहीं है| मेरा स्थान उनके ह्रदय में निरंतर है| उनसे प्रेम ही जीवन की सबसे बड़ी और एकमात्र उपलब्धि है|
उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
०६ जून २०१३

Sunday, 4 June 2017

साधना का पथ कठिन है .....

साधना का पथ कठिन है .....
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देवता भी नहीं चाहते कि कोई जीवात्मा मुक्त हो| वे भी एक मुमुक्षु के मार्ग में निरंतर यथासंभव बाधाएँ उत्पन्न करते हैं| आसुरी शक्तियाँ तो चाहती ही हैं कि कैसे भी साधक भ्रष्ट हो और वे उसे अपने अधिकार में कर लें|
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लौकिक विघ्न दूर किये बिना धर्म का पालन असंभव है| आजकल घर-परिवारों और समाज का वातावरण इतना विषाक्त है कि नित्य नैमित्तिक कर्म करना और सदाचार का पालन करना अत्यंत कठिन होता जा रहा है| अतः ब्रह्मनिष्ठ सद् गुरू का आश्रय, निरंतर सत्संग, वैराग्य और अभ्यास अति आवश्यक है|
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बहुत दुर्लभ दृढ़ता वाला मुमुक्षु ही विघ्नों को लाँघ कर साक्षात्कार कर सकता है| परमात्मा ही करुणा कर के निरंतर प्रेरणा देते रहते हैं| नित्य नियमित उपासना आवश्यक है अन्यथा मुमुक्षुत्व ही लुप्त हो जाता है| साधना स्वयं के वश की नहीं है| अपने इष्ट देव को ही साधक, साध्य और साधना बनाना सर्वाधिक आसान है|
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ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ |||

गंगा दशहरा :---

गंगा दशहरा :---
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ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को हस्त नक्षत्र में भागीरथ की तपस्या से माँ गंगा का भारत की इस पावन धरा पर अवतरण हुआ था| अतः इस दिन को गंगा दशहरा के नाम से जाना जाने लगा| आज गंगा दशहरा के दिन गंगा-स्नान का विशेष महत्व है| कई श्रद्धालू गंगा स्नान के पश्चात पितृ तर्पण और दान-पुण्य भी करते हैं|
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सेतुबंध रामेश्वर की प्रतिष्ठा भी ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को हुई थी| महर्षि याज्ञवल्क्य का जन्म भी ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को हुआ था|
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श्री गंगा स्तोत्र... (रचना : आदि जगद्गुरु शंकराचार्य)
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दॆवि! सुरॆश्वरि! भगवति! गङ्गॆ त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गॆ ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमलॆ मम मतिरास्तां तव पदकमलॆ ॥ 1 ॥
[हे देवी ! सुरेश्वरी ! भगवती गंगे ! आप तीनो लोको को तारने वाली हो... आप शुद्ध तरंगो से युक्त हो... महादेव शंकर के मस्तक पर विहार करने वाली हो... हे माँ ! मेरा मन सदैव आपके चरण कमलो पर आश्रित है...
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भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमॆ ख्यातः ।
नाहं जानॆ तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥
[ हे माँ भागीरथी ! आप सुख प्रदान करने वाली हो... आपके दिव्य जल की महिमा वेदों ने भी गई है... मैं आपकी महिमा से अनभिज्ञ हू... हे कृपामयी माता ! आप कृपया मेरी रक्षा करें...
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हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गॆ हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गॆ ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥
[ हे देवी ! आपका जल श्री हरी के चरणामृत के समान है... आपकी तरंगे बर्फ, चन्द्रमा और मोतिओं के समान धवल हैं... कृपया मेरे सभी पापो को नष्ट कीजिये और इस संसार सागर के पार होने में मेरी सहायता कीजिये...
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तव जलममलं यॆन निपीतं परमपदं खलु तॆन गृहीतम् ।
मातर्गङ्गॆ त्वयि यॊ भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥
[हे माता ! आपका दिव्य जल जो भी ग्रहण करता है, वह परम पद पता है... हे माँ गंगे ! यमराज भी आपके भक्तो का कुछ नहीं बिगाड़ सकते...
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पतितॊद्धारिणि जाह्नवि गङ्गॆ खण्डित गिरिवरमण्डित भङ्गॆ ।
भीष्मजननि हॆ मुनिवरकन्यॆ पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्यॆ ॥ 5 ॥
[हे जाह्नवी गंगे ! गिरिवर हिमालय को खंडित कर निकलता हुआ आपका जल आपके सौंदर्य को और भी बढ़ा देता है... आप भीष्म की माता और ऋषि जह्नु की पुत्री हो... आप पतितो का उद्धार करने वाली हो... तीनो लोको में आप धन्य हो...
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कल्पलतामिव फलदां लॊकॆ प्रणमति यस्त्वां न पतति शॊकॆ ।
पारावारविहारिणिगङ्गॆ विमुखयुवति कृततरलापाङ्गॆ ॥ 6 ॥
[ हे माँ ! आप अपने भक्तो की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली हो... आपको प्रणाम करने वालो को शोक नहीं करना पड़ता... हे गंगे ! आप सागर से मिलने के लिए उसी प्रकार उतावली हो जिस प्रकार एक युवती अपने प्रियतम से मिलने के लिए होती है...
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तव चॆन्मातः स्रॊतः स्नातः पुनरपि जठरॆ सॊपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गॆ कलुषविनाशिनि महिमॊत्तुङ्गॆ ॥ 7 ॥
[हे माँ ! आपके जल में स्नान करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता... हे जाह्नवी ! आपकी महिमा अपार है... आप अपने भक्तो के समस्त कलुशो को विनष्ट कर देती हो और उनकी नरक से रक्षा करती हो...
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पुनरसदङ्गॆ पुण्यतरङ्गॆ जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गॆ ।
इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणॆ सुखदॆ शुभदॆ भृत्यशरण्यॆ ॥ 8 ॥
[हे जाह्नवी ! आप करुणा से परिपूर्ण हो... आप अपने दिव्य जल से अपने भक्तो को विशुद्ध कर देती हो... आपके चरण देवराज इन्द्र के मुकुट के मणियो से सुशोभित हैं... शरण में आने वाले को आप सुख और शुभता (प्रसन्नता) प्रदान करती हो...
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रॊगं शॊकं तापं पापं हर मॆ भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारॆ वसुधाहारॆ त्वमसि गतिर्मम खलु संसारॆ ॥ 9 ॥
[ हे भगवती ! मेरे समस्त रोग, शोक, ताप, पाप और कुमति को हर लो... आप त्रिभुवन का सार हो और वसुधा (पृथ्वी) का हार हो... हे देवी ! इस समस्त संसार में मुझे केवल आपका ही आश्रय है...
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अलकानन्दॆ परमानन्दॆ कुरु करुणामयि कातरवन्द्यॆ ।
तव तटनिकटॆ यस्य निवासः खलु वैकुण्ठॆ तस्य निवासः ॥ 10 ॥
[हे गंगे ! प्रसन्नता चाहने वाले आपकी वंदना करते हैं... हे अलकापुरी के लिए आनंद-स्रोत... हे परमानन्द स्वरूपिणी... आपके तट पर निवास करने वाले वैकुण्ठ में निवास करने वालो की तरह ही सम्मानित हैं...
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वरमिह नीरॆ कमठॊ मीनः किं वा तीरॆ शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचॊ मलिनॊ दीनस्तव न हि दूरॆ नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥
[ हे देवी ! आपसे दूर होकर एक सम्राट बनकर जीने से अच्छा है आपके जल में मछली या कछुआ बनकर रहना... अथवा तो आपके तीर पर निर्धन चंडाल बनकर रहना...
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भॊ भुवनॆश्वरि पुण्यॆ धन्यॆ दॆवि द्रवमयि मुनिवरकन्यॆ ।
गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरॊ यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥
[हे ब्रह्माण्ड की स्वामिनी ! आप हमें विशुद्ध करें... जो भी यह गंगा स्तोत्र प्रतिदिन गाता है... वह निश्चित ही सफल होता है...
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यॆषां हृदयॆ गङ्गा भक्तिस्तॆषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकन्ता पञ्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥
[ जिनके हृदय में गंगा जी की भक्ति है... उन्हें सुख और मुक्ति निश्चित ही प्राप्त होते हैं... यह मधुर लययुक्त गंगा स्तुति आनंद का स्रोत है...
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गङ्गास्तॊत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शङ्करसॆवक शङ्कर रचितं पठति सुखीः तव इति च समाप्तः ॥ 14 ॥
[भगवत चरण आदि जगद्गुरु द्वारा रचित यह स्तोत्र हमें विशुद्ध कर हमें वांछित फल प्रदान करे...

साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण .... इन सब में भेद करना मात्र अज्ञानता है .....

साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण .... इन सब में भेद करना मात्र अज्ञानता है .....
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इस सृष्टि में कुछ भी निराकार नहीं है| जो भी सृष्ट हुआ है वह साकार है| एक बालक चौथी कक्षा में पढ़ता है, और एक बालक बारहवीं में पढता है, सबकी अपनी अपनी समझ है| जो जिस भाषा और जिस स्तर पर पढता है उसे उसी भाषा और स्तर पर पढ़ाया जाता है| जिस तरह शिक्षा में क्रम होते हैं वैसे ही साधना और आध्यात्म में भी क्रम हैं| एक सद्गुरू आचार्य को पता होता है कि किसे क्या उपदेश और साधना देनी है, वह उसी के अनुसार शिष्य को शिक्षा देता है|
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मेरा इस देह में जन्म हुआ उससे पूर्व भी परमात्मा मेरे साथ थे, इस देह के पतन के उपरांत भी वे ही साथ रहेंगे| वे ही माता-पिता, भाई-बहिन, सभी सम्बन्धियों और मित्रों के रूप में आये| यह उन्हीं का प्रेम था जो मुझे इन सब के रूप में मिला| वे ही मेरे एकमात्र सम्बन्धी और मित्र हैं| उनका साथ शाश्वत है|
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जो लोग समाज में बड़े आक्रामक होकर मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, वे भी या तो अपने गुरु के भौतिक चेहरे का ध्यान करते हैं, या ज्योति, नाद या किसी मन्त्र का जप करते हैं| यह भी साकार साधना ही है|
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वेदांत में जो ब्रह्म है, जिसे परब्रह्म भी कहते हैं, साकार रूप में वे ही भगवान श्रीकृष्ण के रूप में आये थे|| उनकी शिक्षाएँ श्रुतियों का सार है|
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किसी भी तरह के वाद-विवाद में न पड़ कर अपना समय नष्ट न करें और उसका सदुपयोग परमात्मा के अपने प्रियतम रूप के ध्यान में लगाएँ|
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कमर को सीधी कर के बैठें भ्रूमध्य में ध्यान करें और एकाग्रचित्त होकर उस ध्वनी को सुनते रहें जो ब्रह्मांड की ध्वनी है| हम यह देह नहीं है, परमात्मा की अनंतता हैं| अपनी सर्वव्यापकता पर ध्यान करें| ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
०४ जून २०१६

हमारे पतन का कारण और बचने के उपाय :--

हमारे पतन का कारण और बचने के उपाय :--
(स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के सत्संग से संकलित और साभार संपादित लेख)
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हमारे पतन का कारण हमारे मनोविकार हैं जो राग-द्वेष, क्रोध, भय, शोक और अभिमान से उत्पन्न होते हैं| इनसे बचने का उपाय यही है कि हम अपनी इच्छाओं यानि कामनाओं का शमन करें और उनसे मुक्त हों| इसके लिए हमें जीवन की आवश्यकताओं को कम करना होगा| संग्रह उतना ही करें जितना अति आवश्यक हो, उससे अधिक नहीं| संतोष व संयम दोनों ही आवश्यक हैं| मन के संतोष से करोड़पति और दरिद्र का भेद नही रहता| तृष्णायुक्त धनवान.... दरिद्र से बुरा है, और तृष्णा-विरत निर्धन ....धनवान से अधिक सुखी तथा स्वस्थ है| मन में संतोष होगा तो उसमें विकार उत्पन्न होने का कारण ही नहीं रहेगा|
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विषयों पर निरंतर ध्यान से कामवासना उत्पन्न होती है, जिसकी पूर्ती न होने से क्रोध उत्पन्न होता है| क्रोध से मोह अर्थात् कर्तव्याकर्तव्य की अज्ञानता उत्पन्न होती है, जिस से मनुष्य बारंबार भूलें करता है, इसे ही स्मृतिनाश कहते हैं| स्मृतिनाश से बुद्धिनाश हो जाता है और फिर सर्वनाश निश्चित् है|
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आहार की शुद्धता से मन की शुद्धि होती है| मन की शुद्धि से बुद्धि संतुलित होती हैं, फिर स्मृति लाभ होता है और आत्मज्ञान प्राप्त होता है|
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मानसिक आरोग्य के लिए मनोनिग्रह का अभ्यास सर्वोपरि है| मनोनिग्रह द्वारा विषयासक्ति से निश्चित छुटकारा मिलता है| मनोनिग्रह सात्त्विक आचरणों से सुगमता पूर्वक साध्य होता है| सात्त्विक आचरणों की भूमिका का निर्माण संध्या-वन्दन, अग्निहोत्र, ध्यान, जप और दान आदि आदर्श प्रवृतियों से होता है|
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शरीर और मन का अन्योनाश्रय सम्बन्ध है| शारीरिक क्षीणता से जब मस्तिष्क कमजोर होता है तो अनिद्रा, अस्थिरता, भ्रम, अशान्ति, भय, घबराहट आदि लक्षण उत्पन्न होते है जो मानसिक उद्वेगोँ को बढ़ाते हैं| बाल्यकाल में ही वेदोक्त स्वस्थवृत का अभ्यास रहे तो रात-दिन परिश्रम करने पर भी शारीरिक क्षीणता नही होती और जीवन मेँ मानसिक आनन्द बना रहता है|
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छात्र जीवन आजकल कुछ विचित्र होता जा रहा है| शिक्षक गुरुओं के प्राचीन दायित्व से कतराते हैं और छात्रों का संग भी कुछ विकृत होता जा रहा है| इस कारण बहुत पहले से ही बालक या तरुण का मानसिक और शारीरिक विकास यथोचित नही हो पा रहा है| माता-पिता या अभिभावक को बालक के विकास की ओर विशेष सतर्कता बरतने की आवश्यकता होती है ताकि उन से "प्रज्ञापराध" न हो|
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मानसिक स्वास्थ्य हमारे शारिरीक स्वास्थ्य की आधारशिला है| स्वस्थ मन के बिना स्वस्थ शरीर की कल्पना गलत है| वस्तुतः शरीर की प्रमुख संचालिका गति-शक्ति मन ही है| शरीर उसका आवरण मात्र है| भीतर के तत्त्व का सीधा और प्रत्यक्ष प्रभाव आवरण पर होता है| मन की स्थिति का प्रतिबिम्ब शरीर पर निश्चित पड़ता है| जिसका अन्तःकरण स्वस्थ होगा, उसका शरीर निश्चित ही स्वस्थ होगा| मन तो बीज है| बीज के अनुरूप ही वृक्ष और फल होता है|
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हमारा मन सदा स्वस्थ रहे, इसके लिए दैनिक जीवन में संयम-नियम, संतोष और मनोनिग्रह का अभ्यास निरन्तर करना चाहिए| इस अभ्यास का सर्वोत्तम साधन अध्यात्म-भावना पूर्वक परमात्मा की उपासना करना है| इसके लिए आपको कोई धन खर्च करना न पड़ेगा, बस थोड़ा ध्यान, थोड़ा स्मरण और थोड़ा अपनी ओर लोटने का प्रयत्न करना है| नारायण। नारायण|| नारायण|||
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(स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के सत्संग से संकलित और साभार संपादित)

Saturday, 3 June 2017

आनन्द सिन्धु मध्य तव वासा, बिनु जाने तू मरत पियासा .....

आनन्द सिन्धु मध्य तव वासा, बिनु जाने तू मरत पियासा .....
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आज तक के इस जीवन में जितने भी संतों से मेरा सत्संग हुआ है, एक बात तो प्रायः सभी ने कही है कि मनुष्य की देह, बुद्धि, भक्ति और सत्संग लाभ पा कर भी परमात्मा का चिंतन मनन और ध्यान न करना प्रमाद यानि मृत्यु है|
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अब स्वयं के बारे में सोच कर ही विचार होता है कि मैं जीवित हूँ या मृत ?
लगता है मृत ही अधिक हूँ|
गुण गोविन्द गायो नहीं, जनम अकारथ कीन| कहे नानक हरी भज मना, जा विध जल की मीन||

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क्षण क्षण बीत गये, कितने दिन-रात, महीने-वर्ष और जीवन बीत गया| माया के पीछे भागे तो ...."माया मिली न राम" .... वाली कहावत स्वयं पर ही चरितार्थ हो गयी|
परमात्मा सामने है, उसका महासागर उमड़ रहा है, फिर भी उससे भेद है| मेरी इस पीड़ा को मैं ही जानता हूँ|
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"आनन्द सिन्धु मध्य तव वासा, बिनु जाने तू मरत पियासा|
धन्य हैं गोसांई बाबा तुलसीदासजी जो हम सब के लिए इतनी बड़ी बात कह गए कि तुम आनन्द के समुद्र में रह रहे हो, लेकिन बिना जाने प्यासे मर रहे हो|
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हे परमशिव, रक्षा करो| आप मेरे समक्ष हैं फिर भी मैं उल्टी दिशा में आपसे दूर आपकी इस मृग-मरीचिका रूपी माया के पीछे भाग रहा हूँ|
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त्राहीमाम् त्राहीमाम् त्राहीमाम् रक्षा करो हे राम ! अपने ध्यान से मुझे विमुख मत करो | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
०३ जून २०१७

Friday, 2 June 2017

"यथा ब्रज गोपिकानाम्" .....

"यथा ब्रज गोपिकानाम्" .....
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भगवान को वैसे ही प्रेम करो जैसे ब्रज की गोपियों ने किया था|
कभी कभी ईश्वर से विछोह भी अच्छा है क्योंकि उसमें मिलने का आनंद समाया होता है| मिलने में वियोग की पीड़ा भी होती है| पर वह स्थिति सब से अच्छी है जहाँ न कोई मिलना है और न कोई विछुड़ना| क्योंकि जो मिलते और विछुड़ते हैं वे तो भगवान स्वयं ही हैं| उनसे पृथक तो कुछ है ही नहीं|
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जब हम एक अति उत्तुंग पर्वत शिखर से नीचे की गहराई में झाँकते हैं तो वह बड़ी डरावनी गहराई भी हमारे में झाँकती है| ऐसे ही जब हम नीचे से अति उच्च पर्वत को घूरते हैं तो वह पर्वत भी हमें घूरता है| जिसकी आँखों में हम देखते हैं, वे आँखें भी हमें देखती हैं| जिससे भी हम प्रेम या घृणा करते हैं, उससे वैसी ही प्रतिक्रिया कई गुणा होकर हमें ही प्राप्त होती है|

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वैसे ही जब हम प्रभु को प्रेम करते हैं तो वह प्रेम अनंत गुणा होकर हमें ही प्राप्त होता है| वह प्रेम हम स्वयं ही हैं| प्रभु में हम समर्पण करते हैं तो प्रभु भी हमें समर्पण करते हैं| जब हम उनके शिवत्व में विलीन हो जाते हैं तो हम में भी वह शिवत्व विलीन हो जाता है और हम स्वयं साक्षात् शिव बन जाते हैं| जहाँ ना कोई क्रिया-प्रतिक्रिया है, ना कोई मिलना-बिछुड़ना, जहाँ कोई अपेक्षा या माँग नहीं है, जो बैखरी मध्यमा पश्यन्ति और परा से भी परे है, वह असीमता, अनंतता व सम्पूर्णता हम स्वयं ही हैं|
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हमारा पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है|
ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
03 जून 2014

विचित्र दक्षिणा ......

विचित्र दक्षिणा ...... ......... (लेखक : स्व.श्री मिथिलेश द्विवेदी).
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(तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की 'इरामावतारम्' में यह कथा है| भगवान श्री राम ने रामेश्वरम में जब शिवलिंग की स्थापना की तब आचार्यत्व के लिए रावण को निमंत्रित किया था| रावण ने उस निमंत्रण को स्वीकार किया और उस अनुष्ठान का आचार्य बना| रावण त्रिकालज्ञ था, उसे पता था कि उसकी मृत्यु सिर्फ श्रीराम के हाथों लिखी है| वह कुछ भी दक्षिणा माँग सकता था| पर उसने क्या विचित्र दक्षिणा माँगी वह इस लेख में पढ़िए|
इस लेख के शब्द माननीय श्री मिथिलेश द्विवेदी जी के हैं, जिनका मैंने उनकी अनुमति से सिर्फ संकलन किया है)
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>>> रावण केवल शिव भक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था...उसे भविष्य का पता था...वह जानता था कि राम से जीत पाना उसके लिए असंभव था.....जामवंत जी को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया....जामवन्त जी दीर्घाकार थे । आकार में वे कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे । इस बार राम ने बुद्ध-प्रबुद्ध, भयानक और वृहद आकार जामवन्त को भेजा है । पहले हनुमान, फिर अंगद और अब जामवन्त । यह भयानक समाचार विद्युत वेग की भाँति पूरे नगर में फैल गया । इस घबराहट से सबके हृदय की धड़कनें लगभग बैठ सी गई । निश्चित रूप से जामवन्त देखने में हनुमान और अंगद से अधिक ही भयावह थे । सागर सेतु लंका मार्ग प्रायः सुनसान मिला । कहीं-कहीं कोई मिले भी तो वे डर से बिना पूछे ही राजपथ की ओर संकेत कर देते थे। बोलने का किसी में साहस नहीं था । प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे। इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा ।
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यह समाचार द्वारपाल ने लगभग दौड़कर रावण तक पहुँचाया । स्वयं रावण उन्हें राजद्वार तक लेने आए । रावण को अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ । मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ । उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है । रावण ने सविनय कहा – आप हमारे पितामह के भाई हैं । इस नाते आप हमारे पूज्य हैं । आप कृपया आसन ग्रहण करें । यदि आप मेंरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा । जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की । उन्होंने आसन ग्रहण किया । रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया । तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने तुम्हें प्रणाम कहा है । वे सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं । इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचार्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है । मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ ।
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प्रणाम प्रतिक्रिया अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया कि क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जारहा है ? बिल्कुल ठीक । श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है ।
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प्रहस्त आँख तरेरते हुए गुर्राया – अत्यंत धृष्टता, नितांत निर्लज्जता । लंकेश्वर ऐसा प्रस्ताव कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे ।
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मातुल ! तुम्हें किसने मध्यस्थता करने को कहा ? लंकेश ने कठोर स्वर में फटकार दिया । जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है । क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दिया । लेकिन हाँ । यह जाँच तो नितांत आवश्यक है ही कि जब वनवासी राम ने इतना बड़ा आचार्य पद पर पदस्थ होने हेतु आमंत्रित किया है तब वह भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी है भी अथवा नहीं ।
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जामवंत जी ! आप जानते ही हैं कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में आप पधारे हैं । यदि हम आपको यहाँ बंदी बना लें और आपको यहाँ से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे ? जामवंत खुलकर हँसे । मुझे निरुद्ध करने की शक्ति समस्त लंका के दानवों के संयुक्त प्रयास में नहीं है, किन्तु मुझे किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता । ध्यान रहे, मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहां विद्यमान हूँ, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह दृश्यवार्ता स्पष्ट रूप से देख-सुन रहे हैं । जब मैं वहाँ से चलने लगा था तभी धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं । उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया है और मुझसे कहा है कि जामवन्त ! रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा । इस कारण भलाई इसी में है कि आप मुझे अविलम्ब वांछित प्रत्युत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर लक्ष्मण के दृष्टिपथ तक वापस पहुँचने की व्यवस्था करें ।
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उपस्थित दानवगण भयभीत हो गए । प्रहस्थ का शरीर पसीने से लथपथ हो गया । लंकेश तक काँप उठे । पाशुपतास्त्र ! महेश्वर का यह अमोघ अस्त्र तो सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग ही नहीं कर सकते । अब भले ही वह रावण मेघनाथ के त्रोण में भी हो । जब लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी अब उसे उठा नहीं सकते । उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं । रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा – आप पधारें । यजमान उचित अधिकारी है । उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है । राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।
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जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए । अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है । यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है । तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं । विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना । ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी । अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना । स्वामी का आचार्य अर्थात् स्वयं का आचार्य । यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया । स्वस्थ कण्ठ से सौभाग्यवती भव कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया ।
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सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरा । आदेश मिलने पर आना कहकर सीता को उसने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचा । जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे । सम्मुख होते ही वनवासी राम ने आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया । दीर्घायु भव ! लंका विजयी भव ! दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया । सुग्रीव ही नहीं विभीषण को भी उसने उपेक्षा कर दी । जैसे वे वहाँ हों ही नहीं ।
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भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा कि यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें । श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं । अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं । यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था । इन सबके अतिरिक्त तुम सन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है । इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ? कोई उपाय आचार्य ? आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं । स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं । श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया ।
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श्री रामादेश के परिपालन में विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे। अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान । आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया । गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा लिंग विग्रह ? यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं । अभी तक लौटे नहीं हैं । आते ही होंगे । आचार्य ने आदेश दे दिया विलम्ब नहीं किया जा सकता । उत्तम मुहूर्त उपस्थित है । इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालुका-लिंग-विग्रह स्वयं बना ले । जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित की । यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया । श्रीसीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया । आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया ।
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अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की......राम ने पूछा आपकी दक्षिणा? पुनः एक बार सभी को चौंकाया आचार्य के शब्दों ने । घबराओ नहीं यजमान । स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती । आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है, लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य कि जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है ।
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आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे । आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी । ऐसा ही होगा आचार्य । यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी । “रघुकुल रीति सदा चली आई । प्राण जाई पर वचन न जाई ।” यह दृश्य वार्ता देख सुनकर सभी ने उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए । सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया ।
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रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, व राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है?
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बहुत कुछ हो सकता था काश राम को वनवास न होता काश सीता वन न जाती किन्तु ये धरती तो है ही पाप भुगतने वालों के लिए और जो यहाँ आया है उसे अपने पाप भुगतने होंगे और इसलिए रावण जैसा पापी लंका का स्वामी तो हो सकता है देवलोक का नहीं |
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वह तपस्वी रावण जिसे मिला था-
ब्रह्मा से विद्वता और अमरता का वरदान
शिव भक्ति से पाया शक्ति का वरदान....
चारों वेदों का ज्ञाता,
ज्योतिष विद्या का पारंगत,
अपने घर की वास्तु शांति हेतु
आचार्य रूप में जिसे-
भगवन शंकर ने किया आमंत्रित .....
शिव भक्त रावण-
रामेश्वरम में शिवलिंग पूजा हेतु
अपने शत्रु प्रभु राम का-
जिसने स्वीकार किया निमंत्रण ....
आयुर्वेद, रसायन और कई प्रकार की
जानता जो विधियां,
अस्त्र शास्त्र,तंत्र-मन्त्र की सिद्धियाँ ....
शिव तांडव स्तोत्र का महान कवि,
अग्नि-बाण ब्रह्मास्त्र का ही नहि,
बेला या वायलिन का आविष्कर्ता,
जिसे देखते ही दरबार में
राम भक्त हनुमान भी एक बार
मुग्ध हो, बोल उठे थे -
"राक्षस राजश्य सर्व लक्षणयुक्ता"....
काश रामानुज लक्ष्मण ने
सुर्पणखा की नाक न कटी होती,
काश रावण के मन में सुर्पणखा
के प्रति अगाध प्रेम न होता,
गर बदला लेने के लिए सुर्पणखा ने
रावण को न उकसाया होता -
रावण के मन में सीता हरण का
ख्याल कभी न आया होता ....
इस तरह रावण में-
अधर्म बलवान न होता,
तो देव लोक का भी-
स्वामी रावण ही होता .....

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(रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी| बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की 'इरामावतारम्' में यह कथा है|)
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(यह कथा श्री ज्वाला प्रसाद जी ने ईलाहाबाद से छपने वाले प्रेस श्री दुर्गा पुस्तक भण्डार से प्रकाशित रामचरित मानस में क्षेपक कथा कह कर जोड़ दी है|)

०३ जून २०१५
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श्री मिथिलेश द्विवेदी जी द्वारा टिप्पणियाँ :---
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(१) रामेश्वरम् के साथ एक पौराणिक कथा जुड़ी हुई है। इस कथा के अनुसार भगवान राम ने रावण का वध किया था। रावण ब्राह्मण था, इसलिए ब्राह्मण-हत्या के पाप से मुक्ति के लिए भगवान राम ने शिव की आराधना करने का संकल्प किया। इसके लिए उन्होंने हनुमानजी को कैलास पर्वत पर जाकर शिवजी से मिलने और उनकी कोई उपयुक्त मूर्ति लाने का आदेश दिया। हनुमानजी कैलास पर्वत गए, किंतु उन्हें अभीष्ट मूर्ति नहीं मिली। अभीष्ट मूर्ति प्राप्त करने के लिए हनुमानजी वहीं तपस्या करने लगे। इधर हनुमानजी के कैलास पर्वत से अपेक्षित समय में न आने पर श्रीराम और ऋषि-मुनियों ने शुभ मुहूर्त में सीताजी द्वारा बालू से निर्मित शिवलिंग को स्वीकार कर लिया। उस ज्योतिर्लिंग को सीताजी और रामजी ने जब चंद्रमा नक्षत्र में, सूर्य वृष राशि में था, ज्येष्ठ शुक्ला दशमी, बुधवार को स्थापित कर दिया। यह स्थान रामेश्वरम् के नाम से जाना जाता है।

कुछ समय बाद हनुमानजी शिवलिंग लेकर कैलास पर्वत से लौटे, तो पहले से स्थापित बालुका निर्मित शिवलिंग को देखकर क्रुद्ध हो गए। उनका क्रोध शांत करने के लिए श्रीरामजी ने उनके द्वारा लाए गए शिवलिंग को भी बालूनिर्मित शिवलिंग के बगल में स्थापित कर दिया और कहा कि रामेश्वरम् की पूजा करने के पहले लोग हनुमानजी द्वारा लाए गए शिवलिंग की पूजा करेंगे। अभी भी रामेश्वरम् की पूजा के पहले लोग हनुमानजी द्वारा लाए गए शिवलिंग की पूजा करते हैं। हनुमानजी द्वारा लाए शिवलिंग को ‘काशी विश्वनाथ’ कहा जाता है
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(२) वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की स्थापना भी रावण ने की थी|
वैद्यनाथ लिंग की स्थापना के सम्बन्ध में लिखा है कि एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर स्थिर होकर भगवान शिव की घोर तपस्या की। उस राक्षस ने अपना एक-एक सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ा दिये। इस प्रकिया में उसने अपने नौ सिर चढ़ा दिया तथा दसवें सिर को काटने के लिए जब वह उद्यत (तैयार) हुआ, तब तक भगवान शंकर प्रसन्न हो उठे। प्रकट होकर भगवान शिव ने रावण के दसों सिरों को पहले की ही भाँति कर दिया। उन्होंने रावण से वर माँगने के लिए कहा। रावण ने भगवान शिव से कहा कि मुझे इस शिवलिंग को ले जाकर लंका में स्थापित करने की अनुमति प्रदान करें। शंकरजी ने रावण को इस प्रतिबन्ध के साथ अनुमति प्रदान कर दी कि यदि इस लिंग को ले जाते समय रास्ते में धरती पर रखोगे, तो यह वहीं स्थापित (अचल) हो जाएगा। जब रावण शिवलिंग को लेकर चला, तो मार्ग में ‘चिताभूमि’ में ही उसे लघुशंका (पेशाब) करने की प्रवृत्ति हुई। उसने उस लिंग को एक अहीर को पकड़ा दिया और लघुशंका से निवृत्त होने चला गया। इधर शिवलिंग भारी होने के कारण उस अहीर ने उसे भूमि पर रख दिया। वह लिंग वहीं अचल हो गया। वापस आकर रावण ने काफ़ी ज़ोर लगाकर उस शिवलिंग को उखाड़ना चाहा, किन्तु वह असफल रहा। अन्त में वह निराश हो गया और उस शिवलिंग पर अपने अँगूठे को गड़ाकर (अँगूठे से दबाकर) लंका के लिए ख़ाली हाथ ही चल दिया। इधर ब्रह्मा, विष्णु इन्द्र आदि देवताओं ने वहाँ पहुँच कर उस शिवलिंग की विधिवत पूजा की। उन्होंने शिव जी का दर्शन किया और लिंग की प्रतिष्ठा करके स्तुति की। उसके बाद वे स्वर्गलोक को चले गये।
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(३) यह लेख १७अक्तुबत, १९८२ के नवभारत टाइम्स समाचार-पत्र में मेरे नाम से सर्व-प्रथम प्रकाशित हुआ है|
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