क्या हम प्रभुकृपा के ऋण से कभी उऋण हो सकते हैं ????? ..........
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इसका उत्तर सदा "ना" में मिलेगा| पर मैं इसका उत्तर "हाँ" में दे रहा हूँ| हाँ, हम निश्चित रूप से प्रभु की कृपा से उऋण हो सकते हैं|
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इसका उत्तर सदा "ना" में मिलेगा| पर मैं इसका उत्तर "हाँ" में दे रहा हूँ| हाँ, हम निश्चित रूप से प्रभु की कृपा से उऋण हो सकते हैं|
प्रभु की कृपा का निरंतर पात्र बने रहने का अनवरत प्रयास करते हुए अन्ततः प्रभु को पूर्ण समर्पित होने पर कोई ऋण नहीं रहता| इसके लिए भक्तिपथ पर चलना अनिवार्य है।
प्रभु की सबसे बड़ी कृपा है उनका प्रेम|
एकमात्र भेंट जो हम भगवान को दे सकते हैं वह है हमारा प्रेम| अन्य हम दे ही क्या सकते हैं? सब कुछ तो उन्हीं का है|
हमारे प्रेम को छोड़कर भगवान के पास सब कुछ है| उन्हें सिर्फ हमारा प्रेम चाहिए, अन्य कुछ भी नहीं|
एकमात्र भेंट जो हम भगवान को दे सकते हैं वह है हमारा प्रेम| अन्य हम दे ही क्या सकते हैं? सब कुछ तो उन्हीं का है|
हमारे प्रेम को छोड़कर भगवान के पास सब कुछ है| उन्हें सिर्फ हमारा प्रेम चाहिए, अन्य कुछ भी नहीं|
जल की एक बूँद की सर्वोच्च उपलब्धी है --- महासागर में विलीन हो जाना|
जल की बूँद महासागर में विलीन होकर स्वयं महासागर बन जाती है| इसके लिए क्या वह महासागर की ऋणी है? नहीं, कभी नहीं| उसका उद्गम महासागर से हुआ और वह अन्ततः उसी में विलीन हो गयी| यही उसका नैसर्गिक धर्म था|
जल की बूँद महासागर में विलीन होकर स्वयं महासागर बन जाती है| इसके लिए क्या वह महासागर की ऋणी है? नहीं, कभी नहीं| उसका उद्गम महासागर से हुआ और वह अन्ततः उसी में विलीन हो गयी| यही उसका नैसर्गिक धर्म था|
वैसे ही जीव की सर्वोच्च उपलब्धि है -- परम शिव से मिलन|
इसे आप भक्त का भगवान से और आत्मा का पररमात्मा से मिलन भी कह सकते हैं|
इसकी प्रथम सीढ़ी है ---- अपना मन प्रभु को समर्पित कर दें|
मन में उसके सिवा किसी अन्य का चिंतन क्या चोरी नहीं होगा?
जब मन समर्पित हो जाएगा तो बुद्धि भी समर्पित हो जायेगी| बुद्धि समर्पित होगी तो चित्त भी समर्पित हो जाएगा| चित्त समर्पित हुआ तो अहंकार भी समर्पित हो जाएगा|
फिर अपने पास अपना कहने को बचा ही क्या है? सब कुछ तो उन्हीं का हो गया| यहाँ आकर सारे ऋण, सारे कर्मफल तिरोहित हो जाते हैं|
यही हमारा सनातन स्वाभाविक धर्म है| यही सार है, बाकी सब इसी का विस्तार है|
इसे आप भक्त का भगवान से और आत्मा का पररमात्मा से मिलन भी कह सकते हैं|
इसकी प्रथम सीढ़ी है ---- अपना मन प्रभु को समर्पित कर दें|
मन में उसके सिवा किसी अन्य का चिंतन क्या चोरी नहीं होगा?
जब मन समर्पित हो जाएगा तो बुद्धि भी समर्पित हो जायेगी| बुद्धि समर्पित होगी तो चित्त भी समर्पित हो जाएगा| चित्त समर्पित हुआ तो अहंकार भी समर्पित हो जाएगा|
फिर अपने पास अपना कहने को बचा ही क्या है? सब कुछ तो उन्हीं का हो गया| यहाँ आकर सारे ऋण, सारे कर्मफल तिरोहित हो जाते हैं|
यही हमारा सनातन स्वाभाविक धर्म है| यही सार है, बाकी सब इसी का विस्तार है|
हे प्रभु, इतनी कृपा करो करो कि मैं "मैं" ना रहूँ| सब कुछ "तुम" हो जाओ| बस, तुम्ही तुम रहो|
हमारी विषय-वासनाओं का नाश करो, अज्ञान की सब ग्रंथियों का नाश करो, अपने असीम कृपासिंधु से, अपनी करुणा से, अपने परम प्रेम से कभी पृथक ना करो| ॐ ॐ ॐ ||
ॐ श्रीगुरवे नमः |.ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव शिव शिव शिव शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
23 जनवरी2016.
ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव शिव शिव शिव शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
23 जनवरी2016.
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