Saturday, 8 February 2025

सच्चिदानंद परमात्मा के साथ हम एक हैं ---

 सच्चिदानंद परमात्मा के साथ हम एक हैं। वे ही हमारे स्वरूप हैं, जिनकी चेतना में दिन-रात निरंतर बने रहना ही हमारी साधना, उपासना, ध्यान और आनंद है ---

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परम सत्य तो यह है कि परमात्मा स्वयं ही यह सृष्टि बन गए हैं। उन्होंने तीन गुणों (सत् रज तम) की रचना की जिनसे यह सृष्टि उनकी प्रकृति चला रही है। वे स्वयं इन सब से परे है, और हमें भावातीत और त्रिगुणातीत होने को कहते हैं। एक २४ वोल्ट के बल्ब को यदि करोड़ों वोल्ट की बिजली के साथ जोड़ दिया जाये तो वह तुरंत फट जाएगा। वैसे ही हम उनके तेज को सहन नहीं कर सकते। उनको जानने की पात्रता हमें स्वयं में विकसित करनी पड़ेगी, जिसके लिए अनेक जन्मों तक साधना भी करनी पड़ सकती है।
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जैसे पृथ्वी -- चंद्रमा को साथ लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है, वैसे ही हम सारी सृष्टि, यानि सारे ब्रह्मांड के साथ एक होकर परमात्मा का ध्यान करते हैं। सबसे पहले हमें ध्यान में इस नश्वर भौतिक शरीर की चेतना से ऊपर उठना पड़ेगा। सारा ब्रह्मांड ही हमारा शरीर है, यह नश्वर देह नहीं। परमात्मा स्वयं ही हमें अपना निमित्त बनाकर स्वयं ही सारी साधना करते है। कर्ताभाव से मुक्त हुये बिना हम साधना में विशेष प्रगति नहीं कर सकते। ध्यान में हमें यह भाव करना होगा कि सारा ब्रह्मांड ही हमारा शरीर है, और हम सारे ब्रह्मांड के साथ एक हैं। जब हम साँस लेते हैं, तब सारा ब्रह्मांड ही हमारे साथ साँस लेता है।
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अनेक साधनाएं हैं, अनेक सिद्धान्त हैं, अनेक मार्ग हैं, जिनका मुझे ज्ञान नहीं है। मुझे उतना ही अल्प और सीमित ज्ञान है जितना गुरु रूप में स्वयं परमात्मा ने बोध कराया है। श्रुतियों (वेद) को मैं अंतिम प्रमाण मानता हूँ, लेकिन मुझ में उनको समझने की योग्यता नहीं है। वेदांगों को समझे बिना वेदों को समझना असंभव है। वेदों को समझने के लिए वेदांगों का ज्ञान होना आवश्यक है। परमात्मा की परम कृपा से न्यूनतम जितना आवश्यक है उतना ही समझने की पात्रता मुझे परमात्मा ने प्रदान की है। परमात्मा को जानने की न्यूनतम पात्रता तो उन्होने मुझे प्रदान की है, और इसके लिए साधना का मार्ग भी बताया है। लेकिन करना या न करना स्वयं मुझ के प्रयासों पर निर्भर है।
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समत्व ही ज्ञान है। जिसने समत्व को प्राप्त किया, वही ज्ञानी है। समत्व में अधिष्ठित होना ही समाधि है। उस स्थिति को प्राप्त करने के लिए हमें निःस्पृह, वीतराग और स्थितप्रज्ञ होना पड़ेगा।
भक्ति (परमप्रेम) ईंधन का काम करती है। जैसे बिना ऊर्जा रूपी ईंधन के गाड़ी नहीं चलती, वैसे ही बिना भक्ति रूपी ईंधन के हम आध्यात्म में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते।
कामनाओं से मुक्त होना ही निःस्पृहता है। किसी भी तरह की आकांक्षा का न होना, और उसके स्थान पर अभीप्सा का होना आवश्यक है।
राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति को वीतरागता कहते है।
इंद्रियों के विषयों से विरक्त हुए बिना प्रज्ञा स्थिर नहीं हो सकती। सच्चिदानंद परमात्मा की अनुभूतियों के बिना इंद्रियों के विषयों से वैराग्य भी संभव नहीं है। इसीलिए भगवान हमें समय समय पर अपनी अनुभूतियाँ कराते रहते हैं। परमात्मा की अनुभूतियाँ होने के पश्चात वैराग्य आवश्यक है। अन्यथा भगवान की इच्छा का बहाना बनाते हुए भगवान पर ही दोषारोपण करते करते जीवन निकल जायेगा। गीता में भगवान कहते हैं --
"प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२:५५॥"
श्रीभगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥
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एक साधक होने के लिए सर्वप्रथम हमें एक भक्त, निःस्पृह, वीतराग और स्थितप्रज्ञ होना आवश्यक है। इस विषय पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बहुत अच्छी तरह से मार्गदर्शन दिया है। वह सब तभी समझ में आएगा, जब हमें भगवान से प्रेम होगा। प्रेम के साथ साथ श्रद्धा-विश्वास और सत्यनिष्ठा भी आवश्यक है। यही हमारी रक्षा करेगा। अन्यथा भटकाव और महाविनाश निश्चित है।
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जहां पर और जिस भी स्थिति में हम हैं, वहीं से हम साधना का आरंभ करें। इसी समय से हम भक्ति, निःस्पृहता, वीतरागता, और स्थितप्रज्ञता का अभ्यास आरंभ करें, तभी हम कैवल्य पद को प्राप्त कर सकेंगे। कैवल्य पद को प्राप्त करना ही परमात्मा की प्राप्ति का द्वार है। कैवल्य को ही हम दूसरे शब्दों में ब्राह्मीस्थिति, निर्विकल्प-समाधि, और कूटस्थ-चैतन्य आदि शब्दों से व्यक्त करते हैं।
एक बार इस मार्ग पर हम अग्रसर होंगे तभी आगे का मार्गदर्शन प्राप्त होगा।
हम अभी इसी समय से स्थितप्रज्ञ होने का उपाय करें, तभी समत्व की स्थिति प्राप्त होगी, और तभी ईश्वर की चेतना में हम स्वयं को प्रतिष्ठित कर पायेंगे।
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योगमार्ग में हम ध्यान-साधना का आरंभ हम कुछ हठयोग, अजपाजप और नादानुसंधान से करते हैं। तत्पश्चात कुछ गोपनीय साधनाएँ हैं। इस विषय को इससे अधिक और समझाना वर्तमान स्थिति में मेरे लिए संभव नहीं है, क्योंकि मेरा स्वास्थ्य इसकी अनुमति नहीं देता। स्वास्थ्य संबंधी कारणों से अति शीघ्र कुछ दिनों में कुछ लिखना भी मुझे बंद करना होगा। आप सब में मेरे परमप्रिय परमात्मा को नमन !! भगवान सदा हमारी रक्षा करें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ फरवरी २०२५

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