Tuesday 12 June 2018

गीता के अनुसार ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म .....

गीता के अनुसार ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म .....
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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....

"शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||१८:४२||
अर्थात् शम? दम? तप? शौच? क्षान्ति? आर्जव? ज्ञान? विज्ञान और आस्तिक्य ये ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं ||
और भी सरल शब्दों में ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं ..... मनोनियन्त्रण, इन्द्रियनियन्त्रण, शरिरादि के तप, बाहर-भीतर की सफाई, क्षमा, सीधापन यानि सरलता, शास्त्र का ज्ञान और शास्त्र पर श्रद्धा|
इनकी व्याख्या अनेक स्वनामधन्य आचार्यों ने की है| इनके अतिरिक्त ब्राह्मण के षटकर्म भी हैं, जो उसकी आजीविका के लिए हैं| पर यहाँ हम उन स्वभाविक कर्मों पर ही विचार कर रहे हैं जो भगवान श्रीकृष्ण ने कहे हैं|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जून २०१८

1 comment:

  1. ब्राह्मण के शास्त्रोक्त कर्म ... "वेदाभ्यासे शमे चैव आत्मज्ञाने च यत्नवान्" हैं :---
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    आजकल इतने भयंकर मायावी आकर्षणों और गलत औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के पश्चात भी शास्त्रोक्त कर्मों को नहीं भूलना चाहिए| मनु महाराज ने ब्राह्मण के तीन कर्म बताए हैं ....."वेदाभ्यासे शमे चैव आत्मज्ञाने च यत्नवान्"| अर्थात अन्य सारे कर्मों को छोड़कर भी वेदाभ्यास, शम और आत्मज्ञान के लिए निरंतर यत्न करता रहे|
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    पूरे भारत के अधिकाँश ब्राह्मणों की शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता की माध्यन्दिन शाखा है| इस का विधि भाग शतपथब्राह्मण है, जिसके रचयिता वाजसनेय याज्ञवल्क्य हैं| शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ सम्बन्धी सभी अनुष्ठानों का विस्तृत वर्णन है| जो समझ सकते हैं उन ब्राह्मणों को अपने अपने वेद का अध्ययन अवश्य करना चाहिए|
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    यहाँ यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि मेरी अति अल्प और सीमित बुद्धि वेदों के कर्मकांड, उपासनाकांड और ज्ञानकांड आदि को समझने में एकदम असमर्थ है| इस जन्म में तो यह मेरे प्रारब्ध में भी नहीं है| जब भी प्रभु की कृपा होगी तब वे इसका ज्ञान कभी न कभी अवश्य करायेंगे| अभी तो सूक्ष्म प्राणायाम और ध्यान ही मेरा वेदपाठ है|
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    इन्द्रियों के शमन को 'शम' कहते हैं| चित्त वृत्तियों का निरोध कर उसे आत्म-तत्व की ओर निरंतर लगाए रखना भी 'शम' है| धर्म पालन के मार्ग में आने वाले हर कष्ट को सहन करना 'तप' है| यह भी ब्राह्मण का एक कर्त्तव्य है| जब परमात्मा से प्रेम होता है और उसे पाने की एक अभीप्सा (कभी न बुझने वाली तीब्र प्यास) जागृत होती है तब गुरुलाभ होता है| धीरे धीरे मुमुक्षुत्व और आत्मज्ञान की तड़प पैदा होती है| उस आमज्ञान को प्राप्त करने की निरंतर चेष्टा करना ही ब्राह्मण का परम धर्म है|
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    हे परमशिव, आपकी कृपा ही मेरा एकमात्र आश्रय है| आपकी कृपा मुझ पर सदा बनी रहे और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

    कृपा शंकर
    १२ जून २०१७

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