Wednesday 24 August 2016

वेदों की ओर कैसे लौटें? .....

वेदों की ओर कैसे लौटें? .....
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कुछ मित्रगण मुझे सलाह देते हैं की बापस वेदों की ओर लौटो, सिर्फ वेद पढ़ो अन्य कुछ भी नहीं, सम्मान भी उन्हीं ब्राह्मणों का करो जो वेदाध्ययन करते हैं --- आदि आदि|

मुझे उनके इन कथनों पर कोई आपत्ति नहीं है| उनका कथन ठीक ही होगा|
यह ऐसे ही है जैसे एक चौथी कक्षा के एक बालक को कहा जाए कि चौथी कक्षा में क्या रखा है, पढ़ना ही है तो डी.लिट्.की पढाई करो, सम्मान भी उसी का करो जो डी.लिट्.कर रहा है|


एक बच्चा जो पहाड़े ही सीख रहा है उसे आप सीधे आभियांत्रिक गणित सीखने को कहो तो वहा क्या सीख पायेगा? या तो वह स्वयम पागल हो जाएगा या सिखाने वाला पागल हो जाएगा|

वेदों का ज्ञान मेरे जैसे एक सामान्य बुद्धि के व्यक्ति के लिए समझना असंभव है| वेदों के ज्ञान को समझाने के लिए ही अन्य अनेक ग्रंथों की रचना हुई है| मैं मानता हूँ की वेद अपौरुषेय हैं जिनकी रचना किसी ने नहीं की बल्कि ऋषियों को ही समय समय पर उनके दर्शन हुए हैं| ईश्वर की एक विशेष कृपा के बिना उनको समझना असम्भव है|

अतः मेरे उन मित्रों को चाहिए कि दुराग्रह न करें और जो वे दूसरों से अपेक्षा करते हैं, पहले उसे स्वयं करके दिखाएँ| धन्यवाद|
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उपरोक्त लेख पर स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी की टिप्पणी ........
श्रुति :
हर श्रुति के दो खण्ड होते हैं - मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग । श्रुति को समझने के लिए जिनकी जरूरत पड़ती है उन्हें भी विद्या कह दिया जाता है । श्रुतियों का अर्थ करने के लिये व्याकरण की बड़ी जरूरत होती है । शब्द का निर्माण कैसे हुआ ? इसका तात्पर्य क
्या है ? प्रत्येक मंत्र में कितने अक्षर , कितनी मात्रायें हैं ? यह जानने के लिये छन्दशास्त्र की जरूरत पड़ेगी , उसे भी जानना पड़ेगा । इसी प्रकार किस - किस मन्त्र का किस प्रकार विनोयोग है , उसे जानने के लिये कल्पसूत्रों की जरूरत है । वेद में कर्तव्य कर्मों को करने के लिये काल बताया है । काल का निर्णय करने के लिये ज्योतिषशास्त्र की जरूरत पड़ेगी। यह भी पता लगाना पड़ता है कि सन्दर्भानुसार शब्द का अर्थ कैसे किया जाये । कई शब्दों के अर्थ संदर्भ के बिना केवल व्याकरण के बल से निर्णीत नहीँ होते । संदर्भों को जाने तब श्रुतियों का अर्थ ठीक लगेगा । ये सब मिलकर छ हो गये, इन्हें वेदाङ्ग कहते हैं ।
इतने ज्ञान से वेद के अक्षरार्थ का पता लग गया लेकिन वेदो का तात्पर्य समझने के लिये ये पर्याप्त नहीं हैं। वेद का तात्पर्य समझने के लिये पुराण , न्याय , धर्मशास्त्र और मीमांसा की जरूरत पड़ती है । पुराण से यहाँ इतिहास - पुराण दोनों का संग्रह है । इतिहास अर्थात् " ईश्वरी प्रसाद का इतिहास नहीं समझेंगे । बाल्मिकि रामायण और व्यास जी का महाभारत , इन दो को ही हम इतिहास समझते हैं । यहाँ लिखा कि " विभेत्यल्पश्रुताद् वेदः मामयं प्रहरिष्यति " जिस व्यक्ति ने वेदाङ्ग , पुराण , न्याय , धर्म- शास्त्र और मीमांसा का अध्ययन गुरु मुख से नहीं किया वह केवल अक्षरार्थ के बल से जब श्रुतियों का अर्थ करता है तो जो वेद संसार के मूल कारण अज्ञान को भी नष्ट करने में समर्थ है , वह भी काँप जाता है । " अल्पश्रुतात् " अर्थात् इन ज्ञानों को प्राप्त किये बिना जो श्रुतियों का अर्थ लगाने जाता है उससे " वेद " अर्थात् श्रुति को डर लगता है कि अब यह मेरा वध करने आ गया । आजकल अधिकतर लोग कहते हैं कि " वेद ही पढ़ना है तो सीधे पढ़ लें। " ऐसे लोगों से वेद ही बेचारा काँपता रहता है कि न जाने कहाँ का कहाँ अथः कर जायेंगे । वे का तात्पर्य बताने में ये चारों शास्त्र भी जरूरी है । इतिहास , पुराण के द्वारा वेद का उपबृंहण करना पड़ता है । पुराण के अन्दर सर्ग , प्रतिसर्ग , मन्वन्तर आदि कथानकों के द्वारा पता लगता है कि वेद के अमुक मन्त्र का क्या तात्पर्य है जिसको उन ऋषियों ने बताया । मंगल हो आपका । श्री Kripa Shankar B जी !

 

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