समृद्धि और विकास क्या हैं ? हम समृद्ध और विकसित कैसे बनें ?
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भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति ही समृद्धि है|
निजात्मा का विकास ही वास्तविक विकास है | समृद्धि आती है अपनी मानसिक,
बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमताओं को विकसित करने से, अतः इन क्षमताओं को
विकसित कर के ही हम समृद्ध बन सकते हैं | निजात्मा का विकास ही वास्तविक
विकास है जो परमात्मा के प्रति परम प्रेम, समर्पण, और परमात्मा की कृपा से
ही हो सकता है |
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हमें क्या चाहिए और हम क्या चाहते हैं, इसमें बहुत
अधिक अंतर है | हमें जिस भी वस्तु की या परिस्थिति की आवश्यकता हो वह हमें
तुरंत प्राप्त हो जाए यही समृद्धि है | अपने अहंकार की तृप्ति के लिए
वस्तुओं को और धन को एकत्र करना कोई समृद्धि नहीं है | ईमानदारी से रुपये
कमाना अपराध नहीं है, अपराध तो बेईमानी से अर्जित करना है | रूपयों का
सदुपयोग होना चाहिए | दुरुपयोग से हमें भविष्य में दरिद्रता का दुःख भोगना
पड़ता है | रुपयों की आवश्यकता तो सब को पडती है चाहे वह साधू, संत, वैरागी
हो या गृहस्थ | भूख सब को लगती है, ठण्ड और गर्मी भी सब को लगती है, और
बीमार भी सभी पड़ते हैं | भोजन, वस्त्र, निवास और रुग्ण होने पर उपचार के
लिए धन आवश्यक है | जितना आवश्यक है उतना धन तो सबको कमाना ही चाहिए पर
उसके पश्चात अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में लगाना चाहिए | आज के
युग में समाज अभावग्रस्त है | अतः किसी को समाज पर भार नहीं बनना चाहिए |
जिन्होनें सब कुछ परमात्मा पर छोड़ दिया है उनकी बात दूसरी है |
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एक आध्यात्मिक पूँजी भी है| उस आध्यात्मिक पूँजी से सम्पन्न होने पर
परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि भौतिक पूँजी की भी कमी नहीं रहती |
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प्रकृति उपलब्ध जीवों की आवश्यकतानुसार ही उत्पन्न करती है | हमें जितने
की आवश्यकता है , उससे अधिक पर यदि हम अपना अधिकार समझते हैं तो यह एक
हिंसा ही है | आवश्यकता से अधिक का संग्रह "परिग्रह" कहलाता है | पाँच यमों
(अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) में अपरिग्रह भी है, जिनके
बिना हम कोई आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकते| सच्चे साधू संत सबसे बड़े
अपरिग्रही होते हैं |
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सभी को शुभ कामनाएँ | ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
November 22, 2017