प्रिय निजात्मगण, आप सब में साकार परमात्मा को मैं नमन करता हूँ|
आप सब से मेरे दो प्रश्न हैं .....
(१) क्या कोई गृहस्थ व्यक्ति जो अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहता है, सत्य यानि ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है ?
(२) क्या कोई गृहस्थ व्यक्ति अपने सांसारिक परिवार को उसी प्रकार साथ लेकर परमात्मा के मार्ग पर चल सकता है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है ?
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ये अति गहन प्रश्न हैं| इस विषय पर जो मैं समझ पाया हूँ उसे व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ|
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> विवाह हानिकारक नहीं होता है| पर उसमें नाम रूप में आसक्ति आ जाए कि मैं यह शरीर हूँ, मेरा साथी भी शरीर है, तब दुर्बलता आ जाती है और इस से अपकार ही होता है| वैवाहिक संबंधों में शारीरिक सुख की अनुभूति से ऊपर उठना होगा| सुख और आनंद किसी के शरीर में नहीं हैं| भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति कभी ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता|
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> यह अपने अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि आपका वैवाहिक जीवन कैसा हो| इसमें सुकरात के, संत तुकाराम व संत नामदेव आदि के उदाहरण हैं|
राग-द्वेष से मुक्त गृहस्थ का घर भी तपोवन होता है|
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> क्या आप ईश्वर की ओर अपने स्वयं की बजाय अनेक आत्माओं को भी अपने साथ लेकर चल सकते हैं?
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> ये सारे के सारे आत्मन् आपके ही हैं| परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने से पूर्व आप अपनी चेतना में अपनी पत्नी, बच्चों और आत्मजों के साथ एकता स्थापित करें| यदि आप उनके साथ अभेदता स्थापित नहीं कर सकते तो सर्वस्व (परमात्मा) के साथ भी अपनी अभेदता स्थापित नहीं कर सकते|
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> क्रिया और प्रतिक्रया समान और विपरीत होती है| यदि मैं आपको प्यार करता हूँ तो आप भी मुझसे प्यार करेंगे| जिनके साथ आप एकात्म होंगे तो वे भी आपके साथ एकात्म होंगे ही| आप उनमें परमात्मा के दर्शन करेंगे तो वे भी आप में परमात्मा के दर्शन करने को बाध्य हैं|
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> पत्नी को पत्नी के रूप में त्याग दीजिये, आत्मजों को आत्मजों के रूप में त्याग दीजिये, और मित्रों को मित्र के रूप में देखना त्याग दीजिये| उनमें आप परमात्मा का साक्षात्कार कीजिये|
स्वार्थमय और व्यक्तिगत संबंधों को त्याग दीजिये और सभी में ईश्वर को देखिये| आप की साधना उनकी भी साधना है| आप का ध्यान उन का भी ध्यान है| आप उन्हें ईश्वर के रूप में स्वीकार कीजिये|
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> और भी सरल शब्दों में सार की बात यह है की पत्नी को अपने पति में परमेश्वर के दर्शन करने चाहियें, और पति को अपनी पत्नी में अन्नपूर्णा जगन्माता के|
उन्हें एक दुसरे को वैसा ही प्यार करना चाहिए जैसा वे परमात्मा को करते हैं, और एक दुसरे का प्यार भी परमात्मा के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए|
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> वैसा ही अन्य आत्मजों व मित्रों के साथ भी होना चाहिए| इस तरह आप अपने जीवित प्रियजनों का ही नहीं बल्कि दिवंगत प्रियात्माओं का भी उद्धार कर सकते हो| अपने प्रेम को सर्वव्यापी बनाइए, उसे सीमित मत कीजिये|
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> आप में उपरोक्त भाव होगा तो आप के यहाँ महापुरुषों का जन्म होगा|
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> यही एकमात्र मार्ग है जिस से आप अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते है, अपने सहयोगी को भी उसी प्रकार लेकर चल सकते है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है|
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आप सब विभिन्न देहों में मेरी ही निजात्मा हैं, मैं आप सब को प्रेम करता हूँ और सब में मेरे प्रभु का दर्शन करता हूँ| आप सब को प्रणाम| ॐ तत्सत् | धन्यवाद|
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श्री गुरवे नम:| ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय |
ॐ ॐ ॐ ||
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