Sunday, 31 October 2021

अक्षरब्रह्म योग व भूमा ---

जिन्हें इसी जीवनकाल में मुक्ति या मोक्ष चाहिए, उनके लिए श्रीमद्भगवद्गीता का आठवाँ अध्याय "अक्षरब्रह्म योग" है। इसका सिद्धान्त पक्ष तो कोई भी विद्वान आचार्य सिखा देखा, लेकिन व्यावहारिक पक्ष सीखने के लिए विरक्त तपस्वी महात्माओं का सत्संग करना होगा, और स्वयं को भी तपस्वी महात्मा बनना होगा।

एक पथ-प्रदर्शक गुरु का सान्निध्य चाहिए जो हमें उठा कर अमृत-कुंड में फेंक सके। यदि सत्यनिष्ठा है तो भगवान उसकी भी व्यवस्था कर देते हैं।।

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" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति "
भूमा तत्व में यानि परमात्मा की व्यापकता और विराटता में जो सुख है, वह अल्पता में नहीं है। जो भूमा है, व्यापक है वह सुख है। कम में सुख नहीं है।
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"भूमा" एक वैदिक विद्या है जिसके प्रथम आचार्य भगवान सनतकुमार हैं। वे "ब्रह्मविद्या" के भी प्रथम आचार्य हैं। इनको सीखने के लिए सिद्ध सन्यासी संतों का सत्संग करें। "श्रीविद्या" पौराणिक है, इसके आचार्य भी प्रायः सन्यासी ही होते हैं। भारत में विद्वान सन्यासी संतों की कोई कमी नहीं है। भगवान की कृपा से इस जीवन में अनेक संतों का सत्संग और आशीर्वाद प्राप्त हुआ है। उनसे बहुत कुछ सीखा है। उन सब का आभारी हूँ।

हम भगवान के साथ एक हैं, उन से पृथक नहीं ---

 हम भगवान के साथ एक हैं, उन से पृथक नहीं ---

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"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि यह सब वासुदेव है ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है।
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सब नामरूपों से परे भगवान वासुदेव ही सर्वस्व हैं। जो अपने पूर्ण ह्रदय से भगवान से प्रेम करते हैं, जो निरंतर भगवान का स्मरण करते हैं, ऐसे सभी महात्माओं को मैं नमन करता हूँ। सारे उपदेश और सारी बड़ी बड़ी दार्शनिक बातें बेकार हैं यदि परमात्मा से प्रेम न हो तो। परमात्मा से प्रेम ही सारे सद्गुणों को अपनी ओर खींचता है। राष्ट्रभक्ति भी उसी में हो सकती है जिस के हृदय में परमात्मा से प्रेम हो। जो परमात्मा को प्रेम नहीं कर सकता, वह किसी को भी प्रेम नहीं कर सकता। ऐसा व्यक्ति इस धरा पर भार ही है।
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भगवान की भक्ति, भगवान से कुछ लेने के लिए नहीं, उन्हें अपना पृथकत्व का मायावी बोध बापस लौटाने के लिए होती है। हम उन सच्चिदानंद भगवान के अंश हैं, वे स्वयं ही हमारे हैं, और हम उनके हैं, अतः जो कुछ भी भगवान का है, वह हम स्वयं हैं। हम उनके साथ एक हैं, उन से पृथक नहीं।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ नवंबर २०२१

जो कुछ भी भगवान का है, वह हम स्वयं हैं ---

भगवान की भक्ति, भगवान से कुछ लेने के लिए नहीं, उन्हें अपना पृथकत्व का मायावी बोध बापस लौटाने के लिए होती है| हम उन सच्चिदानंद भगवान के अंश हैं, वे स्वयं ही हमारे हैं और हम उनके हैं, अतः जो कुछ भी भगवान का ही, वह हम स्वयं हैं| हम उनके साथ एक हैं, उन से पृथक नहीं|
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प्रश्न : भगवान से हमें पृथक किसने किया है?
उत्तर : हमारे राग-द्वेष और अहंकार ने| और भी स्पष्ट शब्दों में हमारा सत्यनिष्ठा का अभाव, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, और लोभ हमें भगवान से दूर करते हैं| हमारा थोड़ा सा भी लोभ, बड़े-बड़े कालनेमि/ठगों को हमारी ओर आकर्षित करता है| जो भी व्यक्ति हमें थोड़ा सा भी प्रलोभन देता है, चाहे वह आर्थिक या धार्मिक प्रलोभन हो, वह शैतान है, उस से दूर रहें|
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जो वास्तव में भगवान का भक्त है, वह भगवान के सिवाय और कुछ भी नहीं चाहता| जो हमारे में भगवान के प्रति प्रेम जागृत करे, जो हमें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे, वही संत-महात्मा है, उसी का संग करें| अन्य सब विष यानि जहर मिले हुए शहद की तरह हैं| किसी भी तरह के शब्द जाल से बचें| हमारा प्रेम यानि भक्ति सच्ची होगी तो भगवान हमारी रक्षा करेंगे| सभी का कल्याण हो|
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हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ नवंबर २०२०

Saturday, 30 October 2021

जहाँ परमात्मा का परम प्रकाश है, वहाँ अंधकार नहीं रह सकता ---

जहाँ परमात्मा का परम प्रकाश है, वहाँ अंधकार नहीं रह सकता| परमात्मा के प्रकाश का भ्रूमध्य (कूटस्थ) में ध्यान, अनाहत नाद का श्रवण, और अजपाजप (हंसःयोग) इस युग की उच्चतम आध्यात्मिक साधना है, जिसका बोध परमात्मा की परम कृपा से ही होता है| अतः अपने हृदय का सर्वश्रेष्ठ प्रेम परमात्मा को दें| हम परमात्मा के उपकरण बनें, उन्हें अपने माध्यम से प्रवाहित होने दें|
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जगन्माता ही साधक हैं, हम नहीं| वे स्वयं हमारे सूक्ष्म देह के मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी के भीतर ब्राह्मी उपनाड़ी में कुंडलिनी महाशक्ति के रूप में विचरण कर रही हैं| चाँदी (रजत) के समान चमकती हुई उनकी आभा से ब्रह्मनाड़ी आलोकित है| उनका ब्रह्मरंध्र के बाहर, परमात्मा की अनंतता से भी परे करोड़ों सूर्यों की ज्योति से भी अधिक ज्योतिर्मय परमशिव से मिलन ही योग की परम सिद्धि और परमगति है|
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उनके तेज के अंशमात्र को सहन करना भी वैसे ही है जैसे ५ वाट के बल्ब से करोड़ों वोल्ट की विद्युत का प्रवाहित होना| उनके तेज के अंश को भी सहन करने योग्य बनने के लिए हमें अनेक जन्मों तक साधना करनी पड़ती है| परमात्मा की कृपा के बिना उनके तेज को हम सहन नहीं कर सकते| उनका अंशमात्र भी हमें प्राप्त हो जाये तो यह भोगी शरीर तुरंत नष्ट हो जाएगा|
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सर्वश्रेष्ठ तो यही है कि हम उन्हें प्रेम करें, भक्ति करें, और उन्हें समर्पित हो जाएँ| गीता जैसे ग्रन्थों में पूरा मार्गदर्शन प्राप्त है| आचार्य मधुसूदन सरस्वती, आचार्य शंकर की परंपरा के सन्यासी थे| उन्होने भगवान श्रीकृष्ण को ही परम तत्व बताया है ...
"वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् |
पूर्णेंदुसुंदरमुखादरविंदनेत्रात कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ||"
अर्थात, पूर्णेन्दु चन्द्रमा के समान जिनका अतुलित सौन्दर्य-माधुर्य है, जिनके कर-पल्लव वंशी-विभूषित हैं, जिनके नेत्र कमल-दलतुल्य हैं ऐसे कृष्णचन्द्र परमानन्द के तुल्य और कोई वस्तु है ही नहीं; सच्चिदानन्दघन आनन्दकन्द परमानन्द श्रीकृष्णस्वरूप से भिन्न कोई तत्त्व है ऐसा में नहीं जानता; तात्पर्य कि श्रीकृष्णस्वरूप ही सर्वोपरि तत्त्व है | अन्ततोगत्वा तात्पर्य यह कि परात्पर परब्रह्म ही श्रीकृष्णस्वरूप में साक्षात् हुए हैं ||
सार की बात :--- "येन-केन प्रकारेण मनः कृष्णे निवेशयेत् |"
जिस किसी भी भावना से प्रेरित हो, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र से अपना संबंध जोड़ लो; यही वेद वेदांग, उपनिषद्-पुराण आदि सम्पूर्ण सत्-शास्त्रों का एकमात्र उपदेश-आदेश है||
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
३१ अक्तूबर २०२०

Friday, 29 October 2021

तुर्की और फ्रांस के मध्य का तनाव ---

 तुर्की और फ्रांस के मध्य में तनाव इस समय (अक्तूबर २०२०) अपने चरम पर है| उनमें युद्ध की भी संभावना है| तुर्की को पाकिस्तान के आणविक अस्त्रों पर भरोसा है| लेकिन राजनीति में कोई किसी का स्थायी शत्रु या मित्र नहीं होता| ईसाईयों व मुसलमानों के मध्य सात बार बड़े भयंकर धर्म-युद्ध हुए थे, जिनमें मुसलमानों का नेतृत्व तुर्की ने किया है और ईसाईयों का फ्रांस ने| क्रीमिया की लड़ाई में तुर्की और फ्रांस दोनों परम मित्र बन गए थे और मिल कर रूस के विरुद्ध युद्ध किया| प्रथम विश्व-युद्ध में दोनों फिर एक-दूसरे के परम शत्रु हो गए| फ्रांस और ब्रिटेन ने मिलकर तुर्की को हरा दिया था| फ्रांस ने अंतिम खलीफा अब्दुल मजीद को अपने यहाँ राजनीतिक शरण भी दी थी| अब दोनों देश फिर एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े हो गए हैं| तुर्की के पक्ष में सारा मुस्लिम विश्व खड़ा हो गया है, तो फ्रांस के पक्ष में यूरोप के अनेक देश| तुर्की और जर्मनी सदा से ही परम मित्र रहे हैं, पर अब स्थिति पलट रही है|

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भारत की रुचि एक ही है कि व्यापार के लिए, बास्फोरस जलडमरूमध्य निर्बाध खुला रहे, और भारत के विदेश व्यापार पर कोई संकट न आए| मेरी भावना यह है कि युद्ध, भारत से दूर ही हो| तुर्की और फ्रांस के मध्य कभी युद्ध हुआ तो भारत फ्रांस का समर्थन करेगा| इसमें भारत का हित है| तुर्की ने भारत-पाक युद्धों में सदा पाकिस्तान का साथ दिया है| भारत का यदि चीन व पाकिस्तान से युद्ध हुआ तो भारत की सहायता भी सिर्फ अमेरिका, जापान और फ्रांस ही कर सकते हैं|
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आर्मेनिया व अजरबेज़ान के मध्य हो रहे युद्ध में तुर्की का प्रवेश अब खुलकर हो चुका है| आर्मेनिया के पक्ष में रूस ने भी अपनी सेना का एक भाग वहाँ नियुक्त कर दिया है| चाहे दुनियाँ के सारे मुसलमान देश इकट्ठा होकर आ जाएँ, वे रूस का सामना नहीं कर सकते| फ्रांस का सामना करने की सामर्थ्य भी किसी मुसलमान देश में नहीं है| भूतकाल में भी २४ अप्रेल १८७७ से ३ मार्च १८७८ तक रूस व तुर्की के मध्य युद्ध हुआ था| यदि ब्रिटेन बीच में नहीं पड़ता तो रूस, तुर्की पर अधिकार कर लेता| ब्रिटेन नहीं चाहता था कि 'बास्फोरस जलडमरूमध्य' रूस के अधिकार में चला जाये | Black Sea में प्रवेश का एकमात्र मार्ग बास्फोरस है जो तुर्की के अधिकार में है| अंतर्राष्ट्रीय संधि के अंतर्गत बास्फोरस का मार्ग नौकानयन के लिए सभी देशों के लिए खुला है|
पूर्वी यूरोप के देशों में तुर्की के प्रति बहुत अधिक घृणा है| इसका कारण मैं फिर कभी लिखूंगा|
३० अक्तूबर २०२०

हे माँ, रक्षा करो ---

 हे माँ, रक्षा करो ...

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एक अबोध बालक जब मल-मूत्र रूपी विष्ठा में पड़ा होता है तब माँ ही उसे स्वच्छ कर सकती है| अपने आप तो वह उज्ज्वल नहीं हो सकता| यह सांसारिकता भी किसी विष्ठा से कम नहीं है|
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हे जगन्माता, तुम ने ही इस मायावी जगत की रचना की, और तुम ने ही "बलादाकृष्य मोहाय, महामाया प्रयच्छति", बलात् आकर्षित कर के इस माया-मोह रूपी घोर नर्ककुंड में डाल दिया| इसमें मेरा क्या दोष? सारी दुर्बलताएं भी तुम्हारी ही रचना है|
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कोई भी माता अपनी संतान को दुःखी देखकर सुखी नहीं रह सकती| अब तुम्हारी ही ज़िम्मेदारी है मुझे मुक्त करना| मेरे में कोई सामर्थ्य नहीं है| मुझे न तो ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें चाहिये, और न कोई मार्गदर्शक और धर्म-शास्त्र| मैं जहां भी हूँ वहाँ तुम्हें स्वयं ही आना होगा| मुझे तुम्हारा ज्ञान नहीं, पूर्ण प्रेम चाहिए जिस पर मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है|
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ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अक्तूबर २०२०

Tuesday, 26 October 2021

मनुष्य का वास्तविक सौंदर्य उसके संस्कारों में है, शरीर में नहीं ---

 मनुष्य का वास्तविक सौंदर्य उसके संस्कारों में है, शरीर में नहीं ---

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किसी भी समाज के लोगों के विचार और भावनाओं को समझ कर उस समाज के बारे में हम सब कुछ जान सकते हैं। मनुष्य का सौंदर्य उसके संस्कारों में है, शरीर में नहीं। किसी भी मनुष्य की चैतन्य आत्मा ही स्थायी रूप से हमें प्रभावित कर सकती है, उसका शारीरिक सौंदर्य नहीं। यदि हम अपने भीतर के सौंदर्य -- "परमात्मा" -- को जान लें तो सब कुछ जान लिया।
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भारत की आत्मा "धर्म" है, अधर्म नहीं। हम सब शाश्वत आत्मा हैं, जिसका सर्वोपरी धर्म है -- परमात्मा को जानना यानि भगवत्-प्राप्ति। यह भगवत्-प्राप्ति ही सत्य-सनातन-धर्म है। यही भारत की अस्मिता और प्राण है। सनातन-धर्म के बिना भारत पूरी तरह नष्ट हो जाएगा।
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भारत का वैचारिक और भावनात्मक पतन बहुत तेजी से हो रहा है। बचने के उपायों पर देश के वे प्रबुद्ध जन विचार करें जिन के हाथों में सत्ता है। भारत के लोग बहुत अधिक भोगी व स्वार्थी हो चुके हैं। हमारी त्याग-तपस्या की भावना निरंतर क्षीण होती जा रही है। हमारी पारिवारिक व्यवस्था लगभग नष्ट हो चुकी है। अपनी रक्षा तो हमें स्वयं को ही करनी होगी।
ॐ तत्सत्
कृपा शंकर
२२ अक्तूबर २०२१

आत्मा में तो अभीप्सा है, लेकिन मन और बुद्धि में नहीं ---

 आत्मा में तो अभीप्सा है, लेकिन मन और बुद्धि में नहीं ---

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परमात्मा से साक्षात्कार हर आत्मा चाहती है, लेकिन मन और बुद्धि विषय-वासनाओं में लिप्त है। इस विषय-वासना को वेदान्त-वासना में परिवर्तित कर के हम आत्माराम कैसे बनें? यह एक बहुत बड़ी ज्वलंत व्यवहारिक समस्या है।
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इसका उत्तर श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े स्पष्ट रूप से दिया है जिसे पढ़कर बुद्धि वाह-वाह तो कर देती है, लेकिन अनुसरण नहीं करती। हर सदविचार से विद्रोह तो मन उसी समय कर देता है। उपनिषदों में सारा ज्ञान भरा पड़ा है, जिसे समझ कर हम उत्साहित तो हो जाते हैं, पर हमारे मन और बुद्धि उस दिशा में हमें बिलकुल भी नहीं बढ़ने देते।
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इसका समाधान क्या है? एकमात्र समाधान है -- हम अपने मन और बुद्धि को परमात्मा में प्रतिष्ठित करें। दूसरे शब्दों में परमात्मा को ही मन और बुद्धि पर शासन करने दें। इसके लिए भगवान से प्रार्थना भी करनी होगी और ऐसी आत्माओं से सत्संग भी करना होगा जो वास्तव में महान हैं। महान वो है जो महत्-तत्व यानि परमात्मा से जुड़ा है। भगवान का निरंतर स्मरण, और शरणागति द्वारा समर्पण का निरंतर प्रयास -- ये ही समाधान हैं, अन्य कुछ भी नहीं।
आप सब में अभिव्यक्त हो रहे परमात्मा को नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ अक्तूबर २०२१

परमात्मा के लिए अभीप्सा यानि एक अतृप्त प्यास, तड़प, और प्रचंड अग्नि सदा ह्रदय में प्रज्ज्वलित रहे ---

 परमात्मा के लिए अभीप्सा यानि एक अतृप्त प्यास, तड़प, और प्रचंड अग्नि सदा ह्रदय में प्रज्ज्वलित रहे ---

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हृदय में परमात्मा की उपस्थिति का निरंतर आभास रहे, यही उपासना है, यही सर्वोपरी साधना है। उपास्य के गुण उपासक में आये बिना नहीं रहते। परमात्मा की प्राप्ति की तड़प में समस्त इच्छाएँ विलीन हों, और अवचेतन मन में छिपी सारी वासनाएँ नष्ट हों। जब भी समय मिले भ्रूमध्य से सहस्त्रार के मध्य में ब्रह्मरंध्र तक पूर्ण भक्ति के साथ ध्यान कीजिये। निष्ठा और साहस के साथ हर बाधा को पार करने में समर्थ हो जाएँगे। परमात्मा से सिर्फ परमात्मा के पूर्ण प्रेम के लिए ही प्रार्थना करें। अन्य प्रार्थनाएँ व्यर्थ और महत्वहीन हैं। परमात्मा की शक्ति सदा हमारे साथ है। उससे जुड़कर ही हमारे सभी शिव-संकल्प पूर्ण हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
२२ अक्तूबर २०२१

उस्मानिया सल्तनत को किसने हराया ? ---

सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) (सन १३५० ई. से सन १९१८ ई.) को प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय हिन्दू सैनिकों ने ही हराया था। अंग्रेजों में इतना साहस नहीं था कि वे तुर्कों या जर्मनों से सीधे युद्ध कर सकें। फिर भी श्रेय ब्रिटेन को ही मिला क्योंकि भारत उस समय ब्रिटेन के आधीन था।

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सीधे युद्ध में तुर्कों और जर्मनों ने अंग्रेजों को सदा ही बहुत बुरी तरह पीटा था। अंग्रेज़ उनसे डरते थे। अंग्रेजों द्वारा युद्ध में चारे की तरह हमेशा भारतीय सैनिकों को ही आगे रखा जाता था। अंग्रेजों की विजय के पीछे सदा भारतीय सैनिकों का बलिदान था। तुर्की और जर्मनी सदा मित्र थे और उन्होने आपस में सदा मित्रता निभाई।
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यूरोप के ईसाईयों और उस्मानिया सल्तनत के मुसलमानों के मध्य तीन बहुत बड़े भयंकर खूनी मज़हबी युद्ध हुए थे, जिनमें सदा यूरोप के ईसाई ही हारे। यूरोप के उन ईसाईयों को अरबों ने नहीं, उत्तरी अफ्रीका के लड़ाकों ने हराया था जो कालांतर में मुसलमान बन गए थे। अरब तो उस समय तुर्कों के गुलाम थे, उनका कोई योगदान नहीं था। उत्तरी अफ्रीका के मुसलमान, इस्लाम के आगमन से पूर्व हिन्दू धर्म को मानते थे।
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उस्मानिया सल्तनत का कोई भी खलीफा कभी हज करने नहीं गया, यद्यपि मक्का-मदीना सहित पूरा अरब उनके आधीन था। एक बार सऊदी अरब के बादशाह ने स्वयं को स्वतंत्र करना चाहा तो तुर्क सेना सऊदी बादशाह और मुख्य इमाम को जंजीरों से बांधकर इस्तांबूल ले गई और इस्तांबूल की हागिया सोफिया शाही मस्जिद के सामने सऊदी बादशाह का सिर कलम कर दिया। वहाँ उपस्थित हजारों की भीड़ ने तालियाँ बजाई और पटाखे छोड़े। मुख्य इमाम का सिर मुख्य बाज़ार में कलम किया गया। यही एक कारण है कि अरबों के दिल में तुर्कों के प्रति एक घृणा का भाव अभी भी है।
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भारत में जिन मुसलमान बादशाहों ने राज्य किया वे सभी मूल रूप से तुर्क ही थे। मुगल लोग उज्बेकिस्तान से आए थे जो उस्मानिया सल्तनत का एक भाग था।
ईसाईयों ने निरंतर संघर्ष जारी रखा और यूरोप में इस्लाम का प्रवेश नहीं होने दिया। उन्होने विश्व के अधिकांश भागों में छल से ईसाईयत को फैलाया।
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हिंदुओं को अपने मंदिरों में प्रवेश की अनुमति सिर्फ हिन्दू श्रद्धालुओं को ही देनी चाहिए। जिनकी श्रद्धा हिन्दू धर्म में नहीं है, उनका प्रवेश हिन्दू मंदिरों में निषिद्ध हो।
२२ अक्तूबर २०२१

मेरा तो एक ही धर्म है, और वह है -- "भगवत्-प्राप्ति", अन्य कुछ भी मेरा धर्म नहीं है ---

 मेरा तो एक ही धर्म है, और वह है -- "भगवत्-प्राप्ति", अन्य कुछ भी मेरा धर्म नहीं है। यही मेरे मन की एकमात्र भावना और प्रार्थना है ---

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भगवान के प्रेम में खड़ा हूँ तो एक विशाल वृक्ष की तरह खड़ा हूँ, कोई भी झंझावात उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इतनी तो हरिःकृपा मुझ अकिंचन पर बनी रहे। यदि गिरूँगा तो एक बीज की तरह ही गिरूँगा जो पुनश्च उग आता है।
जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट , भय-तृष्णा -- ये तो इस शरीर के धर्म हैं, मेरे नहीं। मेरा तो एक ही धर्म है, और वह है -- "भगवत्-प्राप्ति"। अन्य कुछ भी मेरा धर्म नहीं है।
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भगवान की पूर्णता -- उनका जगन्माता का स्वरूप है, जिसने इस पूरी सृष्टि को धारण किया हुआ है। वे भी अंततः परमशिव में विलीन हो जाती हैं। वे मुझे अपनी स्मृति में इतना तन्मय रखें कि कभी पराभूत नहीं होना पड़े। मुझ अकिंचन में तो इतनी सामर्थ्य नहीं है कि उनका निरंतर स्मरण कर सकूँ। वे ही मुझे भगवद्-दृष्टि प्रदान करें, सदा अपनी स्मृति में, हर तरह के मोह-माया से मुक्त रखें।
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जो हुआ सो हुआ और होकर चला भी गया। अब इसी क्षण से यह जीवन मङ्गलमय और धन्य हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ अक्तूबर २०२१

सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण कैसे होगा? ---

 काल की गति पर पूर्ण नियंत्रण सिर्फ भगवान का है। इस समय काल की गति ऊर्ध्वमुखी है, अतः इस आरोह-काल में मनुष्य की चेतना का भी निरंतर उत्थान और विस्तार हो रहा है। जिस दिन आत्मा की शाश्वतता और कर्मफलों की प्राप्ति हेतु पुनर्जन्म का सत्य , जन-सामान्य को समझ में आने लगेगा, उसी दिन से सत्य-सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा सम्पूर्ण विश्व में होने लगेगी। सत्य-सनातन-धर्म सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त होगा, और असत्य का अंधकार दूर होगा।

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भगवान की सर्वोत्तम और सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारतभूमि में हुई है। अतः भारत निश्चित रूप से एक सत्य-सनातन-धर्मनिष्ठ अखंड हिन्दू राष्ट्र बनेगा। भारत में छाया असत्य का अंधकार दूर होगा, और सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण होगा। वह दिन देखने के लिए मैं जीवित रहूँ या नहीं, लेकिन उस घटना का साक्षी अवश्य रहूँगा। सनातन धर्म का आधार ही -- आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों की प्राप्ति हेतु पुनर्जन्म, और भगवत्-प्राप्ति है।
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अपनी वर्तमान आयु और अवस्था में अब भगवत्-प्राप्ति को ही अपना एकमात्र धंधा बना लिया है। इस धंधे में केवल भगवान ही सम्मिलित हैं, और कोई भी अन्य नहीं है। सारी साधनाएँ और उपासना इसी धंधे का भाग हैं। सारा नफा-नुकसान भी भगवान का है, अन्य किसी से कुछ भी लेना-देना नहीं है। मैं रहूँ या न रहूँ, इसका भी कोई महत्व नहीं है। मेरी चेतना में एकमात्र अस्तित्व भगवान का ही रहे। इस समय मेरी आयु आधिकारिक रूप से ७५ वर्ष है, अतः यही धंधा मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ है।
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सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ अक्तूबर २०२१

सत्यधर्मनिष्ठ क्षत्रिय ही देश की रक्षा, और सुशासन दे सकते हैं ---

 सत्यधर्मनिष्ठ क्षत्रिय ही देश की रक्षा, और सुशासन दे सकते हैं।

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अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हिंदुओं को एक ब्रहमतेज के साथ-साथ क्षात्रबल भी जागृत कर अपना सैन्यीकरण करना होगा। क्षत्रियत्व ही वास्तव में देश की रक्षा कर सकता है। हिन्दू जाति शस्त्र धारण करे। सभी हिंदुओं के पास आत्मरक्षा हेतु अस्त्र-शस्त्र हों, और उनका प्रयोग करना भी आता हो। सरकार को बाध्य किया जाये कि वह नियमों में परिवर्तन करे, और हिंदुओं को अस्त्र-शस्त्र रखने और धर्मरक्षा का अधिकार दे। सत्यधर्मनिष्ठ क्षत्रिय ही देश की रक्षा और सुशासन दे सकते हैं।
२५ अक्तूबर २०२१

जिसे प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा ---

 जिसे प्यास लगी है, वही पानी पीयेगा ---

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यह संसार त्रिगुणात्मक है। इस समय विश्व में तमोगुण का प्रभाव अधिक है। इस सृष्टि के स्वामी स्वयं भगवान हैं जिन का आदेश है कि हम इस त्रिगुणात्मक सृष्टि से ऊपर उठें। स्वयं निमित्त मात्र बनकर भगवान के आदेश का ही पालन करेंगे।
जीवन में परमात्मा का अवतरण सर्वप्रथम स्वयं में हो, फिर जो कुछ भी करना है, वह वे परमात्मा स्वयं करेंगे।
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जब तक स्वयं में प्राण और चेतना है, तब तक हरिःनाम विस्मृत नहीं हो सकता। यह शरीर रहे या न रहे, लेकिन परमात्मा का चैतन्य और उनकी स्मृति सदा रहेगी। मेरा नहीं, सिर्फ परमात्मा का ही अस्तित्व होगा।
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"हरिः अनंत हरिः कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥"
हरिः अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२५ अक्तूबर २०२१

भगवत्-प्राप्ति में सफलता कैसे प्राप्त हो? सत्य-सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण कब व कैसे होगा? ----

प्रश्न (१):--- भगवत्-प्राप्ति में सफलता कैसे प्राप्त हो?

प्रश्न (२):--- सत्य-सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण कब व कैसे होगा?

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उत्तर (१):-- जिस तरह एक व्यापारी दिन-रात अपने धंधे के बारे में नफे-नुकसान की ही सोचता है, और उन्हीं लोगों से मिलता-जुलता है जो उसके धंधे में सहायक हों, --- उसी तरह जिन लोगों ने अपना धंधा ही परमात्मा की प्राप्ति को बना लिया है, वे दिन-रात सप्ताह में सातों दिन, और दिन में चौबीस घंटे --- सिर्फ परमात्मा का ही चिंतन करे; और उन्हीं लोगों से मेल-जोल रखें जो उनके धंधे में सहायक हों। बाकी अन्य सब का विष की तरह परित्याग कर दें। भगवान श्रीकृष्ण के वचनों में श्रद्धा और विश्वास रखें --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- "जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मेरे में निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।"
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यही एकमात्र मार्ग है परमात्मा की प्राप्ति का। हृदय में सत्यनिष्ठा, श्रद्धा और विश्वास होना चाहिए। यह भगवत्-प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। यही कल्याण का, और मोक्ष का एकमात्र मार्ग है। यही सत्य-सनातन-धर्म है।
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उत्तर (२):--- जिस दिन आधुनिक विज्ञान व निज अनुभव द्वारा मनुष्य की बुद्धि -- कर्मफलों, पुनर्जन्म व आत्मा की शाश्वतता को मान लेगी, उसी दिन से सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण आरंभ हो जाएगा। फिर भारत भी अखंड होगा और अपने परम वैभव को भी प्राप्त करेगा। कलियुगी पंथों का प्रभाव भी क्षीण होते होते लुप्त हो जाएगा।
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विशेष :-- परमात्मा से प्रेम (भक्ति) व अन्य संबन्धित विषयों पर अब तक अनेक बार लिख चुका हूँ। बार बार उसी बात को घूमा-फिरा कर लिखना समय की बर्बादी है।
जिन के हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम होगा, वे निश्चित रूप से रामायण, महाभारत और उपनिषदों आदि का स्वाध्याय, व सत्संग करेंगे।
जिन का मन और बुद्धि -- विषय-वासनाओं में लिप्त है, उनके भाग्य में भटकना ही लिखा है, वे भटकते ही रहेंगे। अनेक जन्मों तक कष्ट पाते-पाते वे भी एक न एक दिन सन्मार्ग पर आ ही जाएँगे।
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आप सब महान आत्माएँ हैं और परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं।
आप सब को मेरा नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ अक्तूबर २०२१

भगवान के प्रति अहैतुकी परमप्रेम, समर्पण और ध्यान साधना -- हिन्दू धर्म का प्राण है ---

 सनातन हिन्दू धर्म क़ा प्राण है ... भगवान के प्रति अहैतुकी पूर्ण-परम-प्रेम, समर्पण और ध्यान साधना|

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भारत का सबसे बड़ा अहित किया है अधर्मसापेक्ष यानि धर्मनिरपेक्ष अधर्मी सेकुलरवाद, मार्क्सवाद और मैकाले की शिक्षा व्यवस्था ने|
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हमारे जीवन का केंद्रबिंदु परमात्मा हों, और हम उन्हें शरणागति द्वारा समर्पित हों ... यही सर्वश्रेष्ठ कार्य है जिसे हम इस जीवन में कर सकते हैं|
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पूरी सृष्टि ओंकार का, यानि राम नाम का जप कर रही है| हमें उसे निरंतर सुनना और उसी में लीन हो जाना चाहिए| अतः पढो कम, और ध्यान अधिक करो| उतना ही पढो जिससे प्रेरणा और शक्ति मिलती हो| पढने का उद्देश्य ही प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करना है|
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साथ भी उन्हीं लोगों का करो जो हमारी साधना में सहायक हों, यही सत्संग है| साधना भी वही है, जो हमें निरंतर परमात्मा का बोध कराये|
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सृष्टि निरंतर गतिशील है, कहीं भी जड़ता नहीं है| जड़ता का आभास, माया का आवरण है| यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है| यह विखंडन और नवसृजन की प्रक्रिया ही नटराज भगवान शिव का नृत्य है|
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वह परम चेतना जिससे समस्त ऊर्जा और सृष्टि निर्मित हुई है वे शिव हैं| सारी आकाश गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से परिक्रमा कर रहे हैं| सृष्टि का कहीं ना कहीं तो कोई केंद्र है, वही विष्णु नाभि है और जिसने समस्त सृष्टि को धारण कर रखा है वे विष्णु हैं|
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उस गति की, उस प्रवाह की, और नटराज के नृत्य की भी एक ध्वनी हो रही है जिसकी आवृति हमारे कानों की सीमा से परे है| वह ध्वनी ही ओंकार रूप में परम सत्य 'राम' का नाम है| उसे सुनना और उसमें लीन हो जाना ही उच्चतम साधना है| समाधिस्थ योगी जिसकी ध्वनी और प्रकाश में लीन हैं, और सारे भक्त साधक जिस की साधना कर रहे हैं, वह 'राम' का नाम ही है जिसे सुनने वालों का मन उसी में मग्न हो जाता है|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन ! ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२६ अक्टूबर २०२०

Monday, 25 October 2021

भगवान श्रीराम की उपासना हमें निर्भीक व शक्तिशाली बनाती है ---

 

विजयदशमी का दिव्य-तेजस्वी पर्व धनुर्धारी भगवान श्रीराम को अपने हृदय में रखते हुए उन सब आध्यात्मिक सीमाओं के उल्लंघन का पर्व है जिन्होने हमें सीमित बना रखा है| जो भी अस्त्र-शस्त्र-आयुध हमारे पास हैं, उनका पूजन करें| हमारा सबसे बड़ा शस्त्र तो हमारी हर आती-जाती साँस और हमारा मन है| सब सीमाओं का उल्लंघन कर भगवान श्रीराम का कूटस्थ में ध्यान करें और उन्हें समर्पित हों|

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रावण की चिंता न करें| रावण कभी मरने वाला नहीं है| रावण है हमारा लोभ व अहंकार, जो निरंतर पराये धन व पराई स्त्री/पुरुष की कामना करता है|
महिषासुर भी हमारा तमोगुण, प्रमाद व दीर्घसूत्रता है| यह भी कभी नहीं मरता|
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भगवान जब हमारे हृदय में प्रतिष्ठित होंगे, तभी ये तमोगुण रूपी असुर भागेंगे| भगवान श्रीराम की उपासना हमें निर्भीक व शक्तिशाली बनाती है|
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भगवान श्रीराम जब रावण से युद्ध करने गए तब उनके पास न तो रथ था, न उन के पैरों में जूते, और न ही उनकी सेना के पास कोई अस्त्र-शस्त्र| उनकी ओर से लड़ रहे वानर और रीछ, वृक्षों और पत्थरों को ही अस्त्र-शस्त्र बनाकर लड़ रहे थे| रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए| प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे|
श्रीराम जी के चरणों की वंदना करके वे स्नेह पूर्वक कहने लगे ... हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं| वह बलवान्‌ वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा?
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कृपानिधान श्री रामजी ने कहा ... हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है ... शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं| सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं| बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार ... ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं|
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ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है, वैराग्य ढाल है, और संतोष तलवार है| दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है|
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निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है| शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं| ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है| इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है|
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हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा धर्ममय दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान्‌ दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)|
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रावनु रथी बिरथ रघुबीरा| देखि बिभीषन भयउ अधीरा||
अधिक प्रीति मन भा संदेहा| बंदि चरन कह सहित सनेहा||१||
नाथ न रथ नहि तन पद त्राना| केहि बिधि जितब बीर बलवाना||
सुनहु सखा कह कृपानिधाना| जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना||२||
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे| छमा कृपा समता रजु जोरे||३||
ईस भजनु सारथी सुजाना| बिरति चर्म संतोष कृपाना||
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा| बर बिग्यान कठिन कोदंडा||४||
अमल अचल मन त्रोन समाना| सम जम नियम सिलीमुख नाना||
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा| एहि सम बिजय उपाय न दूजा||५||
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आप सब महान दिव्य आत्माओं को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अक्टूबर २०२०

श्रीकृष्ण समर्पण ---

 श्रीकृष्ण समर्पण ...

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आजकल पिछले कुछ दिनों से एक विचित्र सी स्थिति हो गई है| इस से एक परम शांति भी मिल रही है और भगवान से एक दिव्य आश्वासन भी|
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अपने चारों ओर ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में हो रहे घटनाक्रम के प्रति मैं बहुत अधिक संवेदनशील हूँ| पूरी पृथ्वी का और पृथ्वी के हर भाग का मानचित्र मेरे मानस में है| इतना ही नहीं, पृथ्वी के हर भाग की जलवायू, और विश्व की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं आदि का भी काफी कुछ ज्ञान है| विश्व के बहुत सारे देशों का भ्रमण भी किया है, सभी महासागरों को जलयान से पार किया है, पृथ्वी की परिक्रमा भी की है, व प्रकृति का सौम्य और विकराल रूप भी देखा है| अपने निज जीवन के भूतकाल की अनेक बुरी-अच्छी स्मृतियाँ आती हैं| बहुत अधिक विचित्र अनुभव हैं, कई बातों की पीड़ा भी होती है| भारत और सनातन धर्म की वर्तमान दुःखद स्थिति की भी पीड़ा होती है|
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पर अब परिदृश्य परिवर्तित हो गया है| अच्छी-बुरी जो भी स्मृति आती है, वे सब अब भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित हो जाती हैं| जीवन का हरेक अच्छा-बुरा पक्ष, हर अनुभव, सब कुछ, पूरा जीवन ही श्रीकृष्ण को समर्पित है| बस एक यही भाव है जो जीवन के हर अभाव और कष्ट को दूर करता है| सारे अभाव व कष्ट, सारी अपूर्णता-पूर्णता, सारा अस्तित्व ... श्रीकृष्ण को समर्पित है| कुछ भी अपने लिए नहीं रखा है, सब कुछ भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है|
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गीता का यह चरम श्लोक बार-बार स्मृति में आमने आता है ...
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
अब भगवान वासुदेव ही सर्वस्व हैं|
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
सारा जीवन उन्हें समर्पित है| मेरा कहने को कुछ भी नहीं है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अक्तूबर २०२०

Thursday, 21 October 2021

श्रीमद्भगवद्गीता का सार जैसा मुझे भगवान की कृपा से समझ में आया है ---

 श्रीमद्भगवद्गीता का सार जैसा मुझे भगवान की कृपा से समझ में आया है ---

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जिसमें जैसे गुण होते हैं, वैसी ही गीता उसे समझ में आती है। जिसमें सतोगुण प्रधान है, उसे ज्ञान और भक्ति की बातें ही समझ में आयेंगी। जिसमें रजोगुण प्रधान है, उसे कर्मयोग ही समझ में आयेगा। जिसमें तमोगुण प्रधान है, उसे कुछ भी समझ में नहीं आयेगा। गीता, सनातन-धर्म के सभी ग्रन्थों का सार है| इसे भगवान श्रीकृष्ण की परम कृपा से ही समझ सकते हैं| अब इसमें भी यदि हम सार की बात करें, तो मुझे अपनी अल्प और सीमित बुद्धि से चार ही बातें समझ में आई हैं| ये चारों बिन्दु सनातन धर्म के स्तम्भ हैं, जिन्हें मैं अति संक्षेप में लिखने का दुःसाहस कर रहा हूँ| भूल-चूक क्षमा करें|
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(१) आत्मा शाश्वत है, इसे कोई नष्ट नहीं कर सकता| हम यह भौतिक देह नहीं, सनातन, शाश्वत, अमर आत्मा हैं, और परमात्मा के अंश हैं|
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(२) हर आत्मा, कर्म करने को स्वतंत्र है| हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं| हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, अतः हम अपने कर्मों का फल भोगने को भी बाध्य हैं| कर्ताभाव से मुक्त होकर परमात्मा की चेतना में किये हुये निष्काम कर्म ही हमें बंधन में नहीं बाँधते|
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(३) कर्मफल भोगने के लिए पुनर्जन्म भी लेना पड़ता है| विगत कर्मों के अनुसार ही हमें दुःख-सुख भोगने पड़ते हैं|
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(४) सब तरह के दुःखों और कष्टों से मुक्ति का एकमात्र उपाय 'भक्ति' और 'समर्पण' है| भगवान हमें अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति, शरणागति, व समर्पण का उपदेश देते हैं| सारे योग, सारी साधनायें व ज्ञान की बातें ... भक्ति में ही समाहित हैं| समत्व में स्थिति को ही भगवान ने ज्ञान बताया है| अंत समय में जैसी हमारी मति होती है, वैसी ही गति होती है| अपने हृदय का पूर्ण प्रेम हम परमात्मा को दें|
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एक ही वाक्य में कहें तो .... परमप्रेम, शरणागति द्वारा समर्पण, व समभाव ही गीता का सार है| गीता के ज्ञान को हम सीमाओं में नहीं बाँध सकते| हमारी बुद्धि ही अत्यल्प और अति सीमित है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अक्टूबर २०२०

Wednesday, 20 October 2021

वास्तविक स्वतंत्रता दिवस तो आज २१ अक्तूबर ही है ---

वास्तविक स्वतंत्रता दिवस तो आज ही है ---

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भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने २१ अक्तूबर १९४३ को 'आजाद हिन्द फौज' के सर्वोच्च सेनापति के नाते स्वतन्त्र भारत की प्रथम सरकार बनायी थी जिसे आठ देशों ... जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुरिया और आयरलैंड ने मान्यता प्रदान की थी।
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जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप समूह इस अस्थायी सरकार को दे दिये थे। सुभाष बोस उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया। ३० दिसंबर १९४३ को पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया था।
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एक षडयंत्र द्वारा उन्हें देश से भगा दिया गया। आज़ाद हिन्द फौज के १६ हजार से अधिक सैनिक देश की स्वतन्त्रता के लिए लड़ते हुए मरे थे, जिन्हें मरणोपरांत सम्मान नहीं मिला। आजाद हिन्द के फौज के जीवित बचे सैनिकों को सेना में बापस नहीं लिया गया, और उन्हें वेतन और सेवानिवृति का कोई लाभ भी नहीं मिला।
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१५ अगस्त १९४७ तो भारत का विभाजन दिवस था, जिसमें लगभग ३० लाख लोगों की हत्या हुई, हजारों महिलाओं का बलात्कार हुआ, हजारों बच्चों और महिलाओं का अपहरण हुआ, और करोड़ों लोग विस्थापित हुए। इतनी कम अवधि में इतना भयानक नर-संहार विश्व के इतिहास में अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ। इस दिन लाशों से भरी हुई कई रेलगाडियाँ विभाजित भारत यानि पाकिस्तान से आयीं जिन पर खून से लिखा था -- "Gift to India from Pakistan."
१९७६ में छपी पुस्तक Freedom at midnight में उनके चित्र दिये दिये हुए थे। वह कलंक का दिन भारत का स्वतन्त्रता दिवस नहीं हो सकता। यह कैसा स्वतन्त्रता दिवस था जिसमें भारत माता की दोनों भुजाएँ और आधा सिर काट दिया गया। जवाहर लाल नेहरू तो भारत का अंग्रेजों द्वारा कूटनीति से बनाया गया दूसरा प्रधानमंत्री था।
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तेरा गौरव अमर रहे माँ हम दिन चार रहें न रहें| भारत माता की जय !
वन्दे मातरं ! जय हिन्द !
कृपा शंकर
२१ अक्तूबर २०२१

सर्वप्रथम धर्म की रक्षा हो तभी देश बचेगा ---

 

सर्वप्रथम सनातन धर्म व राष्ट्र की रक्षा हो, तभी भारत देश बचेगा; अन्यथा नामांतरण भी हो सकता है -- पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान।
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धर्म की रक्षा होती है - धर्माचरण से, जिसे आजकल कोई करना नहीं चाहता। समय ही खराब चल रहा है, किसी का दोष नहीं है। मेरी आस्था अब सब ओर से हट कर भगवान पर ही सिमट गई है। यह भगवान की सृष्टि है, अतः जो कुछ भी करना है, वह वे ही करेंगे। मैं तो निमित्तमात्र हूँ। मेरी भूमिका यज्ञ में एक यजमान की भूमिका से अधिक नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
१९ अक्तूबर २०२१

भगवान से उनके परमप्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मत मांगो ---

 

भगवान से उनके परमप्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मत मांगो। निरंतर उनका स्मरण ही सर्वश्रेष्ठ सत्संग और जपयज्ञ है। अपनी चेतना को सदा उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य) में रखो। कुसंग का सदा त्याग, और गीता का नित्य स्वाध्याय करो। यही सन्मार्ग है।
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"सोइ जानहि जेहि देहु जनाई, जानत तुमहिं तुमहि हुई जाई।"
"धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्।"
अपनी श्रद्धा, विश्वास और आस्था को विचलित न होने दें, क्योंकि श्रद्धावान को ही शांति मिलती है। भगवान कहते हैं --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥४:३९॥"
अर्थात - "श्रद्धावान् तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है॥"
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
१९ अक्टूबर २०२१