हे माँ, रक्षा करो ...
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एक अबोध बालक जब मल-मूत्र रूपी विष्ठा में पड़ा होता है तब माँ ही उसे स्वच्छ कर सकती है| अपने आप तो वह उज्ज्वल नहीं हो सकता| यह सांसारिकता भी किसी विष्ठा से कम नहीं है|
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हे जगन्माता, तुम ने ही इस मायावी जगत की रचना की, और तुम ने ही "बलादाकृष्य मोहाय, महामाया प्रयच्छति", बलात् आकर्षित कर के इस माया-मोह रूपी घोर नर्ककुंड में डाल दिया| इसमें मेरा क्या दोष? सारी दुर्बलताएं भी तुम्हारी ही रचना है|
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कोई भी माता अपनी संतान को दुःखी देखकर सुखी नहीं रह सकती| अब तुम्हारी ही ज़िम्मेदारी है मुझे मुक्त करना| मेरे में कोई सामर्थ्य नहीं है| मुझे न तो ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें चाहिये, और न कोई मार्गदर्शक और धर्म-शास्त्र| मैं जहां भी हूँ वहाँ तुम्हें स्वयं ही आना होगा| मुझे तुम्हारा ज्ञान नहीं, पूर्ण प्रेम चाहिए जिस पर मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है|
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ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अक्तूबर २०२०
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