सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) (सन १३५० ई. से सन १९१८ ई.) को प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय हिन्दू सैनिकों ने ही हराया था। अंग्रेजों में इतना साहस नहीं था कि वे तुर्कों या जर्मनों से सीधे युद्ध कर सकें। फिर भी श्रेय ब्रिटेन को ही मिला क्योंकि भारत उस समय ब्रिटेन के आधीन था।
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सीधे युद्ध में तुर्कों और जर्मनों ने अंग्रेजों को सदा ही बहुत बुरी तरह पीटा था। अंग्रेज़ उनसे डरते थे। अंग्रेजों द्वारा युद्ध में चारे की तरह हमेशा भारतीय सैनिकों को ही आगे रखा जाता था। अंग्रेजों की विजय के पीछे सदा भारतीय सैनिकों का बलिदान था। तुर्की और जर्मनी सदा मित्र थे और उन्होने आपस में सदा मित्रता निभाई।
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यूरोप के ईसाईयों और उस्मानिया सल्तनत के मुसलमानों के मध्य तीन बहुत बड़े भयंकर खूनी मज़हबी युद्ध हुए थे, जिनमें सदा यूरोप के ईसाई ही हारे। यूरोप के उन ईसाईयों को अरबों ने नहीं, उत्तरी अफ्रीका के लड़ाकों ने हराया था जो कालांतर में मुसलमान बन गए थे। अरब तो उस समय तुर्कों के गुलाम थे, उनका कोई योगदान नहीं था। उत्तरी अफ्रीका के मुसलमान, इस्लाम के आगमन से पूर्व हिन्दू धर्म को मानते थे।
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उस्मानिया सल्तनत का कोई भी खलीफा कभी हज करने नहीं गया, यद्यपि मक्का-मदीना सहित पूरा अरब उनके आधीन था। एक बार सऊदी अरब के बादशाह ने स्वयं को स्वतंत्र करना चाहा तो तुर्क सेना सऊदी बादशाह और मुख्य इमाम को जंजीरों से बांधकर इस्तांबूल ले गई और इस्तांबूल की हागिया सोफिया शाही मस्जिद के सामने सऊदी बादशाह का सिर कलम कर दिया। वहाँ उपस्थित हजारों की भीड़ ने तालियाँ बजाई और पटाखे छोड़े। मुख्य इमाम का सिर मुख्य बाज़ार में कलम किया गया। यही एक कारण है कि अरबों के दिल में तुर्कों के प्रति एक घृणा का भाव अभी भी है।
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भारत में जिन मुसलमान बादशाहों ने राज्य किया वे सभी मूल रूप से तुर्क ही थे। मुगल लोग उज्बेकिस्तान से आए थे जो उस्मानिया सल्तनत का एक भाग था।
ईसाईयों ने निरंतर संघर्ष जारी रखा और यूरोप में इस्लाम का प्रवेश नहीं होने दिया। उन्होने विश्व के अधिकांश भागों में छल से ईसाईयत को फैलाया।
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हिंदुओं को अपने मंदिरों में प्रवेश की अनुमति सिर्फ हिन्दू श्रद्धालुओं को ही देनी चाहिए। जिनकी श्रद्धा हिन्दू धर्म में नहीं है, उनका प्रवेश हिन्दू मंदिरों में निषिद्ध हो।
२२ अक्तूबर २०२१
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