मेरा तो एक ही धर्म है, और वह है -- "भगवत्-प्राप्ति", अन्य कुछ भी मेरा धर्म नहीं है। यही मेरे मन की एकमात्र भावना और प्रार्थना है ---
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भगवान के प्रेम में खड़ा हूँ तो एक विशाल वृक्ष की तरह खड़ा हूँ, कोई भी झंझावात उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इतनी तो हरिःकृपा मुझ अकिंचन पर बनी रहे। यदि गिरूँगा तो एक बीज की तरह ही गिरूँगा जो पुनश्च उग आता है।
जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट , भय-तृष्णा -- ये तो इस शरीर के धर्म हैं, मेरे नहीं। मेरा तो एक ही धर्म है, और वह है -- "भगवत्-प्राप्ति"। अन्य कुछ भी मेरा धर्म नहीं है।
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भगवान की पूर्णता -- उनका जगन्माता का स्वरूप है, जिसने इस पूरी सृष्टि को धारण किया हुआ है। वे भी अंततः परमशिव में विलीन हो जाती हैं। वे मुझे अपनी स्मृति में इतना तन्मय रखें कि कभी पराभूत नहीं होना पड़े। मुझ अकिंचन में तो इतनी सामर्थ्य नहीं है कि उनका निरंतर स्मरण कर सकूँ। वे ही मुझे भगवद्-दृष्टि प्रदान करें, सदा अपनी स्मृति में, हर तरह के मोह-माया से मुक्त रखें।
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जो हुआ सो हुआ और होकर चला भी गया। अब इसी क्षण से यह जीवन मङ्गलमय और धन्य हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ अक्तूबर २०२१
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