खेचरी और शांभवी मुद्रा में ध्यान साधना का महत्व :---
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कोई भी आध्यात्मिक साधना, विशेष कर क्रियायोग की साधना यदि खेचरी मुद्रा में की जाये तो उसका कई गुणा अधिक फल मिलता है। खेचरी मुद्रा लगाकर पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर ध्यान मुद्रा में जब ध्यान करते हैं, तब वह शांभवी मुद्रा कहलाती है। ध्यान कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म और नाद का किया जाता है। ध्यान साधना में सफलता के लिए निम्न छह गुणों का होना आवश्यक है, अन्यथा सफलता नहीं मिलती है --
(१) भक्ति यानि परम प्रेम॥ (२) परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा॥ (३) दुष्वृत्तियों का त्याग॥ (४) शरणागति और समर्पण॥ (५) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान॥ (६) दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन॥
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वेदिक ऋषियों ने 'खेचरी' मुद्रा को 'विश्वमित्' का नाम दिया है। खेचरी शब्द पौराणिक है जिसे नाथ संप्रदाय के योगियों ने लोकप्रिय बनाया है। 'खेचरी' का अर्थ है -- 'ख' = आकाश, चर = विचरण।
साहित्य में "ख" शब्द का अर्थ आकाश होता है। वेदों में "ख" शब्द का अर्थ ब्रह्म होता है (ॐ खं ब्रह्म)। ब्रह्म की अनुभूति हमें आकाश-तत्व में होती है। आध्यात्मिक रूप से -- जो बह्म तत्व में विचरण करता है वही साधक खेचरी सिद्ध है।
परमात्मा के प्रति परम प्रेम और शरणागति हो तो साधक परमात्मा को स्वतः उपलब्ध हो जाता है, लेकिन प्रगाढ़ ध्यानावस्था में देखा गया है कि साधक की जीभ स्वतः उलट जाती है और खेचरी व शाम्भवी मुद्रा अनायास ही लग जाती है। ध्यान साधना में तीब्र प्रगति के लिए खेचरी मुद्रा की सिद्धि अति आवश्यक है।
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दत्तात्रेय संहिता और शिव संहिता में खेचरी मुद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है। शिव-संहिता में खेचरी की महिमा इस प्रकार है --
"करोति रसनां योगी प्रविष्टाम् विपरीतगाम्।
लम्बिकोरर्ध्वेषु गर्तेषु धृत्वा ध्यानं भयापहम्॥"
अर्थात् - जो योगी अपनी जिह्वा को विपरीतागामी करता है, यानि जीभ की तालुका में जीभ को बिठाकर ध्यान करने बैठता है, उसके हर प्रकार के कर्म बंधनों का भय दूर हो जाता है।
भगवान् दत्तात्रेय के अनुसार --
"अन्तःकपालविवरे जिव्हां व्यावृत्तः बंधयेत्।
भ्रूमध्ये दृष्टिरपोषा मुद्राभवति खेचरी॥"
अर्थात जिह्वा को पलटकर मस्तक-छिद्र के अभ्यंतर में पहुंचाकर भ्रूमध्य में दृष्टी को स्थापित करना खेचरी मुद्रा है।
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योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय खेचरी मुद्रा के लिए कुछ योगियों के सम्प्रदायों में प्रचलित छेदन, दोहन आदि पद्धतियों के सम्पूर्ण विरुद्ध थे। वे एक दूसरी ही पद्धति पर जोर देते थे जिसे "तालब्य क्रिया" कहते हैं। इसमें मुँह बंद कर जीभ को ऊपर के दांतों व तालू से सटाते हुए जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जाते हैं। फिर मुंह खोलकर झटके के साथ जीभ को जितना बाहर फेंक सकते हैं उतना फेंक कर बाहर ही उसको जितना लंबा कर सकते हैं उतना करते हैं। इस क्रिया को नियमित रूप से दिन में कई बार करने से कुछ महीनों पश्चात जिव्हा स्वतः ही लम्बी होने लगती है, और गुरु कृपा से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है। योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी मजाक में इसे ठोकर क्रिया भी कहते थे। लाहिड़ी महाशय ध्यान करते समय खेचरी मुद्रा पर बल देते थे। जो इसे नहीं कर सकते थे उन्हें भी वे ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटा कर बिना तनाव के जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जा कर रखने पर बल देते थे। तालब्य क्रिया एक साधना है और खेचरी सिद्ध होना गुरु का प्रसाद है।
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जब योगी को खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है तब उसकी गहन ध्यानावस्था में सहस्त्रार से एक रस का क्षरण होने लगता है| सहस्त्रार से टपकते उस रस को जिह्वा के अग्र भाग से पान करने से योगी दीर्घ काल तक समाधी में रह सकता है, उस काल में उसे किसी आहार की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वास्थ्य अच्छा रहता है और अतीन्द्रीय ज्ञान प्राप्त होने लगता है।
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महात्माओं के मुख से खेचरी मुद्रा की एक और वैदिक विधि के बारे में सुना है, लेकिन मैं उसे ठीक से समझ नहीं पाया, अतः मुझे उसका ज्ञान नहीं है। पद्मासन में बैठकर जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर ऋग्वेद के एक विशिष्ट मन्त्र का मानसिक उच्चारण सटीक छंद के अनुसार करना पड़ता है। उस मन्त्र में वर्ण-विन्यास कुछ ऐसा होता है कि उसके सही उच्चारण से जो कम्पन होता है उस उच्चारण और कम्पन के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है।
मुझे उस मन्त्र का ज्ञान नहीं है अतः उस पर चर्चा नहीं करूंगा|
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यह तो भौतिक स्तर पर की जाने वाली साधना है जो ध्यान योग में तीब्र प्रगति के लिए आवश्यक है। पर आध्यात्मिक रूप से खेचरी सिद्ध वही है जो आकाश अर्थात ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण करता है। साधना की आरंभिक अवस्था में साधक प्रणव ध्वनी का श्रवण और ब्रह्मज्योति का आभास तो पा लेता है पर वह अस्थायी होता है। उसमें स्थिति के लिए दीर्घ अभ्यास, भक्ति और समर्पण की आवश्यकता होती है।
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भगवान दत्तात्रेय के अनुसार साधक यदि शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को नासिका मूल (भ्रूमध्य) के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐ से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करता है, तो उसके ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है। अगर ब्रह्मज्योति को ही प्रत्यक्ष कर लिया तो फिर साधना के लिए और क्या बाकी बचा रह जाता है।
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जब ब्रह्मज्योति दिखने लगती हैं, तब शिवभाव में स्थित होकर उस ज्योतिर्मय ब्रह्म के सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करें।
"ॐ नमः शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे।
शिवस्य हृदयं विष्णु: विष्णोश्च हृदयं शिव:॥" (स्कन्द पुराण)
ॐ तत्सत्॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ ॐ नमः शिवाय॥ ॐ श्रीहरिः॥
(उन सब की भी जय हो, जो मेरे लेख पढ़ते हैं)
कृपा शंकर
११ दिसंबर २०२३
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