मनुष्य का जन्म शुभ और अशुभ विभिन्न प्रकार की योनियों में क्यो होता है? ....
गीता में भगवान श्रीकृष्ण इस का कारण बताते हैं .....
"पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्| कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु||१३:२२||
अर्थात प्रकृति में स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न गुणों को भोगता है| इन गुणों का संग ही इस पुरुष (जीव) के शुभ और अशुभ योनियों में जन्म लेने का कारण है||
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उपरोक्त श्लोक की व्याख्या करते हुए आचार्य शंकर अपने भाष्य में कहते हैं कि सुख-दुःखों का भोक्तृत्व ही पुरुष का संसारित्व है| जीवात्मा अविद्यारूपा प्रकृति में स्थित है, प्रकृति को अपना स्वरूप मानता है, इसलिये वह प्रकृति से उत्पन्न हुए सुख-दुःख और मोहरूप से प्रकट गुणोंको मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ, मूढ़ हूँ, पण्डित हूँ, इस प्रकार मानता हुआ भोगता है| जन्म का कारण अविद्या है तो भी भोगे जाते हुए सुख-दुःख और मोहरूप गुणों में जो आसक्त हो जाना है -- तद्रूप हो जाना है, वह जन्मरूप संसार का प्रधान कारण है| वह जैसी कामना वाला होता है वैसा ही कर्म करता है| गुणों का सङ्ग ही अर्थात् गुणोंमें जो आसक्ति है वही इस भोक्ता पुरुष के अच्छी-बुरी योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है| अच्छी और बुरी योनियों का नाम सदसत् योनि है| उनमें जन्मों का होना सदसद्योनिजन्म है| इन भोग्यरूप सदसद्योनिजन्मों का कारण गुणोंका सङ्ग ही है| अथवा संसारपद का अध्याहार करके यह अर्थ कर लेना चाहिये कि अच्छी और बुरी योनियों में जन्म लेकर गुणों का सङ्ग करना ही इस संसार का कारण है| देवादि योनियाँ सत् योनि हैं और पशु आदि योनियाँ असत् योनि हैं| प्रकरण की सामर्थ्य से मनुष्ययोनियों को भी सत् असत् योनियाँ मानने में (किसी प्रकारका) विरोध नहीं समझना चाहिये| कहनेका तात्पर्य यह है कि प्रकृति में स्थित होना रूप अविद्या और गुणोंका सङ्ग -- आसक्ति ये ही दोनों संसारके कारण हैं और वे छोड़ने के लिये ही बतलाये गये हैं। गीताशास्त्र में इनकी निवृत्ति के साधन संन्यास सहित ज्ञान और वैराग्य प्रसिद्ध हैं|
(साभार: श्री हरिकिशन दास गोयनका द्वारा किए गए हिन्दी में अनुवाद पर आधारित)
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