मन पर नियंत्रण और गीता का कर्मयोग ---
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मेरा ही नहीं, हम सब का 'मन' बड़ा भयंकर उत्पाती (खुराफ़ाती) है, जिसे स्थायी रूप से अब नियंत्रित करना ही होगा। यह कार्य कैसे सम्पन्न करें? इस विषय पर इस लेख में विचार करते है। साथ साथ संक्षेप में यह भी विचार करते हैं कि गीता का कर्मयोग क्या है? क्योंकि कर्मयोग और मन पर नियंत्रण -- दोनों एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुये हैं।
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मन जब तक मेरा स्वामी था, और मैं उसका दास; तब तक मेरे जीवन में उत्पात ही उत्पात (खुराफ़ात) हुये, कोई भला काम नहीं हुआ। अब स्थिति बदल गई है -- मन मेरा दास है और मैं उसका स्वामी हूँ।
इस शरीर की वृद्धावस्था के कारण मुझे स्मृति-दोष होने लगा है। और चाहे कुछ भी भूल जाऊँ, लेकिन परमात्मा को न भूलूँ, इसके लिए भगवान वासुदेव की कृपा से मन को सफलता पूर्वक प्रशिक्षित कर रहा हूँ। श्रीभगवान कहते हैं --
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६:३५॥"
अर्थात् -- "हे महबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है॥"
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यह बात तो समझी हुई थी कि मन बड़ा चञ्चल और अति कठिनता से वश में होने वाला है। लेकिन भगवान की विशेष कृपा से अब यह समझ में आने लगा है कि अपनी चित्तभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृत्ति करने से, और दृष्ट तथा अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन के अभ्यास द्वारा उत्पन्न हुए अनिच्छा रूप वैराग्य से चित्त के विक्षेप को रोका जा सकता है।
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चित्त का विक्षेप रुक जाएगा तो अज्ञान का आवरण भी दूर हो जाएगा। इसी के लिए ध्यान-साधना की जाती है। पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना (चित्तवृत्तिनिरोधः) योग है, अर्थात् मन को इधर-उधर भटकने न देकर केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना योग है।
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गीता के उपदेश बड़े विलक्षण हैं। गीता में श्रीभगवान कहते हैं --
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२:४८॥"
अर्थात् -- "हे धनंजय, आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है॥"
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समभाव की सिद्धि के लिए गीता का कर्मयोग आवश्यक है। ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हों -- इस भाव का त्याग कर के, ईश्वर को कर्ता बना कर और स्वयं निमित्त मात्र बन कर, सारे कर्म फलतृष्णारहित सम्पन्न करने को "कर्मयोग" कहते हैं। इस से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। अन्तःकरण की शुद्धि से ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञानप्राप्ति को ही सिद्धि कहते हैं, और ज्ञानप्राप्ति का न होना ही असिद्धि है। ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर अर्थात् दोनों को तुल्य समझकर कर्म करना ही समत्व है। भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार इसी को योग कहते हैं।
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मैंने अपने उत्पाती (खुराफ़ाती) मन को आज ही आदेश दिया है कि ब्रह्ममुहूर्त में उठते ही नित्य प्रातः कम से कम दो घंटों तक भगवान का ध्यान कर के दिन का आरंभ करो; और रात्रि को सोने से पूर्व भी कम से कम दो घंटों तक भगवान का ध्यान कर के ही जगन्माता की गोद में एक शिशु की तरह सो जाओ।
मन इस आदेश का पालन करे -- यह सुनिश्चित करना मेरा काम है, जो मुझे करना ही पड़ेगा। कोई विकल्प नहीं है।
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ॐ तत्सत् !! महादेव महादेव महादेव !!
कृपा शंकर
११ दिसंबर २०२२
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