Monday 16 September 2024

इस सृष्टि में सबसे अधिक दुर्लभ क्या है? ---

 सर्वप्रथम हम अपने निज जीवन में भगवान को प्राप्त करें, फिर उस चेतना में स्थित होकर संसार के अन्य कार्य करें। भूतकाल की विस्मृति हो। कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान निरंतर होता रहे।

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(प्रश्न):--- इस सृष्टि में सबसे अधिक दुर्लभ क्या है?
(उत्तर):- यह मैं अब तक के अपने निज अनुभव से लिख रहा हूँ कि इस सृष्टि में सबसे अधिक दुर्लभ तो भगवान के प्रति परमप्रेम यानि अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति है। गीता में इसी के बारे में भगवान कहते हैं --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् -- अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
(Unswerving devotion to Me, by concentration on Me and Me alone, a love for solitude, indifference to social life.)
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आचार्य शंकर ने अपने गीता भाष्य में इस श्लोक पर जो लिखा है, उसका अनुवाद इस प्रकार है --
"ईश्वर में अनन्ययोग से, यानि एकत्वरूप समाधियोग से अव्यभिचारिणी भक्ति। भगवान वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है, अतः वे ही हमारी परमगति हैं। इस प्रकार की जो निश्चित अविचल बुद्धि है, वही अनन्य योग है।
उससे युक्त होकर भजन करना ही कभी विचलित न होनेवाली अव्यभिचारिणी भक्ति है। वह भी ज्ञान है।
विविक्तदेशसेवित्व -- एकान्त पवित्र देश सेवन का स्वभाव। जो देश स्वभाव से पवित्र हो या झाड़ने-बुहारने आदि संस्कारों से शुद्ध किया गया हो, तथा सर्प व्याघ्र आदि जन्तुओं से रहित हो; ऐसे वन, नदी तीर या देवालय आदि विविक्त (एकान्त पवित्र) देश को सेवन करनेका जिसका स्वभाव है, वह विविक्तदेशसेवी कहलाता है। उसका भाव विविक्तदेशसेवित्व है, क्योंकि निर्जन पवित्र देश में ही चित्त प्रसन्न और स्वच्छ होता है। इसलिये विविक्तदेश में आत्मादि की भावना प्रकट होती है। अतः विविक्त देश सेवन करने के स्वभाव को ज्ञान तथा जनसमुदाय में अप्रीति कहा जाता है। यहाँ विनयभावरहित संस्कारशून्य प्राकृत पुरुषों के समुदाय का नाम ही जनसमुदाय है। विनययुक्त संस्कारसम्पन्न मनुष्यों का समुदाय जनसमुदाय नहीं है, क्योंकि वह तो ज्ञानमें सहायक है। प्राकृत जनसमुदाय में प्रीति का अभाव ज्ञानका साधन होने के कारण ज्ञान है।"
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उपरोक्त श्लोक पर हजारों स्वनामधन्य महान भाष्यकारों ने अपने अपने भाष्य लिखे है। सभी का सार यह है कि भगवान की अभीप्सा के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। भगवान हमसे हमारा शत-प्रतिशत प्रेम मांगते हैं, वहाँ ९९.९९% भी नहीं चलेगा। भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार की चाहत को भगवान ने "व्यभिचार" की संज्ञा दी है। महाभारत के वनपर्व में भगवान श्रीकृष्ण ने महाराजा युधिष्ठिर को तंडि ऋषि कृत शिव सहस्त्रनाम का उपदेश दिया है, जो उन्हें महर्षि उपमन्यु ने दिया था। उसमें भी एक स्थान पर "अव्यभिचारिणी भक्ति" का उल्लेख है।
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स्वयं में भगवान को नमन करता हुआ मैं इस लेख का समापन करता हूँ। इस विषय पर और लिखने की आवश्यकता अब मुझे नहीं है।
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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ब्रह्मानंदम् परम सुखदम् केवलं ज्ञान मूर्तिम्।
द्वन्द्वातीतं गगन सदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।।
एकं नित्यं विमलं चलम् सर्वधीसाक्षी भूतम्।
भावातीतं त्रिगुण रहितं सद्गुरुं तम् नमामि।। (गुरुगीता)
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सार की बात यह है कि सर्वप्रथम हम अपने निज जीवन में भगवान को प्राप्त करें, फिर उस चेतना में स्थित होकर संसार के अन्य कार्य करें। भूतकाल की विस्मृति हो। कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान निरंतर होता रहे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ सितंबर २०२३

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