Monday 16 September 2024

मेरा स्वधर्म ही सनातन है ---

मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ, और आत्मा का स्वधर्म है -- "निरंतर परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, और निज जीवन में परमात्मा की सर्वोच्च व सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति।" यही सनातन है, और यही मेरा धर्म है।

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गीता के सांख्ययोग मे भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि है --"ब्राह्मी स्थिति", जिसमें मनुष्य निरंतर परमात्मा की चेतना में रहता है।
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
भावार्थ - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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उपर्युक्त ब्राह्मी अवस्था, ब्रह्म में होनेवाली स्थिति है। इसमें केवल ब्रह्म रूप से स्थित हो जाना है। इस स्थिति को पाकर मनुष्य फिर मोहित नहीं होता। यह स्थिति वीतराग और स्थितप्रज्ञ महात्माओं को ही प्राप्त होती है। हमें स्वयं को ही वीतराग व स्थितप्रज्ञ महात्मा होना पड़ेगा, तभी हम ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर सकेंगे। भगवान की कृपा होगी तो वे सीधे ही हमारी पदोन्नति भी कर सकते हैं।
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भगवान कह चुके हैं कि --
"आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥२:७०॥"
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति॥ २:७१॥"
अर्थात् --
"जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में (अनेक नदियों के) जल (उसे विचलित किये बिना) समा जाते हैं? वैसे ही जिस पुरुष के प्रति कामनाओं के विषय उसमें (विकार उत्पन्न किये बिना) समा जाते हैं? वह पुरुष शान्ति प्राप्त करता है? न कि भोगों की कामना करने वाला पुरुष॥"
"जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित, ममभाव रहित और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त करता है॥"
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इसके पूर्व 38वें श्लोक में भगवान कह चुके है --
"सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥२:३८॥"
अर्थात् -- । सुख-दु:ख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ; इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा॥
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जीवन में हमारे समस्त दुखों का कारण अहंकार और उससे उत्पन्न ममभाव स्वार्थ और असंख्य कामनायें हैं। अहंकार और स्वार्थ को पूर्णरूप से परित्याग करके वैराग्य का जीवन जीना वास्तविक संन्यास है जिससे हम अपने पूर्ण दिव्य स्वरूप की अनुभूति में रह सकते हैं।
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आचार्य शंकर के शब्दों में वह पुरुष जो सब कामनाओं को त्यागकर जीवन में सन्तोषपूर्वक रहता हुआ शरीर धारणमात्र के उपयोग की वस्तुओं में भी ममत्व भाव नहीं रखता, न ज्ञान का अभिमान करता है, ऐसा ब्रह्मवित् स्थितप्रज्ञ पुरुष -- निर्वाण (शान्ति) को प्राप्त करता है, जहाँ संसार के सब दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति होती है। संक्षेप में ब्रह्मवित् ज्ञानी पुरुष ब्रह्म ही बन जाता है।
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अब करना क्या है ??? ---
सामने परमात्मा रूपी अथाह जलराशि है। आँखें बंद कर, नाक पकड़ कर, बिना कुछ सोचे-समझे, किन्तु-परंतु आदि सब कुछ को भुला कर, उस अथाह जलराशि मे छलांग लगा लो। जो होगा सो देखा जाएगा। गलती से भी पीछे मुड़कर मत देखना। आर या पार। या तो परमात्मा की ही प्राप्ति होगी या फिर यह शरीर ही रहेगा। आर-पार की जोखिम लेनी होगी, तभी भगवान मिलेंगे। मुफ्त में कुछ नहीं मिलता। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। भगवान भी निःशुल्क नहीं मिलते।
लेकिन मेरे सलाह यही है कि एक बार किन्हीं श्रौत्रीय ब्रहमनिष्ठ महापुरुष से परामर्श कर उनका आशीर्वाद और मार्गदर्शन अवश्य प्राप्त कर लें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ सितंबर २०२४

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