साधकों के लिए मध्यरात्री की तुरीय संध्या अत्यधिक महत्वपूर्ण है, विशेषकर उनके लिए जो क्रियायोग व श्रीविद्या की साधना करते हैं।
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यदि मध्यरात्रि की संध्या नहीं भी कर सको तो रात्रि में सोने से पूर्व ईश्वर का तब तक गहनतम ध्यान कर के ही सोइये, जब तक ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति न हो जाये। शरीर चाहे कितना भी थका हुआ हो, रात्रि को तब तक गहनतम ध्यान करना है जब तक ईश्वर की अनुभूति न हो जाये। शरीर के साथ चाहे जो भी होना हो वह हो जाये। जब तक प्रारब्ध में जीवन लिखा है मृत्यु नहीं हो सकती। जब मृत्यु ही होनी है तब इसे कोई रोक भी नहीं सकता। इस नारकीय जीवन को जीने से तो ईश्वर की चेतना में देहत्याग का विकल्प अधिक कल्याणकारी है। एक बार तो शरीर विरोध करेगा, लेकिन बाद में यह भी सहयोग करने लगेगा।
हो सकता है यह बात कुछ लोगों को अच्छी न लगे। मैं उन्हें नहीं समझा सकूँगा। जो योगमार्ग के पथिक हैं, वे इसे समझ जाएँगे। जिन्हें इसी जीवन में परमात्मा को पाना है, उन्हें यह करना ही होगा। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ सितंबर २०२४
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