सर्वप्रथम भगवान हमारा आत्म-समर्पण सचेतन रूप से बिना किसी शर्त के पूर्ण रूप से स्वीकार करें, और स्वयं को हमारे में सचेतन पूर्ण रूप से व्यक्त करें। बाकी की बातें जैसे धर्म-अधर्म और पाप-पुण्य --- ये सब गौण, महत्वहीन व छलावा मात्र हैं। इस छलावे में अब और नहीं आ सकते। वे कब तक छिपेंगे ?? प्रकट तो उनको होना ही पड़ेगा। आज नहीं तो कल। लेकिन अब और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकते। हमें उनकी आवश्यकता अभी और इसी समय है।
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स्वर्ग -- एक प्रलोभन है, और नर्क -- एक भय है। इसी तरह पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म भी हमारे और भगवान के मध्य एक बाधा यानि अवरोध है। इन सब से ऊपर तो उठना ही होगा, जिसके बिना काम नहीं चलेगा। तब ही दिखाई देगा कि इन पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म रूपी पर्वतों के उस पार क्या है। इन से पार तो जाना ही पड़ेगा। तब तक हम अपनी साधना नहीं छोड़ेंगे। वास्तव में अपनी साधना भगवान स्वयं ही तो कर रहे हैं। हमारा साधक होने का भाव एक मिथ्या प्रलोभन और छल है। साधक, साधना और साध्य वे स्वयं हैं। दृष्टि, दृष्टा और दृश्य भी वे स्वयं हैं।
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पुनश्च: ----- कल्पना कीजिये कि किसी ने हमारे सिर पर जलते हुए कोयलों से भरी परात रख दी है। उस समय की पीड़ा से मुक्त होने के लिए हम कैसे तड़प उठते हैं; वैसी ही तड़प हमारे हृदय में भगवान को पाने की हर समय हो।
न स्त्री न पुरुष, न पापी न पुण्यात्मा, हम शाश्वत आत्मा हैं जो परमात्मा की एक छवि मात्र है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ सितंबर २०२४
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