जिस चेतना में आज ब्रह्ममुहूर्त में उपरोक्त शब्द ध्यान में आये, उस चेतना में किसी भी तरह के विचारों को व्यक्त करने हेतु शब्द रचना संभव ही नहीं है। फिर भी एक विशेष प्रयोजन हेतु भगवान के अनुग्रह से उपरोक्त पंक्ति ध्यान में आयी। यह भगवान का अनुग्रह ही था क्योंकि -- "दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥"
इतना पढ़ा-लिखा तो मैं नहीं हूँ कि अति प्रभावशाली भाषा में शब्द-रचना कर सकूँ। लेकिन मेरे जैसा एक अनपढ़ व्यक्ति जो लिख सकता है, वही लिख रहा हूँ।
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"हनुमान" और "हनुमत" शब्द को समझने के लिए सब तरह के "मान" यानि अहंभाव से मुक्त होना पड़ेगा। अहंभाव से मुक्त हुये बिना न तो उनको समझ सकते है, और न ही उनके बीजमंत्र "हं" को। अहंभाव से युक्त रहते हुए -- तत्व की बात समझ में नहीं आयेगी। यह साधना का विषय है जो उनकी कृपा से ही हो सकती है।
इसे समझना भी बहुत आवश्यक है क्योंकि हमें निज जीवन में राम जी को प्राप्त करना है। इसके लिए एक उच्चतर से भी अधिक उच्चतर चेतना में स्थित होना होगा जो उनके अनुग्रह के बिना संभव नहीं है -- "राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे"। यहाँ पैसारे का अर्थ प्रवेश है, न कि रुपया पैसा। यह कोई सरकारी कार्यालय नहीं है, जहाँ घूस में पैसा खिलाये बिना कोई आज्ञा नहीं होती। यहाँ किसी का रुपया-पैसा नहीं, पूर्ण प्रेम और समर्पण ही चलता है।
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अब रही बात "जपत निरंतर" की। गीता मे भगवान ने स्वयं को "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि" कहा है। पूरा श्लोक इस प्रकार है --
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥१०:२५॥"
अर्थात् -- "मैं महर्षियों में भृगु और वाणी (शब्दों) में एकाक्षर ओंकार हूँ। मैं यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों (अचलों) में हिमालय हूँ॥"
"Of the great seers I am Bhrigu, of words I am Om, of offerings I am the silent prayer, among things immovable I am the Himalayas."
आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में उपरोक्त श्लोक का अर्थ किया है -- "महर्षीणां भृगुः अहम्। गिरां वाचां पदलक्षणानाम् एकम् अक्षरम् ओंकारः अस्मि। यज्ञानां जपयज्ञः अस्मि। स्थावराणां स्थितिमतां हिमालयः॥"
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अभी जप यज्ञ कैसे करें? इसे समझाना मेरी अति सीमित और अति अल्प क्षमता से परे है। इसके लिए किसी ब्रह्मज्ञ आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त करें।
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ॐ परब्रह्मपरमात्मने नमः॥ श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०२३
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