यह बात मैंने आज तक बहुत अधिक गोपनीय रखी थी और आज तक किसी को भी नहीं बतायी थी। भगवान गणेश जी की प्रेरणा से ही आज इसे लिख रहा हूँ। नित्य अपनी व्यक्तिगत साधना से पूर्व, मैं गणेश जी का साकार रूप में मूलाधारचक्र में जप और ध्यान करता हूँ। इससे मुझे एक अवर्णनीय अति दिव्य अनुभूति होती है, जिसे व्यक्त करने में मैं असमर्थ हूँ।
गणेश जी का वह विग्रह एक अति तीब्र प्रकाश और प्रणव अक्षर के रूप में परिवर्तित होकर सुषुम्ना की ब्रह्म उपनाड़ी में स्थित सभी सूक्ष्म चक्रों को भेदते हुए सहस्त्रारचक्र में भगवान विष्णु के चरण कमलों का स्पर्श कर, सारे ब्रह्मांड में ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में व्याप्त हो जाता है। उस ज्योतिर्मय ब्रह्म का ही मैं अजपा-जप द्वारा ध्यान करता हूँ, और उसमें से निःसृत हो रहे प्रणव मंत्र का तेलधारा की तरह श्रवण करता हूँ। "मैं" का कोई अस्तित्व नहीं रहता, भगवान अपनी साधना स्वयं करते हैं। ब्रह्मांड में व्याप्त प्रणव का श्रवण मुख्य रूप से आनंददायक है।
पहले मुझे कई बार हनुमान जी की साकार रूप में अनुभूतियाँ होती थीं, जो आजकल तो बिल्कुल भी नहीं हो रही हैं। मैं कुछ भी अपने ऊपर नहीं थोपता। जो हो रहा है वह हो रहा है, मैं तो एक साक्षीमात्र हूँ। एकमात्र कर्ता भगवान स्वयं हैं।
भगवान की प्रेरणा से ही ये शब्द लिखे गए हैं, मेरा इसमें कोई श्रेय नहीं है। यही मेरी साधना है। आप सभी का जीवन भगवान को समर्पित होकर कृतार्थ हो, और आप कृतकृत्य हों।
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"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥"
श्रीरामचन्द्रचरणोशरणम् प्रपद्ये !! श्रीमते रामचंद्राय नमः !!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ सितंबर २०२४
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