शरणागति .....
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भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समस्त
ज्ञान देकर अंत में परम गोपनीय से गोपनीय, और गूढ़तम से गूढ़ रहस्य बताते हैं
कि सम्पूर्ण धर्मों के आश्रय का त्याग करके एक मेरी शरण में आ जा| मैं
तुम्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर|
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः " ||गीता 18/66||
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गीता का सार अठारहवाँ अध्याय है और अठारहवें अध्याय का भी सार उसका 66 वाँ
श्लोक है| इस श्लोक में भगवान् ने सम्पूर्ण धर्मों का त्याग करके अपनी शरण
में आने की आज्ञा दी है, जिसे अर्जुन ने ‘करिष्ये वचनं तव’ कहकर स्वीकार
किया और अपने क्षात्र-धर्म के अनुसार युद्ध भी किया|
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यहाँ जिज्ञासा होती है कि सम्पूर्ण धर्मों का त्याग करने की जो बात भगवान् ने कही है, उसका तात्पर्य क्या है ?
दूसरी बात, जब अर्जुन ‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (गीता 2/7)
कहकर भगवान् की शरण हुए तो लगता है कि उस शरणागति में कुछ कमी रही होगी
तभी उस कमी की पूर्ति अठारहवें अध्याय के 66वें श्लोक में हुई है|
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अब प्रश्न यह उठता है कि शरणागति क्या है ?
कैसे शरणागत हों ?
कैसे समर्पित हों ?
क्या सिर्फ हाथ जोड़कर सर झुकाने ही शरणागति प्राप्त हो सकती है ? मन तो
पुनश्चः कुछ क्षणों में संसार की वासनाओं और अहंकार में डूब जाएगा| ऐसा
क्या उपाय है जिससे स्थायी शरणागति प्राप्त हो?
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‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ..... भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण
धर्मों का आश्रय, धर्म के निर्णय का विचार भी छोड़कर अर्थात् क्या करना है
और क्या नहीं करना है, इसको छोड़कर केवल एक मेरी ही शरण में आ जा|
स्वयं भगवान् के शरणागत हो जाना ..... यह सम्पूर्ण साधनों का सार है| इसमें
शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे ..... पतिव्रता
स्त्री का अपना कोई काम नहीं रहता| वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के
लिये ही करती है| वह घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले
शरीर को भी अपना नहीं प्रत्युत पतिदेव का मानती है, पति के गोत्र में ही
अपना गोत्र और जाति मिला देती है और पति के ही घर पर रहती है, उसी प्रकार
शरणागत भक्त भी शरीर को लेकर माने जाने वाले गोत्र, जाति, नाम आदि को
भगवान् के चरणों में समर्पित करके निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो
जाता है|
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हमारी जाति वही है जो परमात्मा की है| यह भी कह सकते
हैं कि हमारी जाति अच्युत है| हमारा गौत्र और धर्म भी वही है जो परमात्मा
का है| अपना कहने को हमारा कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी है वह परमात्मा का
है|
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यह तभी संभव है जब हमारे ह्रदय में परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम यानि पूर्ण भक्ति हो| रामचरितमानस में कहा गया है ....
"बार बार बर माँगऊ हरषि देइ श्रीरंग|
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग||"
"अनपायनी" शब्द का अर्थ है ..... "शरणागति" |
महान तपस्वी, योगी, देवों के देव भगवान शिव भी झोली फैलाकर मांग रहे हैं,
हे मेरे श्रीरंग, अर्थात श्री के साथ रमण करने वाले नारायण, मुझे भिक्षा
दीजिए|
भगवान बोले, क्या दूं?
तपस्वी बने शिव बोले, आपके चरणों का सदा अनुपायन करता रहूँ| अर्थात आपके चरणों की शरणागति कभी न छूटे|
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ऐसी ही शरणागति की महिमा है देवता भी इससे अछूते नहीं हैं|
शरणागति का प्रसंग वेदों में, स्मृतियों में, पुराणों में, और मीमांसा में भी आयाहै|
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अर्जुन तब तक दुखी रहे, जब तक भगवान का प्रतिपादन तर्क- वितर्क से करते
रहे| जब शरणागति की महिमा समझ ली तो बिलकुल शान्त हो गए, जैसे दूध के ऊपर
पानी के छींटे देने से झाग बैठ जाती है|
तमाम सन्तों को शांति तभी मिली, जब वे शरणागत हुए|
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जहाँ तक मुझे मेरी सीमित अल्प बुद्धि से समझ में आया है,
शरणागति है ..... पूर्ण भक्ति के साथ गहन ध्यान साधना द्वारा अपने अहंकार यानि अपनी पृथकता के बोध को परमात्मा में समर्पित कर देना|
परमात्मा का वाचक ओंकार यानि ॐ है| ओंकार पर गुरु प्रदत्त विधि से ध्यान
..... ब्रह्मरन्ध्र में "ॐ" ध्वनि के सागर में स्वयं को विलीन कर देना है|
सारे उपनिषद् ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं| भगवान श्री कृष्ण ने गीता
में --- प्रयाणकाल में भ्रूमध्य में ओंकार का स्मरण करते हुए देह त्याग
करने की महिमा बताई है| मध्यकाल के संतों का सारा साहित्य इस साधना की
महिमा से भरा पड़ा है|
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आप सभी निजात्मगण को शुभ कामनाएँ और और प्रेम ! आप सब में परमात्मा को प्रणाम !
ॐ गुरू ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ ||