Saturday 9 July 2016

पलटू सोइ सुहागनी, हीरा झलके माथ .....

पलटू सोइ सुहागनी, हीरा झलके माथ .....
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संत पलटूदास जी कह रहे हैं कि सुहागन वो ही है जिसके माथे पर हीरा झलक रहा है| अब यह प्रश्न उठता है कि सुहागन कौन है और माथे का हीरा क्या है ?
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वह हीरा है ब्रह्मज्योति का जो हमारे माथे पर कूटस्थ में देदीप्यमान है|
सुहागन है वह जीवात्मा जो परमात्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित है|
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"मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ .....
जब पिउ लागै हाथ, नीच ह्वै सब से रहना |
पच्छापच्छी त्याग उंच बानी नहिं कहना ||
मान-बड़ाई खोय खाक में जीते मिलना |
गारी कोउ दै जाय छिमा करि चुपके रहना ||
सबकी करै तारीफ, आपको छोटा जान |
पहिले हाथ उठाय सीस पर सबकी आनै ||
पलटू सोइ सुहागनी, हीरा झलकै माथ |
मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ ||"
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परमात्मा को पाना है, तो उसी मात्रा में परमात्मा मिलेगा जिस अनुपात में हमारा मन सूक्ष्म होगा| सूक्ष्म यानी अहंकार के मिट जाने की दिशा में यात्रा|
जिस दिन मन पूरा शून्य हो जाता है, उसी से दिन हम परमात्मा हैं| फिर प्रेमी में और प्यारे में फर्क नहीं रह जाता, भक्त और भगवान में फर्क नहीं रह जाता|
फर्क एक शांत झीने से धुएँ के पर्दे का है, मगर हम अपने अंतर में कोलाहल रूपी बड़ा मोटा लोहे का पर्दा डाले हुए हैं, और उसमें बंदी बनकर चिल्लाते हैं कि भगवान तुम कहाँ हो| उस कोलाहल को शांत करना पड़ेगा|
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जब गंगाजल मिल सकता हो तो तुम क्यों किसी गंदी नाली का जल पीते हो?
नृत्य ही देखना हो अपने अंतर में तो मीरां का नृत्य देखो, भगवन नटराज का नृत्य देखो|
गीत ही सुनना हो तो किसी भक्त कवि का गीत सुनो|
जब तक मनुष्य अपने अहंकार अर्थात अपनी 'मैं' को नहीं त्यागता तब तक उसे परमात्मा कि प्राप्ति नहीं हो सकती|
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हमें सुहागन भी बनना है और माथे पर हीरा भी धारण करना है| हमारा सुहाग परमात्मा है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

1 comment:

  1. साभार : Arun Upadhyayजी : सन्त पलटूदास जी ने वैदिक मन्त्र की आध्यात्मिक व्याख्या की है। इसका आधिदैविक अर्थ है कि हमारे ऊपर गोलाकार उलटे कटोरे जैसे आकाश में सूर्य अपनी ७ प्रकार की किरणों से ऊर्जा दे रहा है। आध्यात्मिक अर्थ निरुक्त (१२/३८) में तथा बृहदारण्यक उपनिषद् में है जो नीचे दिया जाता है।
    तिर्यग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नो यस्मिन्यशो निहितं विश्वरूपम्।
    तदासत ऋषयः सप्त साकं ये अस्य गोपा महतो बभूवुः॥ (अथर्व १०/८/९)
    =एक (तिर्यग् बिअः) तिरछे मुख और (ऊर्ध्व बुध्नः) ऊपर के पेन्दे वाला (चमसः) चमस है। (तस्मिन्) उसमें (विश्वरूपं) ’विश्वरूप’ नाना रूप (यशः) भूतिमान् बल (निहितम्) रखा है। (तत्) वहां, उस शक्तिमान् आत्मा में (सप्त ऋषयः) ७ ऋषि द्रष्टा, ७ शिर्ष गत प्राण (साकम्) एकत्र होकर (आसत) विराजते हैं। (ये) जो (अस्य महतः) इस महान् आत्मा के (गोपाः) रक्षक या द्वारपाअ के समान उसको आवरण किये हुये या घेरे हुये (बभूवुः) हैं।
    शतपथ ब्राह्मण के बृहदारयक उपनिषद् (२/२/३-४) में-अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वब्ध्न इतीन्द्रं तच्छिर एव ह्यर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपं प्राणा वै यशो विश्वरूपं तस्यासत ऋषयः सप्त तीरे। प्राणा वा ऋषयः प्राणानेतदाह ----॥३॥ इमावेव गोतम भरद्वाजावयमेव गोतमोऽयं भरद्वाज इमावेव विश्वामित्रजमदग्नी अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरिमावीव् वसिष्ठकश्यपावयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रिर्वाचा ह्यन्नमद्यतेऽत्तिर्ह वै नामैतद्यदत्रिरिति सर्वस्यात्ता भवति सर्वमस्यान्नं भवति य एवं वेद॥४॥
    = यह सिर वह चमस या पात्र है जिसका बिल-मुख पासे पर तिरछे खुला है और पेन्दा-कपाल ऊपर है। उसमें यशोरूप प्राण रखे हैं। उस पात्र के किनारे-किनारे ७ ऋषि, ७ प्राण, २ कान-गोतम और भरद्वाज, २ चक्षु-विश्वामित्र और जमदग्नि, २ नासिका-वसिष्ठ और कश्यप और मुख अग्नि-ये ७ ऋषि विराजते हैं, जो इनको गोपा = पहरेदार जैसे घेरे हैं।

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