Saturday 9 July 2016

रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते......

रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते......
(शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता) ...
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रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते।
= शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता।

तन्त्र में-
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते।। (तन्त्रराज तन्त्र)
= पिये और बार बार पिये जब तक जमीन पर न गिरे। उठ कर जो फिर से पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
यहां भूमि तत्त्व के मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी के सहस्रार में उठ कर परमशिव के साथ विहार करने का वर्णन है, जिसका शंकराचार्य ने सौन्दर्य लहरी, श्लोक 9 में वर्णन किया है-
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं,
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि,
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कुलपथम्,
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि।।
जो पराशक्ति (कुण्डलिनी) मूलाधार में पृथ्वी रूप में है, मणिपूर (संहार क्रम में, स्वाधिष्ठान के बदले) में क (जल) रूप में, स्वाधिष्ठान में अग्नि रूप में, हृदय (के अनाहत चक्र) में मरुत् रूप में, तथा उसके ऊपर (विशुद्धि चक्र में) आकाश रूप में, तथा भ्रूमध्य (के आज्ञा चक्र) में मन रूप से स्थित है, वह कुलपथ (बांस जैसे सुषुम्ना मार्ग) को भेदते हुये सहस्रार पद्म में पति (परमेश्वर) के साथ रह कर विहार करती है।
विहार के बाद कुण्डलिनी नीचे भूमि तत्त्व के मूलाधार में वापस आती है। बार बार उसे सहस्रार तक लाकर परमेश्वर से मिलन कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता।

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