"भव सागर" एक मानसिक सृष्टि है, भौतिक नहीं
कुछ वर्षों पहले तक मैं गुरु महाराज से प्रार्थना करता था -- "गुरु रूप ब्रह्म, उतारो पार भवसागर के।" एक दिन पाया कि भवसागर तो कभी का पार हो गया। कब हुआ? कुछ पता ही नहीं चला। मन से बाहर भवसागर का कोई अस्तित्व नहीं है। हम जिस दिन अपना मन भगवान को अर्पित कर देते हैं और भगवान के अलावा कुछ भी और नहीं सोचते, उसी दिन भवसागर पार हो जाता है। रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में भगवान राम ने भवसागर को पार करने की विधि बताई है --
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥"
अर्थात् - यह मनुष्य का शरीर भवसागर (से तारने) के लिए बेड़ा (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है। सद्गुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं। इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं॥
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हमारी नौका (हमारी देह और अन्तःकरण) जिस पर हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं, का कर्णधार (Helmsman) जब हम अपने सद्गुरु रूपी ब्रह्म को बना देते हैं (यानि समर्पित कर देते हैं), तब वायु की अनुकूलता (परमात्मा की कृपा) तुरंत हो जाती है। जितना गहरा हमारा समर्पण होता है, उतनी ही गति नौका की बढ़ जाती है, और सारे छिद्र भी करूणावश परमात्मा द्वारा ही भर दिए जाते हैं।
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कभी कभी कुछ काल के लिए हम अटक जाते हैं, पर अति सूक्ष्म रूप से गुरु महाराज बलात् धक्का मार कर फिर आगे कर देते हैं। धन्य हैं ऐसे सद्गगुरु जो अपने शिष्यों को कभी भटकने या अटकने नहीं देते, और निरंतर चलायमान रखते हैं। अपेक्षित सारा ज्ञान और उपदेश भी वे किसी ना किसी माध्यम से दे ही देते हैं। अतः भवसागर पार करने की चिंता छोड़ दो और -- ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः यानि ब्रह्मज्ञ होकर केवल ब्रह्म में ही स्थित होने का निरंतर प्रयास करो। यही साधना है, और यही उपासना है। अपनी नौका के कर्ण (Helm) के साथ साथ अपना हाथ भी उनके ही हाथों में सौंप दो, और उन्हें ही संचालन (Steer) करने दो। वे इस नौका के स्वामी ही नहीं, बल्कि नौका भी वे स्वयं ही हैं। इस विमान के चालक ही नहीं, विमान भी वे स्वयं ही हैं।
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ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ॐ शिव ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ अगस्त २०२२
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