Wednesday 31 August 2022

मेरा कोई कर्तव्य नहीं है, मैं जीवनमुक्त और कृतकृत्य हूँ ---

 मेरा कोई कर्तव्य नहीं है, मैं जीवनमुक्त और कृतकृत्य हूँ ---

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जिन बंधनों से मैं बंधा हुआ हूँ, वे शीघ्र ही टूटने वाले और अस्थायी हैं। इस समय तो अस्थायी रूप से मैं इस हाड-मांस के शरीर से जुड़ा हुआ हूँ। लेकिन यह अधिक समय तक चलने वाली बात नहीं है। भगवान ने दो विपरीत दृष्टिकोणों से अपने इस संसार की अत्यंत कटु से कटु वास्तविकताओं को प्रत्यक्ष रूप से दिखाया है, जिन्हें मैं अभी भी देख रहा हूँ। मनुष्य जिनकी कल्पना ही कर सकता है, वैसे अति अति दुर्लभ अलौकिक अनुभव मुझे प्राप्त हुए हैं। जीवन के इतने गहन और कटु अनुभवों के पश्चात अंततः मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूँ कि --
"जो व्यक्ति परमात्मा को पूर्णतः समर्पित हो जाता है, उसका कोई लौकिक कर्तव्य बाकी नहीं रहता, वह कृतकृत्य और मुक्त है।"
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परमात्मा को पूरी तरह समर्पित हो जाना हमारा सर्वोपरी कर्तव्य है। ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व ही पूरी मनुष्यता के लिए एक वरदान है। वह पृथ्वी पर चलता-फिरता देवता है। जहाँ भी उसके चरण पड़ते हैं, वह भूमि धन्य और सनाथ हो जाती है।
अपनी बात के समर्थन में मैं गीता में भगवान श्रीकृष्ण को उद्धृत करता हूँ ---
"यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३:१७॥"
"नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३:१८॥"
अर्थात् - "परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमने वाला आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रहता॥"
"इस जगत् में उस पुरुष का कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं है और न वह किसी वस्तु के लिये भूतमात्र पर आश्रित होता है॥"
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ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व ही हमारे लिए एक वरदान है। रामचरितमानस के सुंदरकांड में हनुमान जी - सीता जी को कहते हैं --
"बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥
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कृतकृत्य और कृतार्थ -- इन दो शब्दों में सूक्ष्म भेद है। हम कृतकृत्य और कृतार्थ -- दोनों ही एक साथ हो सकते हैं। जो अपना विलय (समर्पण) परमात्मा में कर देते हैं, और परमात्मा में ही निरंतर रमण करते हैं, वे आत्माराम हो जाते हैं --
"यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।"
यह नारद भक्ति सूत्र के प्रथम अध्याय का छठा सूत्र है, जो भक्त की तीन अवस्थाओं के बारे में बताता है। उस परम प्रेम रूपी परमात्मा को पाकर भक्त प्रेमी पहिले तो मत्त हो जाता है, फिर स्तब्ध हो जाता है और अंत में आत्माराम हो जाता है, यानि आत्मा में रमण करने लगता है। शाण्डिल्य सूत्रों में भी इस बात का अनुमोदन किया गया है। जो भी व्यक्ति अपनी आत्मा में रमण करता है उसके लिये "मैं" शब्द का कोई अस्तित्व नहीं होता।
उसके योगक्षेम की चिंता - गीता के अनुसार स्वयं भगवान करते हैं --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् - अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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जिन लोगों में रजोगुण प्रधान होता है, वे सिर्फ कर्मयोग को ही समझ सकते हैं। आजकल के कर्मयोगी दूसरों को अज्ञानी और मूर्ख समझते हैं। भक्ति और ज्ञान को समझना उनके वश की बात नहीं है, फिर भी वे स्वयं को महाज्ञानी समझते हैं।
भक्तियोग और ज्ञानयोग को समझ पाना सतोगुण से ही संभव है।
तमोगुण प्रधान व्यक्ति को तो सिर्फ मारकाट या "जैसे को तैसा" की बात ही समझ में आ सकती है, उससे अधिक कुछ नहीं।
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परमात्मा को मैं उनकी समग्रता में नमन करता हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अगस्त २०२२

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