वृद्धावस्था में जीवन की एक कटु वास्तविकता ---
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निश्चयपूर्वक भगवद्भजन रूपी अवलम्बन के कारण ही हम शास्त्रानुमोदित लक्ष्य पर आगे बढ़ पाते हैं, अन्यथा नहीं। जैसे जैसे भौतिक शरीर की आयु बढ़ती जाती है, वैसे वैसे ही हमारे पूर्व जन्मों व इस जन्म के कुछ आंतरिक कुसंस्कार जागृत होकर हमें स्वयं से दूर ले जाकर अपने अनुसार चलने को विवश करना चाहते हैं। उनसे हमें वास्तविक संघर्ष करना पड़ता है।
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हमारी अंतर्रात्मा हमें स्वयं में यानि ईश्वर में स्थित करना चाहती है, लेकिन कुछ गलत सुप्त नर्कगामी संस्कार जागृत हो कर हमें विपरीत दिशा में चलने के लिए बाध्य करने लगते हैं। हमारे मानस पटल पर हमारे समक्ष आसपास के लोगों के विचार भी दिखाई देने लगते हैं, और यह भी पता चल जाता है कि कौन कौन लोग हमारी मृत्यु की बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन हम असहाय होते हैं, कुछ भी नहीं कर पाते।
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गुरु प्रदत्त साधना ही हमें ऊर्ध्वगामी सन्मार्ग पर ले जा सकती है। कूटस्थ ब्रह्म का निरंतर चैतन्य ही ऊर्ध्वगामी सन्मार्ग है जो हमें परमात्मा की ओर ले जाता है। अपनी चेतना को प्रयासपूर्वक सदा आज्ञाचक्र से ऊपर ही रखो, और भगवान का स्मरण करते रहो। गीता में भगवान स्पष्ट आश्वासन देते हैं ---
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
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अतः चिंता की कोई बात नहीं है। भगवान हमारे साथ हैं। भगवान भी तभी हमारे साथ हैं, जब हम उन्हें अपना परमप्रेम प्रदान करते हैं। गीता, रामचरितमानस आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करते रहो। भगवान का खूब भजन करो। कल्याण होगा। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ अगस्त २०२२
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