Saturday, 8 March 2025

मंदिर में हम भगवान से कुछ मांगने नहीं, उनको समर्पित होने जाते हैं ---

 मंदिरों की संरचना ऐसी होती है जहाँ का वातावरण साधना के अनुकूल होता है, जहाँ जाते ही मन समर्पण और भक्तिभाव से भर जाता है। मंदिर में हम भगवान से कुछ मांगने नहीं, उनको समर्पित होने जाते हैं। यह समर्पण का भाव ही हमारी रक्षा करता है।

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द्वैत-अद्वैत, साकार-निराकार, और सगुण-निर्गुण --- ये सब बुद्धि-विलास की बातें हैं। इनमें कोई सार नहीं है। अपने स्वभाव और प्रकृति के अनुकूल जो भी साधना संभव है, हो, वह अधिकाधिक कीजिये। भगवान को अपना परमप्रेम पूर्ण रूप से दीजिये, यही एकमात्र सार की बात है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
१६ फरवरी २०२५

भगवान का स्मरण हम कैसे, किस रूप में, और कब करें?

 (प्रश्न) : भगवान का स्मरण हम कैसे, किस रूप में, और कब करें?

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(उत्तर) : यह बहुत ही व्यक्तिगत प्रश्न है जो स्वयं से ही प्रत्येक व्यक्ति को पूछना चाहिए। यदि स्वयं पर विश्वास नहीं है तो जिन को हमने गुरु बनाया है, उन गुरु महाराज से पूछना चाहिए। यदि फिर भी कोई संशय है, तो भगवान पर आस्था रखते हुए स्वयं भगवान से ही पूछना चाहिए। इसके लिए श्रीमद्भगवद्गीता का और उपनिषदों का स्वाध्याय स्वयं करें, और जैसा भगवान ने बताया है, वैसे ही करें। किसी भी तरह का कोई भी संशय निज मानस में नहीं रहना चाहिये।
मेरा अनुभव है कि हरेक आध्यात्मिक प्रश्न का उत्तर निश्चित रूप से भगवान से मिलता है। आध्यात्म में कुछ भी अस्पष्ट नहीं है। सब कुछ एकदम स्पष्ट है। मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन॥ ॐ तत्सत्॥
१७ फरवरी २०२५

अजपा-जप --- ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान है

अजपा-जप :--- यह ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान है। वेदों में इसका नाम हंसवती ऋक है, योग-शास्त्रों में यह हंसयोग है, और सामान्य बोलचाल की भाषा में अजपा-जप कहलाता है। हंस नाम परमात्मा का है। कम से कम शब्दों का प्रयोग यहाँ इस लेख में मैं कर रहा हूँ।

प्रातःकाल उठते ही लघुशंकादि से निवृत होकर, रात्रि में शयन से पूर्व, और दिन में जब भी समय मिले, ध्यान के आसन पर सीधे बैठ जाएँ, मेरूदण्ड उन्नत, ठुड्डी भूमि के समानान्तर, दृष्टिपथ भ्रूमध्य में से अनंत की ओर, व मुंह पूर्व या उत्तर दिशा में रखें। भ्रूमध्य में उन्नत साधकों को एक ब्रह्मज्योति यानि ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन होंगे। जिन्हें ज्योति के दर्शन नहीं होते, वे आभास करें कि वहाँ एक परम उज्ज्वल श्वेत ज्योति है। उस ज्योति का विस्तार सारे ब्रह्मांड में कर दें। सारी सृष्टि उस ज्योति में समाहित है, और वह ज्योति सारी सृष्टि में है। वह शाश्वत ज्योति आप स्वयं हैं, यह नश्वर भौतिक देह नहीं।
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अपनी सर्वव्यापकता का ध्यान कीजिये। आप यह शरीर नहीं, वह परम ज्योति हैं। सारा ब्रह्मांड आपके साथ सांसें ले रहा है। जब सांस अंदर जाती है तब मानसिक रूप से सो SSSSSSS का जाप कीजिये। जाव सांस बाहर जाती है तब हं SSSSS का जाप कीजिये।
यह जप आप नहीं, सारी सृष्टि और स्वयं परमात्मा कर रहे हैं। इस साधना का विस्तार ही शिवयोग और विहंगमयोग है। यह साधना ही विस्तृत होकर नादानुसंधान बन जाती है। क्रियायोग में प्रवेश से पूर्व भी इसका अभ्यास अनिवार्य है, नहीं तो कुछ भी समझ में नहीं आयेगा। पुनश्च: कहता हूँ कि "हंस" नाम परमात्मा का है।
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यह लेख केवल परिचयात्मक है। इस अजपा-जप साधना का अभ्यास अन्य कुछ साधनाओं के साथ समर्पित भाव से मैं तो सन १९७९ ई. से कर रहा हूँ। इसका वर्णन अनेक ग्रन्थों में है जिनका स्वाध्याय मैंने किया है। , लेकिन सबसे अधिक स्पष्ट "तपोभूमि नर्मदा" नामक पुस्तक के पांचवें खंड के मध्य में है। वहाँ इसे अति विस्तार से समझाया गया है। गूगल पर ढूँढने से यह पुस्तक मिल जाएगी। यह खंड मैंने गत वर्ष ही पढ़ा था। फिर भी किसी अनुभवी ब्रहमनिष्ठ आचार्य से मार्गदर्शन अवश्य प्राप्त करें। यह साधना ब्रह्मांड के द्वार साधक के लिए खोल देती है। इस लेख में जो लिखा है वह केवल परिचय मात्र है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ फरवरी २०२५
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पुनश्च: -- कुछ गुरु-परम्पराओं में हंसबीज "सोहं" के स्थान पर "हंसः" का प्रयोग होता है। दोनों का फल एक ही है। अङ्ग्रेज़ी में इसका अनुवाद होगा -- "I am He"। यह साधना आध्यात्म में प्रवेश करवाती है, और सभी उन्नत साधनाओं का आधार है। कम से कम शब्दों में जो लिखा जा सकता है वह मैंने यहाँ लिखा है। इससे अधिक जानने के लिए ग्रन्थों का स्वाध्याय करना होगा, या किसी ब्रह्मनिष्ठ महात्मा से उपदेश लेने होंगे। ॐ तत्सत् !!

भारत ही सनातन धर्म है, और सनातन धर्म ही भारत है ---

 भारत ही सनातन धर्म है, और सनातन धर्म ही भारत है। हम अपनी आध्यात्मिक साधना परमात्मा को पूरी तरह समर्पित होने के लिए ही करते हैं। इससे धर्म और राष्ट्र की रक्षा स्वतः ही होती है। यह हमारा सर्वोपरी कर्तव्य और स्वधर्म है।

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अनेक महान आत्माएँ भारत में जन्म लेना चाहती हैं, लेकिन उन्हें सही माता-पिता नहीं मिलते, जिनके यहाँ वे गर्भस्थ हो सकें। युवाओं को इस योग्य होना पड़ेगा कि वे महान आत्माओं को जन्म दे सकें। अनेक महान आत्माएँ भारत में जन्म लेंगी और भारत का उद्धार करेंगी। उसके लिए यह सर्वोपरी आवश्यक है कि हमारा जीवन परमात्मा को पूर्णतः समर्पित हो। इस विषय पर मैं पहले भी अनेक बार लिख चुका हूँ। इसी क्षण से हम परमात्मा के साथ एक हों।
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परमात्मा हैं, इसी समय, हर समय, यहीं पर और सर्वत्र हैं। हम निःस्पृह, वीतराग व स्थितप्रज्ञ होकर ब्राह्मी-स्थिति में निरंतर बने रहें। हम उनके साथ एक हैं। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ फरवरी २०२५

समर्पण ---

 समर्पण ---

यह मन बुद्धि चित्त व अहंकार रूपी अन्तःकरण, ये भौतिक सूक्ष्म व कारण शरीर, अपनी तन्मात्राओं सहित सारी इंद्रियाँ, सारी विद्याएँ, सारा ज्ञान, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, सम्पूर्ण अस्तित्व और पृथकता का समस्त मिथ्या बोध -- परमात्मा को समर्पित है। अब निंदा प्रशंसा शिकायत व आलोचना करने को कुछ भी शेष नहीं रहा है। स्वयं परमात्मा ही यह नौका, इसके कर्णधार, व इसके लक्ष्य हैं। वे ही यह महासागर, उसकी अनंतता व एकमात्र और सम्पूर्ण व्यक्त/अव्यक्त अस्तित्व हैं। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ फरवरी २०२५

परमात्मा के महासागर में वैसे ही तैरिये, जैसे जल की एक बूंद महासागर में तैरती है (द्वैत में अद्वैत की साधना) ---

 

🙏(१) : परमात्मा के महासागर में वैसे ही तैरिये, जैसे जल की एक बूंद महासागर में तैरती है (द्वैत में अद्वैत की साधना)।
🙏(२) परमशिव की अनुभूति उत्तर दिशा में ही क्यों होती है? उन का मुंह दक्षिण दिशा में क्यों है ?
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परमात्मा समभाव में सर्वत्र व्याप्त हैं। ध्यान करते करते उनमें समर्पित होकर उनसे एकाकार होना अद्वैत साधना है, जिसमें स्वयं का कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता। अद्वैत भाव में साधक मौन और आनंदमय हो जाता है व सारे शब्द तिरोहित हो जाते हैं। अद्वैत में प्रवेश द्वैत से ही होता है। द्वैत भाव में ही कुछ लिखा जा सकता है, अन्यथा अनिर्वचनीय मौन और आनंद ही शेष रहता है।
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"परमात्मा के महासागर में वैसे ही तैरिये, जैसे जल की एक बूंद महासागर में तैरती है। हर ओर परमात्मा है, हम परमात्मा के मध्य में हैं, उनके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। हमारी पृथकता का बोध भी इसी तरह एक दिन स्वतः ही समाप्त हो जाएगा।" जब तक पूर्णता की प्राप्ति नहीं होगी तब तक पुनर्जन्म होते रहेंगे। यह शाश्वत सत्य है जिसे समझने के लिए ही यह वर्तमान मनुष्य जन्म हमें मिला है।
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दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि परमशिव का मुंह दक्षिण दिशा में क्यों है? इसके लिए यह समझना होगा कि परमशिव और दक्षिण दिशा से हमारा क्या तात्पर्य है। मेरी बात को वे ही समझ पाएंगे जो नित्य नियमित ध्यान साधना करते हैं। दूसरों के लिए यह एक गल्प मात्र ही होगा।
सहस्त्रारचक्र उत्तर दिशा है, मूलाधारचक्र दक्षिण दिशा है, भ्रूमध्य पूर्व दिशा है, और मेरुशीर्ष (Medulla) पश्चिम दिशा है जहाँ मेरूदण्ड की सारी नाड़ियाँ मष्तिक से मिलती हैं। भ्रूमध्य पर ध्यान पूर्व दिशा में, और सहस्त्रार पर ध्यान उत्तर दिशा में ध्यान है।
परमशिव -- एक अनुभूति है, जो बहुत गहरे ध्यान में होती है। इसे शब्दों में व्यक्त करना कम से कम मेरे लिए तो असंभव है। अपरिछिन्न प्रत्यगात्म भाव में ही हम परमशिव को समझ सकते हैं, अन्यथा यह कनक-कसौटी पर हीरे को कसने का सा प्रयास है।
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परमात्मा से कुछ लिखने की क्षमता, और आदेश मिलेगा तो ही आगे और लिख पाऊँगा। अन्यथा मैं अब और उपलब्ध नहीं हूँ। सभी को नमन। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०२५

यह जीवन स्वधर्म और राष्ट्र के प्रति समर्पित है ---

यह जीवन स्वधर्म और राष्ट्र के प्रति समर्पित है ---
जो निरंतर दिन-रात परमात्मा का चिंतन करते हैं, परमात्मा का ही स्वप्न देखते हैं, और परमात्मा को ही निज जीवन में व्यक्त करते हैं, मैं उनके साथ एक हूँ; वे चाहे इस पृथ्वी या सृष्टि के किसी भी भाग में रहते हों। हम शाश्वत आत्मा हैं, जिन का स्वधर्म -- परमात्मा की प्राप्ति है। परमात्मा को भूलना ही परधर्म है।
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पूरे भारत में राष्ट्रभक्ति जागृत हो। सभी भारतीय सत्यनिष्ठ, कार्यकुशल और धर्मावलम्बी बनें। भारत में कहीं भी अधर्म न रहे। धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, और विश्व का कल्याण हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ फरवरी २०२५

मैं उन पुराण-पुरुष (भगवान श्रीकृष्ण) की शरण में हूँ, जिनकी शरणागति से सभी श्रद्धालुओं ने कृतकृत्य होकर निज जीवन को कृतार्थ किया है ---

 मैं उन पुराण-पुरुष (भगवान श्रीकृष्ण) की शरण में हूँ, जिनकी शरणागति से सभी श्रद्धालुओं ने कृतकृत्य होकर निज जीवन को कृतार्थ किया है ---

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शांभवी-मुद्रा में सर्वव्यापी पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव स्वयं ही मेरी चेतना के उच्चतम शिखर ऊर्ध्व में स्थित होकर अपनी साधना कर रहे हैं। वे ही परमशिव हैं, और वे ही नारायण है। मैं एक अकिंचन निमित्त साक्षी-मात्र हूँ जो उनके साथ एक है। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है, एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है, वे ही मुझमें व्यक्त हो रहे हैं। मैं उन्हें नमन करता हूँ। आचार्य शंकर ने अपने ग्रंथ "विवेक चूड़ामणि" के १३१ वें मंत्र में पुराण-पुरुष की वंदना की है --
"एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो निरन्तराखण्ड-सुखानुभूति |
सदा एकरूपः प्रतिबोधमात्र येनइषिताः वाक्असवः चरन्ति ||" ॐ ॐ ॐ !!
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गीता में भगवान कहते हैं --
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यतेनान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५;३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम् यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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अर्थात् -- श्री भगवान् ने कहा -- (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है॥
उस वृक्ष की शाखाएं गुणों से प्रवृद्ध हुईं नीचे और ऊपर फैली हुईं हैं; (पंच) विषय इसके अंकुर हैं; मनुष्य लोक में कर्मों का अनुसरण करने वाली इसकी अन्य जड़ें नीचे फैली हुईं हैं॥
इस संसारवृक्षका जैसा रूप देखनेमें आता है, वैसा यहाँ (विचार करनेपर) मिलता नहीं; क्योंकि इसका न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है। इसलिये इस दृढ़ मूलोंवाले संसाररूप अश्वत्थवृक्षको दृढ़ असङ्गतारूप शस्त्रके द्वारा काटकर --
(तदुपरान्त) उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसको प्राप्त हुए पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं। "मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है"॥
जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं॥
उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है॥
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मैं पुराण-पुरुष भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण को अपना सर्वस्व अर्पित करता हूँ। ये मन बुद्धि चित्त अहंकार, कारण सूक्ष्म व भौतिक देह, अपनी तन्मात्राओं सहित सारी इंद्रियाँ, सारा धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, अच्छे-बुरे सारे कर्म और उनके फल, सब कुछ उन्हें अर्पित है। स्वयं को भी शरणागति द्वारा उन्हें समर्पित करता हूँ। वे मेरा समर्पण स्वीकार करे।
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गीता में अर्जुन द्वारा की गयी पुराण-पुरुष की स्तुति ---
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
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अन्य महापुरुषों द्वारा की गयी स्तुतियाँ ---
"वसुदॆव सुतं दॆवं कंस चाणूर मर्दनम्। दॆवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दॆ जगद्गुरुम्॥"
"वंशीविभूषित करान्नवनीरदाभात् , पीताम्बरादरूण बिम्बफला धरोष्ठात्।
पूर्णेंदु सुन्दर मुखादरविंदनेत्रात् , कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने॥"
"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणत क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:॥"
"नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च, जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्॥"
"कस्तूरी तिलकम् ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम् ,
नासाग्रे वरमौक्तिकम् करतले, वेणु: करे कंकणम्।
सर्वांगे हरिचन्दनम् सुललितम्, कंठे च मुक्तावली,
गोपस्त्री परिवेष्टितो विजयते, गोपाल चूड़ामणि:॥"
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ फरवरी २०२५

अवशिष्ट जीवन परमात्मा के स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन, और ध्यान में ही व्यतीत हो जाये ---

 एकमात्र अभीप्सा है कि अवशिष्ट जीवन परमात्मा के स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन, और ध्यान में ही व्यतीत हो जाये। एक पल के लिए भी उनकी विस्मृति न हो। किसी भी तरह की आकांक्षा/कामना का जन्म ही न हो। यही मेरा स्वधर्म है।

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परमात्मा हमें प्राप्त नहीं होते, बल्कि शरणागति व समर्पण द्वारा हम स्वयं ही परमात्मा को प्राप्त होते हैं। कुछ पाने का लोभ/लालच -- माया का सबसे बड़ा अस्त्र है, जो हमें अंधकारमय लोकों में डालता है। जीवन का सार कुछ होने में है, न कि कुछ पाने में। जब सब कुछ परमात्मा ही है तो प्राप्त करने को बचा ही क्या है? हम परमात्मा को प्राप्त हों, यह आत्मा की अभीप्सा होती है। जब परमात्मा से परमप्रेम हो, और कुछ भी आकांक्षा न हो, तब अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति का जन्म होता है।
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वर्षों पहले की बात है, एक बार रात्रि में भावावस्था में ध्यान करते करते मुझे वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण की अनुभूति हुई जिसमें वे मुझे कह रहे थे कि -- "तुम्हारे जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं है, लाखों कमियाँ ही कमियाँ हैं; तुम्हें मुझसे प्रेम है, इस प्रेम ने ही तुम्हारी हर कमी को ढक रखा है।" जब भगवान स्वयं ही यह बात कह रहे हैं तो वह माननी ही पड़ेगी। अब और तो कर भी क्या सकता हूँ? अपनी हर बुराई और अच्छाई -- सब कुछ उन्हें बापस लौटा रहा हूँ। इस पाप की गठरी को कब तक ढोता रहूँगा? अवशिष्ट जीवन उन्हीं के चिंतन, मनन, स्मरण और ध्यान में ही बीत जाये, और कुछ भी नहीं चाहिये।
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ॐ तत्सत् ॥ ॐ स्वस्ति ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
कृपा शंकर
२४ फरवरी २०२५

गुरुकृपा फलीभूत हो ---

 गुरुकृपा फलीभूत हो ---

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गुरुकृपा ही वेदान्त-वासना और भूमा-वासना की तृप्ति के रूप में फलीभूत होती है। गुरु रूप में स्वयं परमशिव ही 'दक्षिणामूर्ति' हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के पंद्रहवें अध्याय में जिस पुरुषोत्तम-योग का उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने किया है, वह अंतिम योग, और योग-साधना की परिणिति है। उससे परे कुछ भी नहीं है। लेकिन वह गुरु-रूप में उनकी परम कृपा से ही समझ में आ सकता है। तभी मैं प्रार्थना करता हूँ कि "गुरुकृपा फलीभूत हो"।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ फरवरी २०२५

मैं एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच गया हूँ, जहाँ लिखने के लिए और कुछ भी नहीं है ---

मैं एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच गया हूँ, जहाँ लिखने के लिए और कुछ भी नहीं है। हरेक व्यक्ति को चाहे वह घोर वामपंथी हो या घोर नास्तिक, ईश्वर की अनुभूति कभी न कभी जीवन में अवश्य होती है। कोई जमाना था जब सभी कम्युनिष्ट देशों में ईश्वर पर आस्था रखने वालों को या तो पागलखाने में मरने के लिये डाल दिया जाता या मृत्युदंड दे दिया जाता था। इस समय विश्व में केवल एक ही देश उत्तरी-कोरिया बचा है जहाँ ईश्वर पर आस्था रखने की सजा मृत्यु दंड है।
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रूस में जब कम्यूनिज़्म अपने चरम शिखर पर था, उस समय लोग एक अज्ञात भय से ग्रसित रहते थे और ईश्वर के बारे में कुछ भी बोलने से डरते थे। लेकिन वहाँ भी कुछ मित्रों ने एकांत में मेरे कान में फुसफुसाकर ईश्वर में अपनी आस्था व्यक्त की है। भगवान के बारे में ज़ोर से बोलने में लोग वहाँ डरते थे कि कोई सुन लेगा तो चुगली कर के गिरफ्तार करवा देगा।
ऐसे ही मुस्लिम देशों में गैर-मुस्लिम लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। कई मुस्लिम देशों का भ्रमण मैंने किया है, और यह अपने अनुभव से लिख रहा हूँ।
यूरोपियन लोग गैर-यूरोपियन को हेय दृष्टि से देखते हैं। चीनी लोग अपने से पृथक अन्यों को हेय दृष्टि से देखते हैं, अफ्रीकन लोगों से तो वे घृणा करते हैं।
भारत में भी रंगभेद है, साँवले रंग के लोगों को यहाँ भी ओछी दृष्टि से देखा जाता है।
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भारत में ही मुझे एक ऐसा अति घोर मार्क्सवादी नमूना आदमी मिला है जो मार्क्स, लेनिन, और फ़्रेडरिक एंगेल्स की फोटो की अगरबत्ती जलाकर नित्य पूजा करता था। उसके लिए ये ही देवता थे।
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पहले दिल्ली से 'सरिता' नाम की एक पाक्षिक पत्रिका निकलती थी जो खुलकर धर्मद्रोही थी। धर्मद्रोही विचारों को उस समय भारत में सत्ता का संरक्षण प्राप्त था।
फिर भी भारत में धर्म बचा है और निरंतर विस्तृत हो रहा है। इसका कारण यही है कि हरेक व्यक्ति को परमात्मा की अनुभूति अवश्य होती है।
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जब भी आपको भगवान की अनुभूति हो, भगवान का भजन अवश्य करें। आगे का मार्गदर्शन भगवान अवश्य करेंगे। श्रद्धा और विश्वास है तो नित्य नियमित रूप से भगवान का भजन करें। जिस भी मनःस्थिति में आप हैं, उसी के अनुसार अपना भजन करें। सभी को धन्यवाद और नमन॥ और कहने के लिए मेरे पास अन्य कुछ भी इस समय नहीं है।
कृपा शंकर
२७ फरवरी २०२५
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पुनश्च: --- जब भारत में नक्सलवादी आंदोलन अपने चरम पर था, तब चीन का चेयरमेन 'माओ त्से तुंग' उनका देवता था। नक्सलवादियों ने भारत में उस समय बहुत अधिक उत्पात मचाया था। बाद में पुलिस ने उनको मारना शुरू किया तो लगभग आधे नक्सलवादी तो पुलिस की गोली का शिकार हो गये, और बाकी बचे आधों ने तत्कालीन सरकार से माफी मांग ली और समाज की मुख्य धारा में आ गये। कानू सन्याल नाम के आदमी ने नक्सलवादी आंदोलन आरंभ किया था। वह जीवन में इतना कुंठित हो गया था कि उसने स्वयं को फांसी लगाकर आत्म-हत्या कर ली। उसका मुख्य चेला चारू मजूमदार था, जो पुलिस की हिरासत में हृदयाघात से मर गया। इस तरह भारत में नक्सलवादी आंदोलन का अंत हुआ।
आजकल जो लोग स्वयं को नक्सलवादी बताते हैं वे वास्तव में गुंडे-बदमाश हैं जो दूसरों को डराने और लूटने के लिए खुद को नक्सलवादी बताते हैं। नक्सलवाद से उनका कोई लेना-देना नहीं है। नक्सलवाद एक अति उग्र मार्क्सवादी सिद्धांत था जो चीन के माओ को ही अपना आदर्श और सर्वस्व मानता था।

लक्ष्य महत्वपूर्ण है, न कि अन्य कुछ ---

 लक्ष्य महत्वपूर्ण है, न कि अन्य कुछ ---

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अब कुछ भी या कोई भी नयी बात सीखने या जानने का प्रयास करना छोड़ दिया है। उसके लिए समय नहीं रहा है। कुछ समझ में नहीं आये तो उसे वहीं छोड़ आगे बढ़ जाता हूँ। जो पहले से ही पता है, वह पर्याप्त है मुझे अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिये। लक्ष्य महत्वपूर्ण है, न कि अन्य कुछ॥ अब कुछ नया सीखने या जानने की इच्छा एक विक्षेप मात्र है।
जय गुरु !! ॐ गुरु !! हर हर महादेव !! जय सियाराम !!

भगवती से प्रार्थना है कि भारत से असत्य का अंधकार पूरी तरह दूर हो, और सत्य-सनातन-धर्म की पुनःस्थापना हो ---

 भगवती से प्रार्थना है कि भारत से असत्य का अंधकार पूरी तरह दूर हो, और सत्य-सनातन-धर्म की पुनःस्थापना हो।

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भगवान विष्णु स्वयं ही यह सारी ज्योतिर्मय सृष्टि बन गए हैं। उनके सिवाय कोई अन्य नहीं है। उनकी प्रकृति अपने नियमानुसार इस सृष्टि का संचालन कर रही है। हमारा सुषुम्ना-पथ सदा ज्योतिर्मय रहे। मूलाधारचक्र से सहस्त्रारचक्र के मध्य प्राणायाम करते-करते देवभाव प्राप्त होता है, और हम चाहें तो सब प्रकार की सिद्धियाँ भी मिल सकती हैं। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में बताई हुई ब्राह्मी-स्थिति में निरंतर रहने की साधना करें। भौतिक देह की चेतना शनैः शनैः कम होने लगेगी। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान को प्रतिक्रियारहित सहन करना एक महान तपस्या है। करोड़ों तीर्थों में स्नान करने का जो फल है, ऊर्ध्वस्थ कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम के निरंतर ध्यान और दर्शन से वही फल प्राप्त होता है। कूटस्थ चक्र ही भगवती श्री का पादपद्म, और सभी देवताओं का आश्रय स्थल है। उसमें स्थिति ही आनंद और मोक्ष है। भगवती श्री साक्षात रूप से वहीं बिराजमान हैं। मन को बलात् बार बार सच्चिदानंद ब्रह्म में लगाये रखना हमारा परम कर्तव्य है। मन और इन्द्रियों की एकाग्रता -- परम तप है, समदृष्टि ही ब्रह्म्दृष्टि है। कूटस्थ गुरु-रूप-ब्रह्म को पूर्ण समर्पण व नमन ! सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हीं की अभिव्यक्ति है, कहीं भी "मैं" और "मेरा" नहीं। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ मार्च २०२५
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पुनश्च: --- श्रीगुरु चरण-पादुका को नमन ॥
ॐ नमो गुरुभ्यो गुरुपादुकाभ्यो। नमः परेभ्यः परपादुकाभ्यः॥
आचार्य सिद्धेश्वर पादुकाभ्यो। नमोस्तु लक्ष्मीपति पादुकाभ्यः॥१॥
कामादि सर्प वज्रगारुड़ाभ्यां। विवेक वैराग्य निधि प्रदाभ्यां॥
बोध प्रदाभ्यां द्रुत मोक्षदाभ्यां। नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥२॥
अनंत संसार समुद्रतार, नौकायिताभ्यां स्थिर भक्तिदाभ्यां।
जाक्याब्धि संशोषण बाड़याभ्यां, नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥३॥
ऐंकार ह्रींकार रहस्ययुक्त, श्रींकार गुढ़ार्थ महाविभुत्या।
ऊँकार मर्मं प्रतिपादिनीभ्यां, नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥४॥
होत्राग्नि हौत्राग्नि हविष्य होतृ, होमादि सर्वकृति भासमानम्।
यद ब्रह्म तद वो धवितारिणीभ्यां, नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥५॥
(श्री गुरु पादुका पंचकम्)

जहां तक मैं जानता हूँ, उकराइना (Ukraine) नाम का देश कभी था ही नहीं। जितना मैं जानता हूँ, वही लिख रहा हूँ।

 जहां तक मैं जानता हूँ, उकराइना (Ukraine) नाम का देश कभी था ही नहीं। जितना मैं जानता हूँ, वही लिख रहा हूँ।

एक समय था जब रूस का भी कोई अस्तित्व नहीं था। कीव नदी के किनारे कई घनी मानवी बस्तियां और गाँव थे। कीव का नाम -- संस्कृत के शब्द 'शिव' का अपभ्रंस है। ११वीं सदी के अंत व १२वीं सदी के आरंभ में जब मंगोल सेनाएं इस क्षेत्र से निकलीं तो भयभीत होकर अनेक लोग उत्तर में भाग कर घने जंगलों में छिप गये। वहाँ उन्होंने मस्कवा (Moscow) बसाया, जहां से रूस देश का जन्म हुआ। कुछ लोगों ने मींस्क बसाया जहां बेलारूस नाम का गणराज्य बना। मूल रूप से उकराइन, रूस और बेलारूस के लोग एक ही हैं। ये सब कीव से निकले हैं। इस समय उकराइना की राजधानी का नाम कीव है,
इस क्षेत्र को लोग उकराइना क्यों कहते हैं? इस बारे में पढ़ा तो है लेकिन ठीक से याद नहीं है, इसलिए नहीं लिख रहा। उकराइना (यूक्रेन) के ओडेसा क्षेत्र में कई बार गया हूँ। मेरे अनेक मित्र भी वहाँ थे। बहुत अच्छे शानदार लोग थे। वहाँ की कई स्मृतियाँ हैं। बहुत पुरानी कुछ कुछ यादें हैं। १ मार्च २०२५

आपस में युद्ध क्यों होते हैं ? .

 (प्रश्न) : आपस में युद्ध क्यों होते हैं ?

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(उत्तर) : इसका उत्तर श्रीमद्भगवद्गीता के १६वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने दिया है। युद्ध सदा से होते आए हैं, और सदा होते रहेंगे। मुख्यतः दो प्रकार के लोग भगवान ने बनाए हैं -- देव और असुर। भगवान कहते हैं -- "द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।" (गीता १६:६) ॥
देव और असुर दो प्रकार के मनुष्य भगवान ने बनाये हैं। इनके लक्षण भी बताये हैं। देवासुर संग्राम होते आए हैं, और सदा होते रहेंगे। अधिक जानकारी के लिए गीता का स्वाध्याय कीजिये। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२ मार्च २०२५

भगवान के नाम को सदा जपने वाले का कभी पतन नहीं होता ---

 भगवान के नाम को सदा जपने वाले का कभी पतन नहीं होता

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आचार्य चाणक्य ने अपने नीति ग्रंथ के तीसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में पाप, दरिद्रता, कलह और भय का कारण और निदान बताया है --
“उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्।
मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥”
इसका भावार्थ यह है कि निरंतर उद्यमी व्यक्ति कभी दरिद्र नहीं होता, भगवान के किसी नाम को सदा जपने वाले व्यक्ति से कभी कोई पाप नहीं होता, मौन व्यक्ति से कोई कलह नहीं होता, और सदा जागरूक व्यक्ति को कोई भय नहीं रहता।
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स्वामी रामसुखदास जी ने गीता का जो भाष्य लिखा है उसके १६वें अध्याय के भाष्य के आरंभ में ही इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझाया है। इसे समझने के लिए उनके ग्रंथ का स्वाध्याय करना होगा।
संत दादू दयाल के परम भक्त संत रज्जब अली खान ने अपनी वाणी में लिखा है कि हरिः, गुरु और संसार कहीं हमसे नाराज न हो जाये, इसलिए निरंतर हरिः भजन आवश्यक है। भगवान के भजन करने वाले को किसी से कोई भय नहीं रहता।
"हरिडर, गुरुडर, जगतडर, डर करनी में सार।
रज्जब डर्या सो ऊबर्या, गाफिल खायी मार॥"
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हम जो भी साधन कर रहे हैं, उसी में उत्साह और तत्परता से लगे रहें तो हमारे ज्ञात और अज्ञात सब पाप दूर हो जाएँगे, व अन्तःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) स्वतः शुद्ध हो जायेगा। इस बात का मनन कीजिये। ॐ तत्सत् ॥
कृपा शंकर
२ मार्च २०२५

क्या अन्य भी कोई है?

 "ॐ विश्वं विष्णु:-वषट्कारो भूत-भव्य-भवत- प्रभुः। भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥" ॐ ॐ ॐ ॥

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(प्रश्न) : क्या अन्य भी कोई है? (उत्तर) : कोई भी या कुछ भी अन्य नहीं है। एकमात्र अस्तित्व विष्णु का है। वे ही यह समस्त सृष्टि बन गये हैं। सारे विचार, सारी ऊर्जा, सारा अनंत विस्तार, बिन्दु, गति, प्रवाह, आवृतियाँ और प्राण केवल वे ही हैं। कहीं पर कुछ भी अन्य नहीं है। वे ही परमशिव हैं, और वे ही परमब्रह्म हैं। उनकी चेतना में सब संभव है। उनके पादपद्म ही मेरा आश्रय है। वे मेरा समर्पण स्वीकार करें। ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ मार्च २०२५

क्या अहिंसा सदा ही परम धर्म है ? -- (लेखक: आचार्य सियारामदास नैयायिक)

  (राष्ट्र और धर्म के लिए की गयी "रणभूमि की हिंसा" - अहिंसा से भी श्रेष्ठ धर्म है)

क्या अहिंसा सदा ही परम धर्म है ? -- (लेखक: आचार्य सियारामदास नैयायिक)
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"अहिंसा परमो धर्मः" यह वाक्य अति प्रसिद्ध है । जिसके द्वारा अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा गया है । हम यहां यह विचार करते हैं कि यह वाक्य कहां और किस प्रकरण में आया है । महाभारत में कई स्थलों पर यह वाक्य दृष्टिगोचर होता है । जैसे --
"अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः" ।
---- महाभारत- वनपर्व,207/4,
अहिंसा परम धर्म है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है ।
अहिंसा के विषय में और भी देखें--
अहिंसा परमो धर्म इत्युक्तं बहुशस्त्वया । --वनपर्व-115/1,
अहिंसा परम धर्म है --यह आपने कई बार कहा है ।
"अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परं तपः ।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते । ।
----- अनुशासनपर्व-115/23,
अहिंसा परम धर्म है उसी प्रकार अहिंसा परम तपश्चर्या है । अहिंसा परम सत्य है जिससे धर्म की प्रवृत्ति होती है ।
"अहिंसा परमो धर्मो हिंसा चाऽधर्मलक्षणा"।
--आश्वमेधिकपर्व-43/21,
अहिंसा परम--सर्वश्रेष्ठ धर्म है । और हिंसा अधर्मस्वरूपा है ।
पूर्वोक्त वचनों में अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ धर्म तथा हिंसा को अधर्म का स्वरूप बतलाया गया है ।
अब हम आपके समक्ष सप्रमाण यह तथ्य प्रस्तुत करेंगे कि--
"अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म अवश्य है पर सर्वत्र नहीं । इसी प्रकार हिंसा अधर्म तो है पर सर्वत्र नहीं" ।
देखें --
शरशय्या पर पड़े पितामह भीष्म से धर्मराज युधिष्ठिर ने प्रश्न किया कि---
"ऋषि, ब्राह्मण और देवता "अहिंसा रूपी धर्म की बड़ी प्रशंसा करते हैं;क्योंकि उसके विषय में वेदरूपी प्रमाण दृष्टिगोचर होता है--
"ऋषयो ब्राह्मणा देवा प्रशंसन्ति महामते ।
अहिंसालक्षणं धर्मं वेदप्रामाण्यदर्शनात् ।।
--अनुशासनपर्व-114/2,
अहिंसा में वेद प्रमाण --
"न हिंस्यात् सर्वा भूतानि"
किसी भी प्राणी की हिंसा न करे--यही "वेदप्रामाण्यदर्शनात्" से कहा गया है ।
इसी प्रमाण के आश्रय से "अहिंसा परमो धर्मः " पूर्वोक्त वाक्यों में कहा गया है ।
अब इस सर्वश्रेष्ठ धर्म अहिंसा को सामने रखकर धर्मराज युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछा कि आप अहिंसा को परम धर्म भी कह रहे हैं और श्राद्ध कर्म में पितरों को मांस का अभिलाषी भी बतला रहे हैं ----
" अहिंसा परमो धर्म इत्युक्तं बहुशस्त्वया।
श्राद्धेषु च भवानाह पितृनामिषकांक्षिणः" । ।
---अनुशासनपर्व-115/1,
ध्यातव्य है कि गीता प्रेस के महानुभावों ने इस अध्याय के 9 श्लोकों को निकाल दिया है । जबकि इस पर प्रसिद्ध विद्वान् "श्रीनीलकण्ठ" की प्राचीन "भारतभावदीप" नामक संस्कृत टीका आज भी उपलब्ध है ।
जिसके अनुसार पाठ रखने की बात इसके प्रकाशक ने "महाभारत, प्रथम खण्ड के नम्र निवेदन" में कही है ।। अस्तु ।।
अब श्राद्ध में पितरों की तृप्ति हेतु अभीष्ट मांस जीवों की हिंसा किये विना तो मिल नहीं सकता और इस स्थिति में अहिंसा रूपी परम धर्म का पालन करना ?
ये दोनों परस्पर विरुद्ध बाते हैं । अतः मुझे धर्म में संशय हो गया है । --
"अहत्वा च कुतो मांसमेवमेतद्विरुध्यते"--115/2,
"जातो नः संशयो धर्मे मांसस्य परिवर्जने" । --115/3
यहां पर पितामह ने मांस के भक्षण का निषेध करते हुए बतलाया है कि --
सुन्दर रूप,पूर्ण अंग, आयु ,सत्त्व, बल और सुदृढ स्मृति की प्राप्ति के इच्छुकों को मांसभक्षण का निषेध महर्षियों ने किया है ।
----115/6,
पितामह ने ऋषियों के बीच निर्णीत सिद्धान्त का वर्णन प्रस्तुत करते हुए कहा कि "अहिंसा ही परम धर्म है " ।--115/7,
जो मद्य और मांस का त्याग कर देता है । वह प्रतिमास अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है ।--115/8,
बृहस्पति जी का कथन है कि मद्य मांस का त्याग करने वाले को दान
यज्ञ और तपस्या का फल मिलता है ।--115/12,
100 वर्षों तक अश्वमेध करने का फल मांस का भक्षण न करने वाला प्राप्त करता है ।---115/14,
मद्य,मांस को त्यागने वाला व्यक्ति सदा सत्र (अनेक यजमानों से किये जाने वाले यज्ञ को सत्र कहते हैं- बहुयजमानकर्तृको यागः सत्रम् )तथा तपश्चर्या का फल प्राप्त करता है ।--115/15,
इस प्रकार "अहिंसारूपी परम धर्म की प्रशंसा महापुरुषों ने की है"--
"एवं वै परमं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः "--अनुशासनपर्व-115/21,
यहां पर यह भी कहा गया है कि पूर्व कल्प में धार्मिक लोग जो यज्ञ करते थे उसमें चावल का पशु बनाया जाता था --115/49,
अर्थात् जीवहिंसा से वर्जित वे यज्ञ होते थे ।
पुनः पितामह कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! अहिंसा और हिंसा के विषय में जैसे तुम्हे संशय हुआ है ।
ऐसा ही संशय होने पर ऋषियों ने आकाश में विचरण करने वाले चेदिनरेश महाराज वसु से पूछा तो उन्होने अभक्ष्य मांस को भक्ष्य है --ऐसा निर्णय दिया । --115/50,
इस गलत निर्णय के कारण उनका ऐसा अधःपतन हुआ कि आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े । और भूलोक में भी वैसा ही निर्णय देने के कारण धरती में समा गये ।---115/51,
»»»»»»»» निष्कर्ष««««««««
इस विवेचन से यही सिद्ध हुआ कि "अहिंसा को परम धर्म " मांसभक्षण और अभक्षण के प्रसंग में ही कहा गया है ।
धर्मरक्षा या देशरक्षा के लिए "रणभूमि" के प्रसंग में यही अहिंसा अधर्म का रूप ले लेती है ;क्योंकि कृपा जैसे एक महान् गुण है पर वही रणभूमि में शत्रुदल पर हो जाय तो वह एक महान् दुर्गुण हो जाता है ।
इसीलिए भगवान् ने कृपा से आविष्ट अर्जुन को देखकर उन्हे कोसते हुए रणभूमि मे होने वाली कृपा को अनार्यसेवित अकीर्तिकर आदि शब्दों से कहा । --गीता-2/2,
यदि युद्ध में अहिंसा का कोई महत्त्व होता तो शत्रुसैन्य पर विजय प्राप्त करके धर्मपूर्वक पृथिवी का पालन करे --यह आज्ञा शास्त्र कभी भी नही देते ----
" निर्जित्य परसैन्यानि क्षितिं धर्मेण पालयेत् "--
»»»राष्ट्र या धर्म की रक्षाहेतु की गयी हिंसा परम धर्म है«««
महाभारत भीष्म पर्व में भगवान् व्यास से प्राप्त दिव्यदृष्टि वाले सञ्जय स्वयं धृतराष्ट्र से कहते हैं कि
" पुण्यात्माओं के लोकों को प्राप्त करने की इच्छा वाले नृपगण शत्रुसैन्य में घुसकर युद्ध करते हैं"--
"युद्धे सुकृतिनां लोकानिच्छन्तो वसुधाधिपाः ।
चमूं विगाह्य युध्यन्ते नित्यं स्वर्गपरायणाः ।।
---- 83/10,
यदि रणांगण की हिन्सा अधर्म होती तो सञ्जय ऐसा नही कहते ।
और न ही भगवान् कृष्ण वीरवर पार्थ को शत्रुओं से संग्राम करने का आदेश ही देते---
"मामनुस्मर युध्य च"--गीता--8/7,
»»»»»»युद्ध में वीरगतिप्राप्त योद्धा को स्वर्ग से भी उच्चलोक की प्राप्ति«««««
इस संसार में मात्र 2 ही प्राणी ऐसे हैं जो सूर्यमण्डल का भेदन करके भगवद्धाम जाते हैं ।
1--सम्पूर्ण जगत् से अनासक्त योगी
2--शत्रु के सम्मुख रणभूमि में वीरगति प्राप्त करने वाला ।
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ ।
परिव्राड् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ।।
------------ शार्ड़ंगधरपद्धति
ब्रह्मवेत्ता सूर्य की रश्मियों के सहारे सूर्यलोक पहुंचकर वहीं से ऊपर हरिधाम जाता है --
"अथ यत्रैतस्माच्छरीरादुत्क्रामत्यथैततैरेव रश्मिभिरूर्ध्वमाक्रमते "---छान्दोग्य-8/6/5,
"तयोर्ध्वमायन्नमृतत्त्वमेति"--8/6/6, --इस वाक्य से भगवद्धामरूपी मोक्ष प्राप्त करना बतलाया गया है ।
"रश्म्यनुसारी"--ब्रह्मसूत्र-4/2/17,
में सभी भाष्यकारों ने इस तथ्य का निरूपण किया है । इसे वेदान्त में "अर्चिरादि मार्ग"कहा गया है । इससे ऊर्ध्वगमन करने वाला प्राणी पुनः संसार में नही लौटता ।
जबकि यज्ञ,दान,तपश्चर्या करने वाले स्वर्ग सुख भोगकर पुण्यक्षय के पश्चात् संसार में लौटते हैं । यही यज्ञ,दान आदि तो अहिंसा के फल बतलाये गये हैं ।
पर रणभूमि में जाकर शत्रुओं पर काल बनकर टूट पड़ने वाला योद्धा यदि वीरगति को प्राप्त हो जाय तो वह उस स्थान को प्राप्त करता है जो "अहिंसा परमो धर्मः" वाले को परम दुर्लभ है ।
अतः निष्कर्ष निकला कि राष्ट्र और धर्म के लिए की गयी "रणभूमि की हिंसा" अहिंसा से भी श्रेष्ठ धर्म है।
इसलिए हे भगवान् परशुराम, श्रीराम,श्रीकृष्ण,छत्रपति वीर शिवा और प्रचण्डपराक्रमी महाराणा की सन्तानों !
देशद्रोहियों और धर्मविध्वंसकों पर काल बनकर टूट पड़ो ।
"अहिंसातः परो धर्मः युद्धे हिंसा हि मुक्तिदा ।
इति स्वान्ते विनिश्चित्य शत्रुसैन्यं विमर्द्यताम्। ।
»»»»»»»»जय श्रीराम«««««««
»»»»»»»»» आचार्य सियारामदास नैयायिक««««««««««
४ मार्च २०१३
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उपरोक्त पोस्ट पर माननीय श्री अरुण कुमार उपाध्याय की टिप्पणी ---
Arun Kumar Upadhyay
मैंने इस श्लोक का स्रोत बहुत दिनों तक खोजा था-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्य मण्डल भेदिनौ।
परिव्राड् योगयुक्तो वा रहे चाभिमुखं हतम्॥
एक प्राध्यापक ने बताया कि विदुर गीता में है। उसके बाद शुक्र नीति में मिला। आज शार्ङ्गधर पद्धति में देखा।
भोजन में मांस खाने के लिए भी लोग किसी बहाने से हिंसा करते हैं। सिद्धार्थ बुद्ध यज्ञ में पशुबलि से द्रवित थे, पर स्वयं मांस खाना नहीं छोड़ा। देवदत्त ने मांग की कि संघ तथा विचारों में भिक्षुओं को दैनिक मांस भोजन बन्द किया जाए तथा कम से कम एक बार वे भिक्षा मांगे। इस प्रस्ताव के कारण उनको निकाला गया तथा बुद्ध ने कहा कि मुफ्त मांस नहीं मिलने पर संघ की लोकप्रियता कम हो जायेगी। लोकप्रियता के लिए ८४,००० विचारों में इतना मुफ्त भोजन मिला कि समाज उनका बोझ नहीं सह सका। स्वयं बुद्ध द्वारा अधिक मांस भोजन के कारण पाटलिपुत्र के जीवन वैद्य ने दो बार उनके पेट की शल्य चिकित्सा की थी तथा कहा कि तीसरी बार पेट नहीं चीर सकते (जैसा सीजरियन में होता है)। किन्तु बुद्ध मांस लोभ नहीं रोक पाये तथा मांस भोजन के कारण उनकी सारनाथ में मृत्यु हुई।
बौद्ध मत में 'अहिंसक' मांस खाने के लिए बकरे या भेड़ का नाक-मुंह बान्ध देते हैं जिससे वह श्वास बन्द होने से मर जाता है। इसी प्रकार इस्लाम में 'अहिंसक' (हलाल) मांस के लिए पशु का गला थोड़ा रेत देते हैं जिससे वह रक्तस्राव से मर जाता है। दोनों हत्या बहुत पीड़ादायक हैं किन्तु यह अहिंसक होने का बहाना है।

रूस-यूक्रेन युद्ध का एक दूसरा पक्ष ---

 (पुनः प्रस्तुत) (dated 4 March 2022)

रूस-यूक्रेन युद्ध का एक दूसरा पक्ष ---
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यूक्रेन के दोनबास में जैसे जैसे रूस की सेना आगे बढ़ रही है, उन्हें यूक्रेन की नात्सी सेना "अजोव-बटालियन" द्वारा मारे गए हजारों रूसी मूल के यूक्रेनी नागरिकों के कब्रिस्तान मिल रहे हैं; कहीं कहीं तो जिनमें जीवित शिशुओं को भी सड़ने के लिये फेँक दिया गया था। एक वीडियो में तो एक शिशु कीड़ों से बचने के लिये हाथ−पाँव हिला रहा था, किन्तु चलने के योग्य नहीं था। सड़ी हुई लाशों पर वह जीवित शिशु असहाय पड़ा था। उसका अपराध यही था कि वह रूसी नस्ल का था। यूक्रेन की अजोव-बटालियन रूसियों से लड़ने का कार्य कर रही है, जिसमें बीस हजार नात्सी हत्यारे हैं जो पिछले आठ वर्षों से यूक्रेन में रूसियों का नरसंहार कर रहे हैं।
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NATO में जाने की जिद त्यागकर यूक्रेन निष्पक्ष रहे तो उसका क्या बिगड़ जाएगा? उससे लाभ सिर्फ झेलेन्स्की को है, जिसे युद्ध उद्योग के स्वामी अमेरिका ने अवैध सत्ता दिलायी है। जिन दो गणराज्यों की मान्यता को लेकर झगड़ा आरम्भ हुआ था उनका नाम तक नहीं लेते, क्योंकि वहाँ नात्सी गुण्डों द्वारा दफनाये गड़े मुर्दे अब उखड़ रहे हैं।
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विक्तोर यानुकोविच ही यूक्रेन के चुने हुए राष्ट्रपति थे जिनको अवैध तरीके से सन २०१४ ई⋅ में हटाकर उनकी पार्टी को प्रतिबन्धित कर दिया गया था। यूक्रेन की सबसे बड़ी पार्टी को प्रतिबन्धित करने वाला झेलेन्स्की भारत की मीडिया को लोकतान्त्रिक लगता है।
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कई स्थानों पर यूक्रेनी सेना भारतीय छात्रों को यंत्रणा दे रही हैं और और भारतीय छात्रा लड़कियों को बुरी तरह पीट रही है। उन्हें आगे जाने देने के लिए प्रति छात्र/छात्रा तीन सौ डॉलर की घूस ली गई है। यह बात वहाँ से आ रही भारतीय छात्राएं खुले आम बता रही हैं, जिसे छिपाया जा रहा है, क्योंकि अभी भी सैंकड़ों भारतीय छात्र/छात्राएं वहाँ फंसे हुये हैं।
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भारत की निजी समाचार मीडिया अपना खर्चा निकालने और पैसा कमाने के लिए विज्ञापनों द्वारा मिलने वाले धन पर निर्भर है। उनको पश्चिमी देशों के धन ने खरीद रखा है, इसलिए वे दिन-रात अमेरिकी एजेंट यूक्रेन के राष्ट्रपति झेलेंस्की का महिमा मंडन, और रूस के विरुद्ध मिथ्या प्रचार कर रही हैं।
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उत्तर प्रदेश में हो रहे चुनावों के समाचार छिपाए जा रहे हैं, क्योंकि योगीजी के जीतने से अमेरिकी हितों को कोई लाभ नहीं है।
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विश्व के कुछ लोगों के लिए युद्ध एक व्यापार है जिससे पैसे कमाये जाते हैं। वर्तमान में रूस-यूक्रेन युद्ध को ही लें।
रूसी पेट्रोलियम पर प्रतिबन्ध लगने के कारण दुनियाँ को अब मँहगा पेट्रोलियम खरीदना पड़ेगा, जिससे अमेरिकी स्वामित्व वाली पेट्रोलियम कंपनियों को ही लाभ होगा। यह विवाद जितना लंबा खिंचेगा उतना ही अधिक मुनाफा होगा।
अमेरिका और उसके पिछलग्गू देशों ने यूक्रेन को अरबों डॉलर के हथियार दिये हैं, जिसका मूल्य तो उन देशों की जनता को कर के रूप में चुकाना ही पड़ेगा। इससे लाभ तो हथियार बनाने वाले उद्योगपतियों, सौदागरों व दलालों का ही होगा। सबसे बड़े दलाल तो अमेरिका के राष्ट्रपति और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री होते हैं।
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भारत के १७ रूपये में जितना सामान आप खरीद सकते हैं उतना सामान एक डॉलर में आप खरीद सकते हैं। ७५ रूपये का नकली विनिमय दर बनाकर अमेरिका भारत से अरबों रुपया लूट रहा है। इससे बचने के लिए हमें अरब पेट्रोलियम पर निर्भरता समाप्त करनी पड़ेगी, जिसके स्वामी अमेरिकन धनपति ही हैं। यदि हम वैकल्पिक ऊर्जा स्त्रोत विकसित कर लें तो भारतीय अर्थव्यवस्था समूचे यूरोप, जापान और अमेरिकी अर्थव्यवस्था से भी बड़ी हो जाएगी।
४ मार्च २०२२
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पुनश्च: ..... रूस-यूक्रेन युद्ध -- यूक्रेनी राष्ट्रपति अमेरिकी दलाल झेलेंस्की की नासझमी व अमेरिका की बदमाशी है। और कुछ भी नहीं है।

जिनको हम गौतम बुद्ध कहते हैं, वे विष्णु के अवतार नहीं थे। विष्णु का अवतार अन्य ही कोई बुद्ध होगा ---

 जिनको हम गौतम बुद्ध कहते हैं, वे विष्णु के अवतार नहीं थे। विष्णु का अवतार अन्य ही कोई बुद्ध होगा ---

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आजकल एक बहस चल रही जिसमें कुछ विद्वानों का मत है कि गौतम बुद्ध नाम के व्यक्ति कभी हुए ही नहीं थे। महावीर की नकल कर के उनके काल्पनिक व्यक्तित्व को गढ़ा गया है। मैं इस बहस में पड़ना नहीं चाहता। दोनों पर ही मैंने अध्ययन किया है और लिखा भी है।
मैं आस्तिक हूँ, वेदों को अपौरुषेय मानता हूँ। नास्तिक मतों का अनुयायी नहीं हूँ, लेकिन उनका पूर्ण सम्मान करता हूँ। जिनको हम गौतम बुद्ध कहते हैं, वे विष्णु के अवतार नहीं थे। विष्णु का अवतार अन्य ही कोई बुद्ध होगा। यहाँ बौद्ध-मत के बारे में कुछ ज्ञात तथ्यों को लिख रहा हूँ जिनका पता बहुत कम लोगों को है --
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(1) महावीर स्वामी -- गौतम बुद्ध से आयु में 36 वर्ष बड़े थे।
(2) भारत से चीन में सन 0067 ई. में दो हिन्दू ब्राह्मण गये, जिनके नाम कश्यपमातंग और धर्मरत्न थे। उन्होंने चीन में बौद्ध मत फैलाया।
(3) ईसा की छठी सदी में चीन के हुनान प्रांत में स्थित शाओलिन मंदिर से एक भारतीय हिन्दू बौद्ध भिक्षु जिसका नाम बोधिधर्म था, जापान गये और उन्होने जापान में बौद्ध धर्म फैलाया जो Zen Buddhism कहलाया।
(4) बुद्ध की मृत्यु के बाद 500 वर्षों तक उनके उपदेश लिखे ही नहीं गये थे। श्रीलंका के अनुराधापुर में बुद्ध की मृत्यु के 500 वर्षों के बाद एक सभा हुई जिसमें पहली बार उनकी शिक्षाओं को पाली भाषा में लिपिबद्ध किया गया। जिन्होंने उसे मान्यता दी वे महायान, और अन्य हीनयान कहलाये। भारत से दक्षिण में हीनयान मत फैला, और उत्तर में महायान।
(5) दक्षिण-पूर्व एशिया में कुछ हिन्दू ब्राह्मण बौद्ध-मत का प्रचार करने गये जहां उन्होंने एक विशाल नदी को देखा। उन्होंने उस नदी का नाम "माँ-गंगा" रखा। अपभ्रंस होते होते उस नदी का नाम माँ-गंगा से मेकोंग हो गया। वह नदी उस क्षेत्र की जीवन दायिनी है। उस नदी के जल को लेकर चीन और विएतनाम में युद्ध भी हो चुका है, और अभी भी तनाव है।
(6) चीन का युद्ध तो रूस से भी एक बार उसूरी और अमूर नदियों के जल को लेकर हो चुका है। रूस और चीन में एक बार युद्ध फिर और होगा, क्योंकि रूस के प्रसिद्ध नगर व्लादिवोस्तोक का क्षेत्र वास्तव में चीन का है; जिसे अंग्रेजों ने चीन से छीन कर रूस को दे दिया था। चीन किसी भी कीमत पर वह क्षेत्र बापस चाहता है। व्लादिवोस्तोक का सामरिक महत्व इतना अधिक है कि रूस उसे कभी बापस नहीं लौटायेगा। मंगोलिया से व्लादिवोस्तोक तक बौद्ध-मत फैला था। मैं रूस के व्लादिवोस्तोक में बहुत अच्छी तरह घूमा-फिरा हूँ, और उस क्षेत्र को भलीभाँति जानता हूँ।
(7) तिब्बत में जो बौद्ध-मत फैला उसे वज्रयान कहते हैं। तिब्बती लामा -- तंत्र में आस्था रखते हैं, और माँ छिन्नमस्ता की उपासना करते हैं। तिब्बत में देवी का नाम कुछ अन्य है। माँ छिन्नमस्ता का निवास मणिपुरचक्र के पद्म में है, और वे सुषुम्ना की उपनाड़ी वज्रा में विचरण करती हैं, व उनका बीज "हुं" है। इसीलिए वज्रयान मत का साधना मंत्र -- "ॐ मणिपद्मे हुं" है। इसका अर्थ हुआ कि मणिपुर पद्मस्थ भगवती छिन्नमस्ता को नमन॥ हिमाचल प्रदेश के चिंत्यपूरणी देवी के मंदिर में उपासना के लिए बहुत से तिब्बती लामा आते हैं।
(८) हीनयान मत श्रीलंका और दक्षिणपूर्व देशों जैसे थाईलैंड (स्याम) आदि में फैला है। इन दोनों देशों का भ्रमण भी मैंने किया है। बैंकॉक में सोने से बनी बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा है। वहाँ के एक मंदिर में शुद्ध पन्ने से बनी बुद्ध प्रतिमा है। उस मंदिर की दीवारों पर चारों ओर चित्रों में रामायण अंकित है। वह मंदिर वास्तव में दर्शनीय है। इन्डोनेशिया में भी मुझे कुछ हीनयान बौद्ध मिले हैं। वहाँ जावा और कालीमंथन द्वीपों का भ्रमण किया है। वहाँ की बड़ी बड़ी दुकानों का नाम रामायण या उसके पात्रों के ऊपर है।
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बौद्ध मत को पूरे विश्व में ब्राह्मणों ने फैलाया, और ब्राह्मणों ने ही पूरे भारत से बौद्ध मत का खंडन कर भारत की मुख्य भूमि से बाहर कर दिया। चीन में तो कोई बौद्ध मंदिर मुझे नहीं मिला लेकिन ताइवान, जापान और दक्षिण कोरिया में अवश्य वहाँ के एक दो बौद्ध मठों का भ्रमण किया है। दक्षिण कोरिया में एक बहुत ऊंची पहाड़ी पर स्थित एक बौद्ध मठ में एक स्थानीय मित्र के साथ गया था। मेरे स्थानीय मित्र ने दुभाषिये का काम किया। वहाँ मठ में उन लोगों ने मेरा पूरा सत्कार किया। उनकी प्रार्थनाओं और भाषा को तो मैं नहीं समझ सका, लेकिन उनके व्यवहार से मैं प्रभावित अवश्य हुआ। बहुत पहले श्रीलंका में भी अनुराधापुर की कुछ स्मृतियाँ हैं। श्रीलंका में भाषा की समस्या नहीं है क्योंकि सभी अङ्ग्रेज़ी बोल लेते हैं।
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अंत में यही कहना चाहता हूँ कि धर्म की मेरी परिकल्पना और आस्था मनुस्मृति, महाभारत, रामायण और योगदर्शन पर आधारित है। जो वेदों को अपौरुषेय मानता है, वह आस्तिक है। जो वेदों को अपौरुषेय नहीं मानता, वह नास्तिक है। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
6 मार्च 2025
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पुनश्च: --- बहुत पहिले की बात है। यूक्रेन के ओडेसा नगर में एक वयोवृद्ध तातार मुस्लिम महिला ने मुझे अपने घर पर निमंत्रित किया। वह बहुत विदुषी महिला थी, जो अपने जीवन के दस वर्ष चीन की जेलों में राजनीतिक बंदी के रूप में काट चुकी थी। उसने मुझे बताया कि पूरे मध्य एशिया में इस्लाम के आगमन से पूर्व बौद्ध मत था। लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि सभी को बौद्ध मत को त्याग कर इस्लाम अपनाना पड़ा। वहाँ दो और मुस्लिम विद्वान मित्र मिले जो स्वयं को भारतीय मूल का बताते थे। उन्होने भी सप्रमाण बताया कि पूरा मध्य एशिया बौद्ध था, जो अभी इस्लाम मतानुयायी है।

अति संक्षेप में हिन्दू धर्म ---

 अति संक्षेप में हिन्दू धर्म ---

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आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों का भोग, पुनर्जन्म, ईश्वर के अवतारों में आस्था, व भक्ति और समर्पण के द्वारा भगवत्-प्राप्ति (आत्म-साक्षात्कार) --- ये सनातन सत्य हैं, जिन्हें हम हिन्दू-धर्म कहते हैं।
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स्वयं की अपने भौतिक, सूक्ष्म, व कारण शरीर से पृथकता का बोध कर -- कर्म, भक्ति और ज्ञानयोग के द्वारा परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है। इसे समझने के लिए हमें ईश्वर का निरंतर स्मरण, और उनके अनुग्रह की प्रार्थना करनी चाहिये।
यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का १५वाँ, और ईशावास्योपनिषद का १७वाँ मंत्र कहता है --
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर॥"
इसका भावार्थ है कि अंततः प्राणवायु तो अनिल में मिल जाती है, शरीर की परिणति भस्म हो जाना है, और शाश्वत आत्मा ही शेष रह जाती है। स्वयं को अपनी देह से भिन्न समझकर भगवान का स्मरण करते हुए भगवान को समर्पित हो जाना चाहिये।
"अथ वायुः अमृतम् अनिलम्। इदम् शरीरं भस्मान्तं भूयात्। ॐ क्रतो कृतं स्मर॥"
जीवात्मा अपने कर्मानुसार प्रकृति के नियम से बाध्य होकर एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त करती रहती है। जैसे वायु कहीं स्थिर नहीं रहती, वैसे ही यह जीव भी किसी योनि में स्थिर नहीं रहता। कब यह जीव शरीर से निकल जाये, इसका भरोसा नहीं है। अतः अपने कल्याण हेतु परमात्मा का निरंतर स्मरण करना चाहिये। तभी हम कृतकृत्य और कृतार्थ होंगे। अंत समय में यदि हम परमात्मा का स्मरण न भी कर पायेंगे तो परमात्मा ही हमारा स्मरण कर लेंगे।
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श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण निरंतर स्मरण को कहते हैं --
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८:५॥"
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८:६॥"
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है॥
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है वह उस (अन्तकाल के) भाव से सदा भावित होता हुआ उस-उसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उस-उस योनि में ही चला जाता है॥
इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो। मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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श्रुति भगवती (वेद) भी अनेक स्थानों पर कहती है कि देह का नाश हो जाने पर भी यह जीव अविनाशी है
"अविनाशी वाऽरेऽयमात्माऽनुच्छित्तिधर्मा" (बृहदारण्यक- ४/५/१४)
भावार्थ - यह आत्मा अविनाशी और अनुच्छित्ति (अक्षय) धर्मा है।
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यह हमारा सर्वोपरि परम कर्तव्य है कि हम स्वयं यानि अपने आप को -- परमात्मा को सौंप दें। कैसे सौंपें ??? ---
"ॐ" परमात्मा का नाम है --"तस्य वाचकः प्रणवः"-- योगसूत्र- /२७॥
अतः प्रणवरूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण को चढाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य का प्रमादरहित होकर संधान करें --
"प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥ मुण्डक २/२/४॥"
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यही बात अनेक उपनिषदों में बीसों बार कही गयी है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी अनेक स्थानों पर, विशेषकर आठवें अध्याय में यही बात कही गयी है। जैसे बाण का एक ही लक्ष्य होता है, वैसे ही हम सब का एक ही लक्ष्य परमात्मा होना चाहिये। हमें प्रणव या किसी भी भगवन्नाम का आश्रय लेकर प्रभु का ध्यान करते हुए स्वयं को उन तक पहुंचना है।
वराह पुराण में भगवान ने प्रतिज्ञा कर रखी है -- “अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्” यानि मृत्युकाल में कोई मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता, तो मैं उसका स्मरण करके उसे परम गति प्रदान करता हूँ।
हम भगवान का अंत समय में स्मरण न कर सकें तो भगवान हमारा स्मरण करते हैं। पर, हम हर समय उनका स्मरण करते रहें। भगवान् से उनके अनुग्रह की प्रार्थना करना हमारा दायित्व है।
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जिसमें जैसी बुद्धि होती है वह वैसी ही बात करता है। अपनी सीमित और अल्प बुद्धि से मैंने भी वही बात कह दी है। इससे अधिक की मेरी सामर्थ्य नहीं है। मुझसे कहीं कोई भूल हुई है तो मुझ अकिंचन को क्षमा करें। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
८ मार्च २०२५
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पुनश्च: --- (१) मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण दिये हैं। उन्हें धारण करना ही धर्म है। धर्म वह है जो धारण किया जाता है। इस दृष्टिकोण से सनातन धर्म ही एकमात्र धर्म है। अन्य सब रिलीजन, मजहव, पंथ, मत और फिरक़े हैं। वे धर्म नहीं है।
(२) कणाद ऋषि के वैशेषिक सूत्रों के अनुसार -- "यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः॥" अर्थात् जिससे अभ्यूदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है।
(३) महाभारत में जितनी अच्छी तरह से धर्म-तत्व को समझाया गया है, उतना तो अन्यत्र कहीं भी नहीं है।
(४) भगवान की शरणागत हो जायेंगे तो भगवान स्वयं ही हमें हमारी पात्रतानुसार सब कुछ समझा देंगे। शरणागति और समर्पण हमारे परम कर्तव्य हैं।