Monday, 13 October 2025

भारत में अगर चीनी सामान इतना अधिक बिकता है तो इसके लिए भारत के उद्योगपति जिम्मेदार हैं ---

 भारत में अगर चीनी सामान इतना अधिक बिकता है तो इसके लिए भारत के उद्योगपति जिम्मेदार हैं|

भारत के उद्योगपति कई आवश्यक सामानों का उत्पादन नहीं करते और चीन से आयात कर के उनका विक्रय करते हैं| उत्पादन के लिए कारखाने लगाने पड़ते हैं, मजदूरों को नौकरी देनी पड़ती है, हिसाब-किताब करना पड़ता है जिसके लिए और लोगों को नौकरी देनी पड़ती है, आदि आदि| इलेक्ट्रॉनिक्स व कम्प्यूटरों के स्पेयर पार्ट्स लिए हम पूरी तरह चीन पर निर्भर हैं|
जापानी कम्पनियाँ जापान में मजदूरी मंहगी होने के कारण अपने उत्पादनों की असेंबली चीन में करवाती है|
भारत के भी कई उद्योगपति अपना उत्पादन चीन में करवाते हैं|
अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के कारण हम किसी देश के उत्पादनों पर पूर्ण प्रतिबन्ध नहीं लगा सकते|
भारत के उद्योगपति बहुत अधिक मुनाफाखोर हैं| जो चीनी सामान पचास रुपये में मिल जाता है उसके भारत में उत्पादन में वे पाँचसौ रुपये बसूलेंगे|
तकनीक बहुत तेजी से बदलती है, पुराने कारखानों का नवीनीकरण करना पड़ता है, इतना धैर्य भारत के उद्योगपतियों में नहीं है| वे चीन से बना बनाया सामान आयात करने में अधिक विश्वास करते हैं|
भारत में मजदूर भी आसानी से नहीं मिलते| यहाँ रुपया तो सब चाहते हैं पर काम कोई नहीं करना चाहता|
ऐसे कई कारण और सरकारी नीतियाँ आदि सब जिम्मेदार हैं, चीनी सामान पर निर्भरता के लिए|
हाँ हम छोटे-मोटे सामान जैसे दीये, सजावटी लाइट्स, खिलौने, कपडे, छतरी, और बने बनाए मोबाइल सेट आदि का बहिष्कार कर सकते हैं|
पूरी तरह का बहिष्कार संभव नहीं है|
१४ अक्तुबर २०१६

हादी-कादी विद्या

लेखक : श्री नरेन्द्रभाई पाण्ड्या (राजकोट)। Dated १४ अक्तूबर २०१४ . श्री विद्या का सार श्री सुक्त है ।
श्री सुक्त का सार हादी और कादी विद्या है।
कादी विद्या अगत्स्य मुनिको दी गयी और उससे सुख की प्राप्ति होती है।
हादी विद्या अगत्स्य मुनिकी पत्नी लोपामुद्रा को दी गई जिससे आत्मोन्नति होती है।
कहा जाता है कि हादी और कादी दोनों की शक्तियां गायत्री से तीन तीन गुना ज्यादा है।
कादी मंत्र :- क ए ई ल ह्रीं, ह स क ह ल ह्रीं, स क ल ह्रीं ।
हादी मंत्र:- ह स क ल ह्रीं, ह स क ह ल ह्रीं, स क ल ह्रीं ।
जब दोनों को साथ में जोड़ दे तो हादी कादी दोनों के लाभ मिलते हैं और कई गुना ज्यादा और जल्दी भी यानी सुख और आत्मोन्नति एक साथ!!
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अन्तमें "श्रीं "जोड़ने से उसकी शक्ति और भी बढ़ जाती है।ये मंत्र ऐसा होता है :-
" ॐ क ए ई ल ह्रीं, ह स क ल ह्रीं, ह स क ह ल ह्रीं, स क ल ह्रीं श्रीं ॐ।
Above Mantra in English
"Aum ka ae ee la hrim,
ha sa ka la hrim,
ha sa ka ha la hrim,
sa ka la hrim sri aum."
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जब गुरु पुष्य या रवि पुष्य नक्षत्र के साथ अमृत सिद्धि योग होता है उस दिन ज्यादा से ज्यादा लोग इस मंत्र का लाभ उठाये ये मेरी मनोकामना, प्रार्थना है। आप खुद प्रभाव देख सकेंगे।
ज्यादा से ज्यादा और जल्दी से जल्दी शेयर करें।

Sunday, 12 October 2025

(१) कोई गृहस्थ व्यक्ति जो अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहता है, क्या सत्य यानि ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है ? (2) क्या कोई अपने सहयोगी को उसी प्रकार लेकर चल सकता है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है ?

 विभिन्न देहों में मेरे ही प्रियतम निजात्मन,

मैंने कुछ दिन पूर्व मात्र चर्चा हेतु मंचस्थ मनीषियों और विद्वानों से प्रश्न किया था कि .....
(१) कोई गृहस्थ व्यक्ति जो अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहता है, क्या सत्य यानि ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है ?
(2) क्या कोई अपने सहयोगी को उसी प्रकार लेकर चल सकता है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है ?
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मेरी दृष्टी में ये अति गहन प्रश्न हैं पर उनका उत्तर मेरे दृष्टिकोण से बड़ा ही सरल है जिसे मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ .....
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विवाह हानिकारक नहीं होता है| पर उसमें नाम रूप में आसक्ति आ जाए कि मैं यह शरीर हूँ, मेरा साथी भी शरीर है, तब दुर्बलता आ जाती है और इस से अपकार ही होता है| वैवाहिक संबंधों में शारीरिक सुख की अनुभूति से ऊपर उठना होगा| सुख और आनंद किसी के शरीर में नहीं हैं| भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता|
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यह अपने अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हमारा वैवाहिक जीवन कैसा हो| इसमें सुकरात के, संत तुकाराम व संत नामदेव आदि के उदाहरण विस्तार भय से यहाँ नहीं दे रहा|
हम ईश्वर की ओर अपने स्वयं की बजाय अनेक आत्माओं को भी साथ लेकर चल सकते हैं| ये सारे के सारे आत्मन हमारे ही हैं| परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने से पूर्व हम अपनी चेतना में अपनी पत्नी, बच्चों और आत्मजों के साथ एकता स्थापित करें| यदि हम उनके साथ अभेदता स्थापित नहीं कर सकते तो सर्वस्व (परमात्मा) के साथ भी अपनी अभेदता स्थापित नहीं कर सकते|
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क्रिया और प्रतिक्रया समान और विपरीत होती है| यदि मैं आपको प्यार करता हूँ तो आप भी मुझसे प्यार करेंगे| जिनके साथ आप एकात्म होंगे तो वे भी आपके साथ एकात्म होंगे ही| आप उनमें परमात्मा के दर्शन करेंगे तो वे भी आप में परमात्मा के दर्शन करने को बाध्य हैं|
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पत्नी को पत्नी के रूप में त्याग दीजिये, आत्मजों को आत्मजों के रूप में त्याग दीजिये, और मित्रों को मित्र के रूप में देखना त्याग दीजिये| उनमें आप परमात्मा का साक्षात्कार कीजिये| स्वार्थमय और व्यक्तिगत संबंधों को त्याग दीजिये और सभी में ईश्वर को देखिये| आप की साधना उनकी भी साधना है| आप का ध्यान उन का भी ध्यान है| आप उन्हें ईश्वर के रूप में स्वीकार कीजिये|
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और भी सरल शब्दों में सार की बात यह है की पत्नी को अपने पति में परमात्मा के दर्शन करने चाहियें, और पति को अपनी पत्नी में अन्नपूर्णा जगन्माता के| उन्हें एक दुसरे को वैसा ही प्यार करना चाहिए जैसा वे परमात्मा को करते हैं| और एक दुसरे का प्यार भी परमात्मा के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए| वैसा ही अन्य आत्मजों व मित्रों के साथ होना चाहिए| इस तरह आप अपने जीवित प्रिय जनों का ही नहीं बल्कि दिवंगत प्रियात्माओं का भी उद्धार कर सकते हो| अपने प्रेम को सर्वव्यापी बनाइए, उसे सीमित मत कीजिये|
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आप में उपरोक्त भाव होगा तो आप के यहाँ महापुरुषों का जन्म होगा|
यही एकमात्र मार्ग है जिस से आप अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते है, अपने सहयोगी को भी उसी प्रकार लेकर चल सकते है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है|
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मैं कोई अधिक पढ़ा लिखा विद्वान् नहीं हूँ, न ही मेरा भाषा पर अधिकार है और न ही मेरी कोई लिखने की योग्यता है| अपने भावों को जितना अच्छा व्यक्त कर सकता था किया है|
ईश्वर की प्रेरणा से ही यह लिख पाया हूँ| कोई भी यदि इन भावों को और भी अधिक सुन्दरता से कर सकता है और करना चाहे तो वह स्वतंत्र है|
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आप सब विभिन्न देहों में मेरी ही निजात्मा हैं, मैं आप सब को प्रेम करता हूँ और सब में मेरे प्रभु का दर्शन करता हूँ| आप सब को प्रणाम|
ॐ तत्सत् |
कृपा शंकर
१३ अक्टूबर २०१३

Saturday, 11 October 2025

भगवत्-प्राप्ति ही हमारा एकमात्र स्वधर्म है, अन्य सब परधर्म हैं ---

 भगवत्-प्राप्ति ही हमारा एकमात्र स्वधर्म है, अन्य सब परधर्म हैं ---

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हम शाश्वत आत्मा है, यह नश्वर देह नहीं। हम न तो यह शरीर (भौतिक, सूक्ष्म और कारण) हैं, न ही उससे जुड़ी हुई इंद्रियाँ (कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेंद्रियाँ) व उनकी तन्मात्राएँ हैं, और न ही हम अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) हैं। हमारा एकमात्र धर्म है -- परमात्मा की प्राप्ति। आत्मा का अन्य कोई धर्म नहीं है। यह भगवत्-प्राप्ति ही हमारा स्वधर्म है। हम अपने जीवन भर अंत समय तक स्वधर्म का ही पालन करें, और स्वधर्म में रहते हुये ही अंत समय में इस भौतिक देह का त्याग करें। भय, दुख और अशांति में जीने से अच्छा है कि निर्भयता, शांति व प्रसन्नता रूपी "आत्म-धर्म" में रहते हुये ही अंत समय में शरीर छोड़ें। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् -- सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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हमारा राग-द्वेष, लोभ और अहंकार हमारी बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है, और हम शास्त्रों के अर्थ का अनर्थ करने लगते हैं। हमारी भ्रष्ट बुद्धि परधर्म को भी धर्म मान लेती है। परधर्म निश्चित रूप से नर्क की प्राप्ति कराता है। गीता साक्षात भगवान की वाणी है, अतः इस में कोई शंका न हो। यह श्रद्धा-विश्वास का विषय है। जिस विषयका हमें पता नहीं है, उसका पता शास्त्र से ही लगता है। शास्त्र ही कहता है कि जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा धर्म करता है -- 'धर्मो रक्षति रक्षितः' (मनुस्मृति)। जो धर्म का पालन करता है, उसके कल्याण का भार धर्म पर और धर्म के उपदेष्टा भगवान्, वेदों, शास्त्रों, ऋषियों-मुनियों आदि पर होता है; तथा उन्हीं की शक्ति से उसका कल्याण होता है।​ जैसे धर्म का पालन करने के लिये भगवान्, वेद, शास्त्रों, ऋषि-मुनियों और संत-महात्माओं की आज्ञा है, इसलिये धर्म-पालन करते हुए मरने पर उन की शक्ति से ही कल्याण होता है। भगवान कहते हैं --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् - इस में क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
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उपरोक्त श्लोक की व्याख्या में अनेक महान भाष्यकारों ने अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा का उपयोग किया है। भगवान की ओर चलोगे तो उनकी परम कृपा होगी। तभी हम इसका सही अर्थ समझ पाएंगे। सार की बात यह है कि भगवत्-प्राप्ति ही हमारा स्वधर्म है , और उसका पालन ही इस संसार के महाभय से हमारी रक्षा करता है।
सभी महान आत्माओं और महापुरुषों का नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अक्तूबर २०२३

भारत राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा करना हमारा धर्म है ---

 भारत राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा करना हमारा धर्म है ---

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भारत की अस्मिता सत्य-सनातन-धर्म है। भारत में सभी को बहुत अधिक सावधान होने की आवश्यकता है। अगले कुछ वर्ष भारत के लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण होंगे, जिनके बारे में कुछ भी कहना "छोटे मुंह बड़ी बात" होगी। विश्व दो भागों में बँट रहा है, और विश्व की चिंतन-धारा भी बदल कर दो भागों में बँट रही है। चर्च-आधारित आधुनिक पश्चिमी सभ्यता, मार्क्सवाद, और इस्लामी आतंकवाद -- ये तीनों ही सनातन-धर्म के परम शत्रु हैं। ये कैसे भी सनातन-धर्म को नष्ट करना चाहते हैं। सनातन धर्म ही नहीं रहा, तो भारत भी नहीं रहेगा।
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निज जीवन में परमात्मा की अभिव्यक्ति ही हमारा सनातन-स्वधर्म है। हम स्वधर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म ही हमारी रक्षा करेगा। भगवान की भक्ति हमारा स्वभाव होना चाहिए। भगवान के भक्त को कोई नष्ट नहीं कर सकता। गीता में भगवान का वचन है --
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥ "
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
अर्थात् -- यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है॥
हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
​११ अक्तूबर २०२३

Wednesday, 8 October 2025

लखीमपुर काण्ड का मुख्य उद्देश्य :----

लखीमपुर काण्ड का मुख्य उद्देश्य :--- केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा को उनके पद से हटाना, क्योंकि अजय मिश्रा ने ऐसा बयान दिया था कि तराई में अवैध कब्जेधारी भूमाफिया भयग्रस्त हो गये थे। ऐसे में राकेश टिकैत से विचार विमर्श के बाद लखीमपुर काण्ड की पटकथा लिखी गई।

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लखीमपुर कांड :--- ये किसान नहीं,दुधवा नेशनल पार्क की सैकड़ों-हजारों एकड़ जमीन कब्जा कर बैठे भूमाफिया थे। लखीमपुर की हकीकत को मीडिया कभी नही बताएगी। सच्चाई कुछ और ही है जिसे छुपाया जा रहा है।
लखीमपुर घटना को लेकर वही नैरेटिव सेट किया जा रहा है जो दिल्ली दंगो को लेकर कपिल मिश्रा के बयान को लेकर किया गया था। आगे बढ़ने से पहले अजय मिश्रा का तथाकथित विवादित बयान भी जान लीजिए। कुछ दिन पूर्व जब मिश्र इस क्षेत्र में पहुंचे तो उन्हें अवैध कब्जाधारी भूमाफियाओं द्वारा काले झंडे दिखाए गए। इस पर मिश्रा ने चेतावनी देते हुए कहा कि ये सब बन्द करो। हमें आपकी हरकतें पता है शीघ्र ही कड़ी कार्रवाई होगी। इसी बयान को मीडिया विवादित बयान कहकर घटना का जिम्मेदार बता रहा है।
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किन्तु प्रश्न ये उठता है आखिर क्या है वो हरकत जिस पर केंद्रीय मंत्री ने इशारा किया था? क्या ये आन्दोलनजीवियों की कमजोर नस है जो दब गई? इसके लिये आपको घटनास्थल के आसपास के क्षेत्र की भौगोलिक और डेमोग्राफिक स्थिति समझना होगी। आप देखेंगे तो ये पूरा क्षेत्र दुधवा फौरेस्ट के नजदीक है। यहां पर शारदा, घाघरा जैसी नदियां है जिससे ये क्षेत्र सिंचित क्षेत्र कहलाता है जो कि खेती के लिए आदर्श स्थिति है। डेमोग्राफी देखें तो पूरे लखीमपुर जिले की लगभग आधी भूमि आर भूमाफियाओं का अधिकार है। जहां पर ये घटना घटी १५ प्रतिशत पंजाबी हैं जिनके अधिकार मे अधिकांश भूमि अवैध है। यहां के तथाकथित किसान कोई गरीब मजबूर किसान नहीं हैं। अधिकतर के सैकड़ों एकड़ में फैले फार्महाउस है जो उन्होंने अतिक्रमण कर बनाए हैं। यहां साढ़े बारह एकड़ भूमि सीलिंग नियम के अंतर्गत आती है, इसलिए किस तरह से यहां सैकड़ों एकड़ में फार्महाउस बनाए गए बताने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए कृषि बिल का विरोध है क्योंकि बिल गरीब किसानों के लिए ही है जिससे धन्ना किसानों को अपनी जमीदारी खिसकती दिख रही है।
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इसलिए जब कुछ दिन पूर्व मंत्री अजय मिश्रा ने कहा कि हम आपकी हरकतें जानते हैं और बड़ी कार्रवाई होगी तब यहां के बाहुबली किसानो में खलबली मच गई। ध्यान रहे अजय मिश्रा केंद्रीय गृह राज्य मंत्री है और योगी सरकार भी माफियाओं के ऊपर शिकंजा कसने के लिए जानी जाती है। अतः मंत्री की चेतावनी से घबराए आन्दोलनजीवियों ने अपने आकाओं को खबर दी, जिन्होंने मौका देख कर चौका मारने का इशारा दे दिया ताकि किसी भी कीमत पर अजय मिश्रा को मंत्री पद से हटवाया जाए।
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क्या थी पूरी घटना? शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि इस क्षेत्र में श्राद्ध के दौरान दंगल का आयोजन होता है जो वर्षो से चला आ रहा है। अजय मिश्रा का लखीमपुर जिले में गृहक्षेत्र है। वे स्वयं पहलवान रहे हैं और क्षेत्र के सम्मानित व्यक्ति हैं। वे अक्सर इस आयोजन में जाते रहें हैं,अतः आयोजकों ने इसमें शामिल होने के लिए उपमुख्यमंत्री मौर्य और अजय मिश्रा को आमंत्रित किया। भनक लगते ही हजारों की संख्या में भूमाफियाओं ने हेलिपेड को घेर लिया। तब मौर्य सड़क के रास्ते से निकल गए क्योंकि अराजकतावादियों का निशाना तो अजय मिश्र थे।
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जैसे ही मिश्र का काफिला संवेदनशील (पालघर जैसी) जगह से निकला, सैंकड़ो की संख्या में पंजाब से आए गुंडों ने आगे चल रही चार गाड़ियों को रोककर ताबड़तोड़ हमला कर दिया, जिसमें एक गाड़ी पलटने से दो आंदोलनकारियों की गाड़ी से दबकर और दो की धक्का लगने से मौत हो गई। गुस्साई अराजक आन्दोलनजीवी भीड़ ने गाड़ी से खींच कर 5 लोगों को डंडों से पीट पीटकर बेरहमी से तड़पा तड़पा कर हत्या कर दी। कहने की जरूरत नहीं कि ये पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित देशद्रोही तत्व थे, जिन्हें कांग्रेस, सपा तथा तृणमूल कांग्रेस जैसी भारतीय राजनीतिक दलों का आशीर्वाद और खुला समर्थन प्राप्त है।
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जैसे 1761 में देश विरोधी तत्वों ने अहमद शाह अब्दाली को निमंत्रण देकर पानीपत के मैदान में मराठों का विनाश कराया था, उसी तरह इस बार उन्हीं अराजक तत्वों को आमंत्रित करके भाजपा की केंद्र तथा राज्य सरकार को मिटाने का षड्यंत्र रचा गया है।
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इस दर्दनाक घटना के बाद अराजकजीवियो ने प्लान B के तहत मृतक परिवारो को आगे कर टिकैत को बुलाने की मांग की। योगी सरकार ने मामला समझते हुए तुरंत राजनीति करने आए विपक्षी गिद्धों को नजरबंद कर, टिकैत को जाने दिया, और समझौता करवाकर बड़े षड्यंत्र को असफल कर दिया।
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अब शायद आपको घटना की सच्चाई समझ आ गई होगी। षडयंत्र का मुख्य हिस्सा कैसे भी करके अजय मिश्र को मंत्रिपद से हटवाना है। यदि ऐसा हुआ तो षडयन्त्रकारियों की जीत होगी और उनके हौसले और भी बुलंद होंगे। आगे जाकर इसकी आंच गृहमंत्री अमित शाह के इस्तीफे तक भी पहुंच सकती है।
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योगी सरकार के लिए भी ये परीक्षा की घड़ी है। योगी जी को अब इस क्षेत्र में बने फार्महाउसों पर जांच बैठा देनी चाहिए। जांच होने दीजिए, शीघ्र ही सच सामने आ जाएगा। ९ अक्तूबर २०२१

क्रीमिया प्रायद्वीप ---

 क्रीमिया प्रायद्वीप ---

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करीम नाम के एक तुर्क योद्धा के नाम पर क्रीमिया प्रायदीप का नाम पड़ा है। सामरिक दृष्टि से यहाँ का बंदरगाह सेवास्तोपोल बहुत अधिक महत्वपूर्ण स्थान है। सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) के समय क्रीमिया में तातार जाति के मुसलमान रहते थे। १८ वी सदी में क्रीमिया पर रूस ने अधिकार कर लिया। इंग्लैंड और फ्रांस ने भी क्रीमिया पर अधिकार करने के लिए एक युद्ध लड़ा था जिसमें उन्हें कुछ भी नहीं मिला। सोवियत संघ बनने के बाद वहाँ के तानाशाह जोसेफ़ स्टालिन ने क्रीमिया के सब तातार मुसलमानों को वहाँ से हटा कर रूस की मुख्य भूमि में बसा दिया, और उस क्षेत्र को तातारिस्तान गणराज्य का नाम दिया, जिसकी राजधानी कजान है। यह रूस का बहुत सम्पन्न क्षेत्र है। कई तातार मुसलमान परिवारों से मेरा अच्छा परिचय और मित्रता थी। उनका अब तुर्की से कोई संबंध नहीं रहा है। लगभग सब ने रूसी भाषा और संस्कृति अपना ली है।
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जोसेफ स्टालिन ने क्रीमिया में रूसी नस्ल के लोगों को बसा दिया। बाद में अन्य नस्लों के लोगों को भी वहाँ आने की अनुमति मिल गई और कई सौ परिवार तातार मुसलमानों के भी बापस वहाँ आ गए। जोसेफ़ स्टालिन के बाद निकिता ख्रुश्चेव सत्ता में आए तो उन्होने सन १९५४ में यूक्रेन गणराज्य को भेंट में क्रीमिया प्रायदीप दे दिया। तब सोवियत संघ था अतः किसी भी तरह के विवाद का कोई प्रश्न ही नहीं था।
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२६ दिसंबर १९९१ को सोवियत संघ का विघटन हो गया और रूस व यूक्रेन अलग-अलग देश हो गए। २६ फरवरी २०१४ को हथियारबंद रूस समर्थकों ने यूक्रेन के क्रीमिया प्रायद्वीप में संसद और सरकारी इमारतों पर अधिकार कर लिया। ६ मार्च २०१४ को क्रीमिया की संसद ने रूसी संघ का हिस्सा बनने के पक्ष में मतदान किया। जनमत संग्रह के परिणामों को आधार बनाकर १८ मार्च २०१४ को क्रीमिया को रूसी फेडरेशन में मिलाने के प्रस्ताव पर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने हस्ताक्षर कर दिए। इसके साथ ही क्रीमिया रूसी फेडरेशन का हिस्सा बन गया। रूस ने वहाँ अपनी सेना भेज दी और अपनी स्थिति बहुत मज़बूत कर ली। रूस का तर्क यह था कि वहाँ रूसी मूल के लोग ही रहते हैं, और १८वीं शताब्दी से ही वह रूस का भाग रहा है। यूक्रेन के पक्ष में लगभग पाँच या छह प्रतिशत मत पड़े थे।
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दूसरा विवाद अजोव सागर में प्रवेश को लेकर "कर्च जलडमरूमध्य" पर था। उस समय यह बहुत छोटा सा मामला था जो आराम से बातचीत द्वारा सुलझाया जा सकता था। लेकिन अमेरिकी दखल ने मामले को बहुत अधिक जटिल बना दिया, जिसकी परिणिती युद्ध में हुई है। रूस ने ८ साल की देरी कर दी। यह युद्ध उसे २०१४ में ही आरंभ कर के यूक्रेन के आधीन रूसी बहुल क्षेत्रों को यूक्रेन से छीन लेना चाहिए था। तत्कालीन दुःखद व दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियाँ मैं अपने पूर्व लेखों में लिख चुका हूँ। उन्हें दुबारा नहीं लिखना चाहता। मेरा समर्थन रूस को है क्योंकि रूस का पक्ष न्यायोचित है।
कृपा शंकर
९ अक्टूबर २०२२

सामने शांभवी मुद्रा में स्वयं वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण ध्यानस्थ बिराज रहे हैं ---

सामने शांभवी मुद्रा में स्वयं वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण ध्यानस्थ बिराज रहे हैं। वे कूटस्थ हैं। सारी सृष्टि उनका केंद्र है, परिधि कहीं भी नहीं। मेरी दृष्टि उन पर स्थिर है। उनका दिया हुआ सारा सामान -- ये मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, इन्द्रीयों की तन्मात्राऐं, भौतिक सूक्ष्म व कारण शरीर, सारे विचार व भावनाऐं -- उन्हें बापस समर्पित हैं। मैं शून्य हूँ। फिर भी एक चीज शाश्वत मेरा अस्तित्व है, वह है उनका परमप्रेम, जो मैं स्वयं हूँ। . जिस दिन ठीक से भगवान का भजन और ध्यान नहीं होता, उस दिन स्वास्थ्य बहुत अधिक खराब हो जाता है। मन को प्रसन्नता और स्वास्थ्य -- केवल भगवान के भजन और ध्यान से ही मिलता है। भगवान के भजन बिना इस शरीर को ढोने का अन्य कोई उद्देश्य नहीं है। इस संसार में कोई रस नहीं है। रस केवल भगवान में है। वे महारस-सागर और सच्चिदानंद हैं। उनसे कुछ नहीं चाहिए, जो कुछ भी उनका सामान है, वह उनको बापस लौटाना है। .

जो भी जीवन हमने जीया है, वह लौट कर कभी बापस नहीं आ सकता। परमात्मा नित्य नवीन, नित्य सचेतन, और नित्य अस्तित्व हैं। परमात्मा स्वयं ही यह सृष्टि बनकर अंधकार और प्रकाश के रूप में व्यक्त हो रहे हैं। जीवन की सार्थकता प्रति क्षण परमात्मा की चेतना में बने रहना है। उनकी विस्मृति ही मृत्यु है, और स्मृति ही जीवन है। मैं केवल उन्हीं के साथ हूँ, जो परमात्मा को समर्पित हैं। ॐ तत्सत्!! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अक्तूबर २०२४



'भक्ति', 'ज्ञान' और 'वैराग्य' के वातावरण में मैं रहना चाहता हूँ ---

 'भक्ति', 'ज्ञान' और 'वैराग्य' के वातावरण में मैं रहना चाहता हूँ। लेकिन पूर्व जन्मों में मैंने विशेष अच्छे कर्म नहीं किये थे, जिनका फल भुगतने के लिए मुझे सांसारिक विषमताओं में से गुजरना पड़ रहा है। परमात्मा को उपलब्ध होने की एक प्रबल अभीप्सा है। प्रार्थना है कि अगला जन्म पूर्ण रूप से -- वैराग्य, ज्ञान और भक्तिमय हो।

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बौद्धिक स्तर पर मुझे कोई संशय नहीं है। लेकिन वृद्धावस्था के कारण अब शरीर साथ नहीं दे रहा है। लगता है इस दीपक में अब अधिक ईंधन नहीं बचा है। जब तक जगन्माता इस देह में प्राण-तत्व के रूप में गतिशील है, परमशिव/पुरुषोत्तम को यह जीवन समर्पित है। बाद में वे जानें।
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"गुण गोविंद गायो नहीं, कियो न हरिः को ध्यान" --- यह जीवन की सबसे घनीभूत पीड़ा है। गोविंद के गुणों को जीवन में अवतरित नहीं किया, और भगवान श्रीहरिः का कभी ध्यान नहीं किया। इससे बड़ी पीड़ा और क्या हो सकती है? हे प्रभु, हो सके तो इस अक्षम्य अपराध के लिए क्षमा कर देना।
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इसी पीड़ा के साथ जन्म लिया था, और इसी पीड़ा को लिए लिए इस संसार से चले जाएँगे। जब भी इस संसार में जन्म हो तो जन्म के समय से ही ज्ञान, भक्ति और वैराग्य अपनी पूर्णता में हों। इतनी छोटी सी प्रार्थना तो कर ही सकते हैं। और इससे अधिक प्रार्थना करने की बुद्धि नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० सितंबर २०२५

जिस घर में नित्य निम्न ८ चौपाइयों का पाठ होता है, उस घर में कभी दरिद्रता नहीं आती ---

 राजस्थान के एक बहुत प्रसिद्ध महात्मा विजय कौशल जी महाराज के श्रीमुख से अनेक बार सुना है कि जिस घर में नित्य निम्न ८ चौपाइयों का पाठ होता है, उस घर में कभी दरिद्रता नहीं आती।

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"जब तें रामु ब्याहि घर आये। नित नव मंगल मोद बधाये॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥
रिधि सिधि संपति नदी सुहायी। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आयी॥
मनिगण पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी॥
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥"

"जब तक हम अपनी कामनाओं से निःस्पृह होकर निजस्वरूप आत्मा में स्थित नहीं होते, तब तक यह जीवन कष्टमय और अशांत ही रहेगा।" .

 "जब तक हम अपनी कामनाओं से निःस्पृह होकर निजस्वरूप आत्मा में स्थित नहीं होते, तब तक यह जीवन कष्टमय और अशांत ही रहेगा।"

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गीता के "आत्मसंयम योग" नामक छठे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण हमें केवल आत्मा में ही स्थित होने को कहते हैं। साथ साथ यह भी बता रहे हैं कि जब तक भोगों की तृष्णा है, तब तक यह संभव नहीं है।
"यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥६:१८॥"
"यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥६:१९॥" (गीता)
इसका भावार्थ होगा कि जैसे वायुरहित स्थान में रखे हुये दीपक की लौ विचलित नहीं होती, वैसी ही हमारे चित्त की गति हो।
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हे प्रभु, मैं कभी तत्व से विचलित न होऊँ, सदा निरंतर आप में स्थित रहूँ, और विषय-वासनाओं का चिंतन भूल से भी न हो।
"नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये,
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे।
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥" (रामचरितमानस)
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ॐ तत्सत् !! सोहं !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥
कृपा शंकर
२५ सितंबर २०२५

"पूरे भारत में ही नहीं, पूरी सृष्टि में हमारी अस्मिता -- सत्य-सनातन-धर्म (हिंदुत्व) की रक्षा होगी ---

 "पूरे भारत में ही नहीं, पूरी सृष्टि में हमारी अस्मिता -- सत्य-सनातन-धर्म (हिंदुत्व) की रक्षा होगी। चारों ओर छायी हुई असत्य और अंधकार की शक्तियाँ निश्चित रूप से पराभूत होंगी। भारत अपने द्विगुणित परम-वैभव के साथ एक अखंड सत्यधर्मनिष्ठ राष्ट्र बनकर उभरेगा। सारी नकारात्मकतायें भारत से समाप्त होंगी।" --- यह एक दैवीय आश्वासन है, जो कभी असत्य नहीं हो सकता।

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हमारे निज जीवन में हम परमात्मा को निश्चित रूप से अवतरित करेंगे। हरिःकृपा भी निश्चित रूप से हमारे ऊपर फलीभूत होगी। हमारा जीवन परमात्मा को समर्पित है। परमात्मा से पृथक हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। हर समय (दिन में चौबीस घंटे, सप्ताह में सातों दिन) सूक्ष्म जगत में आज्ञाचक्र से बहुत ऊपर एक श्वेत ज्योतिः के प्रति सजग रहें। समय के साथ शनैः शनैः वह ज्योतिः एक अति प्रखर और विराट पंचकोणीय नक्षत्र के रूप में व्यक्त होगी जिसके चारों ओर फैला हुआ श्वेत प्रकाश एक नीले आवरण से ढका हुआ होगा। वह नीला आवरण भी एक स्वर्णिम आवरण से ढका हुआ होगा। यह सर्वव्यापी कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म है जिसकी ज्योतिः से प्रणव की ध्वनि भी धीरे धीरे निरंतर निःसृत हो रही है। सारी सृष्टि इनके भीतर और ये सारी सृष्टि के भीतर हैं।
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ये ही मेरी चेतना के केन्द्रबिन्दु और ध्यान के विषय हैं। इनके प्रति सजग रहते हुए ही "अजपा-जप" और "नादानुसंधान" करें। इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी अन्य नहीं कहना है। अंत में सदा एक बात याद रखें कि एकमात्र कर्ता वे परमात्मा ही हैं, हम केवल एक सतत् साक्षी और निमित्त मात्र हैं। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ सितंबर २०२५

भगवान अपनी साधना स्वयं ही करते हैं। मैं कोई साधक नहीं हूँ ---

 भगवान अपनी साधना स्वयं ही करते हैं। मैं कोई साधक नहीं हूँ ---

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पूरे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) की एक ही अभीप्सा है कि नित्य-सचेतन नित्य-नवीन नित्य-वर्तमान सच्चिदानंद परमशिव की चेतना हर समय निज-चैतन्य में छायी रहे। निज विचारों व भावों में भी निरंतर परमशिव रहें। लेकिन होता वही है जैसी उनकी इच्छा होती है। मैं ध्यान तो परमशिव का करने का प्रयास करता हूँ लेकिन एक छवि शांभवी मुद्रा में वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण की भी स्वतः ही आ जाती है। यह अनेक वर्षों से हो रहा है। वे स्वयं अपनी साधना स्वयं करते हैं। मैं केवल एक निमित्त साक्षीमात्र ही बन कर रह गया हूँ। अपनी स्वतंत्र इच्छा से मैं कुछ भी नहीं कर पाता। वैसे परमशिव और पुरुषोत्तम में कोई भेद नहीं है, दोनों एक हैं। वे ही परमब्रह्म हैं, और वे ही सच्चिदानंद हैं।
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मैं ईश्वर के अवतारों में श्रद्धा और विश्वास रखता हूँ। जब निज-चेतना सर्वव्यापी ब्रह्म के साथ एक होने लगती है, तब ही समझ में आता है कि सारे आकार जिसके हैं, वे ही निराकार हैं। जो भी सृष्ट हुआ है वह निराकार से साकार हुआ है। अतः साकार और निराकार दोनों में कोई भेद नहीं है। जो श्रीराम हैं, वे ही श्रीकृष्ण हैं, और वे ही शिव हैं। हरिः और हर में कोई भेद नहीं है।
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जब बात परमात्मा के मातृरूप की आती है, तब विषय थोड़ा सा जटिल होकर परिवर्तित हो जाता है। इस विषय को अपनी स्वयं की अनुभूतियों से समझना बड़ा सरल है, लेकिन किसी अन्य को समझाना बड़ा कठिन है।
तब भगवती स्वयं ही कर्ता होकर स्वयं को कुंडलिनी महाशक्ति के रूप में व्यक्त कर परमशिव का ध्यान स्वयं करती हैं। दूसरे शब्दों में महाकाली ही एकमात्र कर्ता होकर सारे कर्मफल श्रीकृष्ण को अर्पित करती हैं।
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कुंडलिनी महाशक्ति और परमशिव का मिलन ही योग-साधना की अंतिम परिणिति है। तब स्वयं में और परमात्मा में कोई भेद नहीं रहता। इससे आगे कोई शब्द नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ सितंबर २०२५

यह ध्यान कौन कर रहा है? क्या यह मेरी "श्रद्धा और विश्वास है?" निजात्मा को प्रत्यगात्मा कहूँ या परमात्मा? वाणी मौन है।

 यह ध्यान कौन कर रहा है? क्या यह मेरी "श्रद्धा और विश्वास है?" निजात्मा को प्रत्यगात्मा कहूँ या परमात्मा? वाणी मौन है।

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"जहाँ है श्रद्धा वहाँ है प्रेम, जहाँ है प्रेम वहीं है शांति। जहाँ होती है शांति, वहीं विराजते हैं ईश्वर। जहाँ विराजते हैं ईश्वर, वहाँ किसी अन्य की आवश्यकता ही नहीं है।"
''भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥" (रा.मा.)
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श्रद्धा-विश्वास परमात्मा में ही सिमट गया है, अन्यत्र कहीं भी नहीं। सत्य का अनुसंधान परमात्मा में ही हो। गीता में भगवान कहते हैं --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥४:३९॥"
"अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥४:४०॥"
अर्थात् -- श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है॥४:३९॥
अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है, (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है, न परलोक और न सुख॥४:४०॥
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किसी में बुद्धिभेद उत्पन्न कर उसकी श्रद्धा को भंग नहीं करना चाहिए। दूसरों को सुधारने का प्रयास -- निज आचरण से ही होना चाहिए। भगवान कहते हैं --
"न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्॥
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्॥३:२६॥
अर्थात - ज्ञानी पुरुष कर्मों में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे, स्वयं (भक्ति से) युक्त होकर कर्मों का सम्यक् आचरण कर उनसे भी वैसा ही कराये॥
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इस से अधिक और लिखना आवश्यकता नहीं है क्योंकि जो भी इस लेख को पढ़ रहे हैं, वे सब विवेकशील समझदार मनीषी हैं। परमात्मा के सर्वश्रेष्ठ साकार रूप आप सब को नमन।
"ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आ सुव॥"
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ सितंबर २०२५

मैं श्वास क्यों लेता हूँ? ---

 मैं श्वास क्यों लेता हूँ?

मैं आनंदित हूँ, मेरी साँसें चल रही हैं, क्योंकि हरेक साँस के साथ मेरे प्रभु मुझे याद करते हैं। हरेक श्वास के साथ मेरे प्रभु मुझे अपने महासागर की गहनतम गहराई में ले जाते हैं। हरेक प्रश्वास के साथ प्रभु फिर मुझे बापस छोड़ देते हैं। यह महासागर ऊर्ध्व में है, जिसके अस्तित्व का और मार्ग का मुझे बोध है। वास्तव में भगवान स्वयं ही हमारे माध्यम से सांस लेते हैं।

जीवन का सारा भटकाव भगवान विष्णु के चरण कमलों में समर्पित करें। हमारा समर्पण वहीं आकर पूर्ण हो। उनके चरण-कमल प्रकाशमय हैं। उस प्रकाश में ही हम समर्पित हों। यह बड़ी से बड़ी बात है जिसकी कल्पना मैं कर सकता हूँ। इससे आगे कहने के लिए और कुछ भी नहीं है।


हमारी समस्याएँ संसार में हैं, या हमारे मन में? ---

 हमारी समस्याएँ संसार में हैं, या हमारे मन में?

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यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर मैं नहीं दे सकूँगा। इसका उत्तर आप ही देकर मुझे अनुग्रहित कीजिये।
(१) आध्यात्मिक दृष्टी से तो सब समस्याएँ हमारे मन में हैं।
(२) सांसारिक दृष्टी से सब समस्याएँ हमारे चारों ओर की परिस्थितियों में हैं।
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मैनें एक जर्मन यहूदी की आत्मकथा पढी थी जिसकी आँखों के सामने ही उसके माता-पिता और भाई-बहिनों की हत्या कर दी गयी थी। उसके सारे सम्बन्धी प्रताड़ित और यंत्रणा देकर मार दिये गए थे। यंत्रणा शिविर में उसके सारे मित्र पागल होकर मर गये थे। सब तरह की यंत्रणाओं को सहकर और कई दिनों की भूख-प्यास के बावजूद भी उसने अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया, और दृढ़ मनोबल और परमात्मा में आस्था के कारण तब तक जीवित रहा जब तक जर्मनी की हार हुई और अमेरिकी सेनाओं द्वारा जीवित बचे यहूदी बंदियों को बचाया गया।
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भारत के विभाजन के समय हजारों हिन्दू महिलाओं ने नदी में या कुएँ में कूद कर अपने प्राण दे दिए, लाखों हिन्दुओं की हत्याएँ हुईं, रेलगाड़ियों में हज़ारों हिन्दुओं की लाशों को भरकर पकिस्तान से भारत भेजा गया। ऐसे दृश्य देखकर भी अनेक लोग विचलित नहीं हुए। इसके पीछे उनकी आस्था ही थी। यहाँ समस्या मन में नहीं परिस्थितियों में थीं।
किसी भी तरह की विकट से विकट परिस्थिति का हम बिना विचलित हुए सामना तभी कर सकते हैं जब हमारी परमात्मा में अति गहन आस्था हो, अन्यथा नहीं।
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यह संसार परमात्मा की रचना है। उसी के बनाये नियमों से और उसी की इच्छा से यह संसार चल रहा है और चलता रहेगा। बिना किसी अपेक्षा के जीवन में जो भी सर्वश्रेष्ठ हम कर सकते हैं वह ही हमें करना चाहिए और अन्य सब बातों की चिंता छोड़कर परमात्मा का ही चिंतन करना चाहिए। तभी हम सुखी हो सकते हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ अक्तूबर २०२५

साधना के समय एक तो अपनी कमर को सीधी रखने का, दूसरा अपनी ठुड्डी को भूमि के समानान्तर रखने का, और तीसरा अपनी जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालु से सटाकर अर्धखेचरी मुद्रा में रखने का अभ्यास करें।

 --- साधना के मार्ग पर हर आयु की अनेक माताओं से मेरा परिचय हुआ है। मुझे उनकी आयु से नहीं मतलब, मैं उन सब को माता के रूप में नमन करता हूँ। वे सब मुझे अपने पुत्र के रूप में अपना आशीर्वाद प्रदान करें। साधना की जिस अवस्था में मैं हूँ, उसमें सारी मातृशक्ति माता के रूप में ही मुझे अनुभूत होती हैं।

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अब मैं सभी स्त्री-पुरुषों को नमन करते हुये उनसे अनुरोध करता हूँ कि वे साधना के समय एक तो अपनी कमर को सीधी रखने का, दूसरा अपनी ठुड्डी को भूमि के समानान्तर रखने का, और तीसरा अपनी जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालु से सटाकर अर्धखेचरी मुद्रा में रखने का अभ्यास करें। जो पूर्ण खेचरी कर सकते हैं उनकी तो बात ही अलग है। उपरोक्त तीनों बातें साधना के लिए परम आवश्यक हैं। ये आप नहीं कर सकते तो मुझे छोड़ दीजिये।
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जिनकी कमर झुक गयी हैं, जो सीधे नहीं बैठ सकते, उन्हें इस जन्म में तो कोई सिद्धि नहीं मिल सकतीं, उन्हें दुबारा जन्म लेना पड़ेगा। शिव-संहिता में बताई हुई महामुद्रा का साधना से पूर्व दो-तीन बार अभ्यास करें। साधना के मध्य में जब थक जायें, तब भी हर बार महामुद्रा का अभ्यास करने से बहुत लाभ होगा। हठयोग के पश्चिमोत्तानासन के अभ्यास से महामुद्रा सिद्ध होगी। अब इस बात का अभ्यास करें कि बिना हिले-डुले, कमर सीधी रखते हुये, एक ही आसन में आप कम से कम एक घंटे तक बैठ सकें। जो भूमि पर नहीं बैठ सकें, वे भूमि पर एक कंबल बिछा कर, उस पर बिना हत्थे की एक कुर्सी पर बैठ सकते हैं। लेकिन कमर निरंतर सीधी रहे।
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अब आप अजपा-जप और नादानुसंधान का अभ्यास कर सकते हैं। दिन में दो बार उपरोक्त अभ्यास कीजिये। श्रीमद्भगवद्गीता का नित्य थोड़ा-थोड़ा अपनी पूर्ण श्रद्धा से स्वाध्याय परम आवश्यक है।
अपना मार्गदर्शन किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से प्राप्त करें जिनकी आस्था श्रुतियों में हो। इससे आगे मैं आपका मार्गदर्शन करने में असमर्थ हूँ। मेरा स्वास्थ्य इस आयु में इसकी अनुमति नहीं देता।
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आपका जीवन कृतकृत्य और कृतार्थ हो। मंगलमय शुभ कामनाएँ।
कृपा शंकर
८ अक्तूबर २०२५

Tuesday, 7 October 2025

सनातन हिन्दू धर्म के बिना ..... भारत, भारत नहीं है| भारत ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है ..... .

 सनातन हिन्दू धर्म के बिना ..... भारत, भारत नहीं है| भारत ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है .....

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भारत आज भी यदि जीवित है तु उन महापुरुषों, साधू-संतों के कारण जीवित हैं जिन्होंने निज जीवन में ईश्वर को व्यक्त किया, न कि धर्मनिरपेक्ष नेताओं, मार्क्सवादियों, अल्पसंख्यकवादियों, समाजवादियों और तथाकथित राजनीतिक सुधारवादियों के कारण|
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भारत में एक से एक बड़े बड़े चक्रवर्ती सम्राट हुए, महाराजा पृथु जैसे राजा हुए जिन्होंने पूरी पृथ्वी पर राज्य किया और जिनके कारण यह ग्रह "पृथ्वी" कहलाता है| एक से एक बड़े बड़े सेठ साहूकार हुए| भारत में इतना अन्न होता था कि सम्पूर्ण पृथ्वी के लोगों का भरण पोषण हो सकता था, इसलिए यह राष्ट्र भारतवर्ष कहलाता था| एक छोटा मोटा गाँव भी हज़ारों लोगो को भोजन करा सकता था| लोग सोने कि थालियों में भोजन कर थालियों को फेंक दिया करते थे| राजा लोग हज़ारों गायों के सींगों में सोना मंढा कर ब्राह्मणों को दान में दे दिया करते थे| पर हम अपनी संस्कृति में उन चक्रवर्ती राजाओं और सेठ-साहूकारों को आदर्श नहीं मानते और ना ही उनसे कोई प्रेरणा लेते हैं| हम आदर्श मानते हैं और प्रेरणा लेते हैं तो भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण से, क्योंकि उनके जीवन में परमात्मा अवतरित थे| हमारे आदर्श और प्रेरणास्त्रोत सदा ही भगवान के भक्त और प्रभु को पूर्णतः समर्पित संतजन रहे हैं| और उन्होंने ही हमारी रक्षा की है, और वे ही हमारी रक्षा करेंगे|
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इस पृथ्वी पर चंगेज़, तैमूर, माओ, स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी, अँगरेज़ शासकों, व मुग़ल शासकों जैसे क्रूर अत्याचारी, और कुबलई जैसे बड़े बड़े सम्राट हुए पर वे मानवता को क्या दे पाए? अनेकों बड़े बड़े अधर्म फैले और फैले हुए हैं, वे क्या दे पाए हैं या भला कर पाए हैं? कुछ भी नहीं| पृथ्वी पर कुछ भला होगा तो उन्हीं लोगों से होगा जिनके ह्रदय में परमात्मा है|
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ॐ तत्सत् |ॐ ॐ ॐ ||
०८ अक्टूबर २०१७