शांभवी मुद्रा --- एक स्वभाविक मुद्रा है जो ध्यान करते-करते धीरे धीरे स्वतः ही होने लगती है। अगर पद्मासन और खेचरी का अभ्यास है तो शांभवी मुद्रा बहुत ही शीघ्र सिद्ध हो जाती है, अन्यथा थोड़ा समय लगता है। सारे उन्नत योगी शाम्भवी मुद्रा में ही ध्यानस्थ रहते हैं। सुखासन अथवा पद्मासन में बैठकर मेरुदंड को उन्नत रखते हुए साधक शिवनेत्र होकर अर्धोन्मीलित नेत्रों से भ्रूमध्य पर दृष्टी स्थिर रखता है। धीरे धीरे पूर्ण खेचरी या अर्ध-खेचरी भी स्वतः ही लग जाती है|
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आध्यात्मिक रूप से खेचरी का अर्थ है --- चेतना का सम्पूर्ण आकाश में विचरण, यानि चेतना का इस भौतिक देह में न होकर पूरी अनंतता में होना है। भौतिक रूप से खेचरी का अर्थ है -- जिह्वा को उलट कर तालू के भीतर भीतर प्रवेश कराकर ऊपर की ओर रखना। गहरी समाधि के लिए यह आवश्यक है। जो पूर्ण खेचरी नहीं कर सकते वे अर्धखेचरी कर सकते हैं जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोडकर तालू से सटाकर रखते हुए।
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अर्धोन्मीलित नेत्रों को भ्रूमध्य में स्थिर रखकर साधक पहिले तो भ्रूमध्य में एक प्रकाश की कल्पना करता है और यह भाव करता है कि वह प्रकाश सम्पूर्ण ब्रह्मांड में फ़ैल गया है| फिर संहार बीज और सृष्टि बीज --- 'हं" 'सः' के साथ गुरु प्रदत्त विधि के साथ अजपा-जप करता है और उस सर्वव्यापक ज्योति के साथ स्वयं को एकाकार करता है। समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है। उस ब्रह्मज्योति पर ध्यान करते करते प्रणव की ध्वनि सुनने लगती है तब साधक उसी में लय हो जाता है। सहत्रार की अनुभूति होने लगती है और बड़े दिव्य अनुभव होते हैं। पर साधक उन अनुभवों पर ध्यान न देकर पूर्ण भक्ति के साथ ज्योति ओर नाद रूप में परमात्मा में ही अपने अहं को विलय कर देता है। तब सारी प्राण चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य स्थिर हो जाती है। यही शाम्भवी मुद्रा की पूर्ण सिद्धि है।
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१ नवंबर २०२१ -- (संशोधित व पुनर्प्रेषित लेख)
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पुनश्च: --- शांभवी मुद्रा के बारे में आगे की और भी कई बाते हैं, जो मैंने जानबूझ कर नहीं लिखी हैं क्योंकि उन्हें सिर्फ साधक ही समझ सकते हैं।
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