Thursday, 30 December 2021

"आत्म-ज्ञान" ही "मोक्ष" है ---

 "आत्म-ज्ञान" ही "मोक्ष" है ---

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भारत की सनातन हिन्दू परंपरा में मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ बताए गए हैं --- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष| पुरुषार्थ से तात्पर्य मनुष्य जीवन के लक्ष्य या उद्देश्य से है| इन्हें पुरुषार्थचतुष्टय भी कहते हैं| इनमें भी मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है| मोक्ष क्या है? यह प्रश्न मैंने अनेक मनीषियों से पूछा है, पर किसी के भी उत्तर से मुझे कभी संतुष्टि नहीं मिली| यथार्थ में संतुष्टि तो तभी मिलती है जब उत्तर स्वयं आत्मा से आता है| मैं तो यही मान बैठा था कि मोह का क्षय ही मोक्ष है| लेकिन मैं गलत था| जब तक पृथकता का बोध यानि द्वैत है, तब तक मोह का क्षय संभव नहीं है|
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१२ दिसंबर २०२० को दोपहर में मैं ध्यानमग्न था कि अचानक ही एक विचार बिजली की तरह अंतर्चेतना में कौंध गया, जिसने अंतर्चेतना में प्रकाश ही प्रकाश भर दिया| मुझे किसी ने मेरे अंतर में कहा कि ---
"जब दृष्टि, दृश्य और दृष्टा एक हो जाते हैं, कहीं कोई भेद नहीं रहता, --- वह एक विज्ञानमय सिद्धावस्था है| यह सिद्धावस्था ही मोक्ष है|"
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उसी समय गीता के दूसरे अध्याय का ७२वाँ श्लोक याद आया ---
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
अर्थात् -- हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है| इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता| अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है||
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गीता में बताई हुई यह ब्राह्मी स्थिति ही मोक्ष है| यह ब्राह्मी यानी ब्रह्म में होने वाली स्थिति है| सब कर्मों का सन्यास कर के केवल ब्रह्मरूप से स्थित हो कर मनुष्य फिर कभी मोहित नहीं होता, यानि मोह को प्राप्त नहीं होता| अंतकाल में ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर मनुष्य ब्रह्म में लीन हो जाता है| यही मोक्ष है|
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इस ब्राह्मी स्थिति को ही योगिराज श्रीश्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय ने क्रिया की परावस्था कहा है| क्रियायोग साधकों के लिए क्रिया की परावस्था में स्थायी स्थिति ही मोक्ष है| इस मोक्षरूपी परम पुरुषार्थ में अभीप्सा न होने पर कोई भी मनुष्य न तो भक्ति कर सकता है, और न ही अन्य साधनों में प्रवृति कर सकता है|
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शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा के बृहदारण्यक उपनिषद के स्वाध्याय से यह विषय बहुत अच्छी तरह से समझ में आ सकता है| वहाँ ऋषि याज्ञवल्क्य के ब्रह्मज्ञान पर उपदेश ही उपदेश हैं जिनका स्वाध्याय जीवन में कम से कम एक बार तो करना ही चाहिए| याज्ञवल्क्य जी मैत्रेयी से कहते हैं ---
"आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य: |"
अर्थात् --- अरे यह आत्मा ही देखने (जानने) योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है तथा निदिध्यासन (ध्यान) करने योग्य है||
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अथर्ववेद के माण्डूक्य उपनिषद में कहा गया है --- "अयमात्मा ब्रह्म" --- यानि "यह आत्मा ब्रह्म है"| ध्यान साधना के लिए यह महावाक्य है| यह आत्मज्ञान ही "मोक्ष" है|
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"ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते| पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवा वशिष्यते|"
ॐ शांति: शांति: शांतिः ||
ॐ सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यंकरवावहै तेजस्वि नावधीतमस्तु माविद्विषावहै||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः||
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हम सब इस परम पुरुषार्थ "मोक्ष" को प्राप्त हों| इसी शुभ कामना के साथ आप सब महात्माओं को सप्रेम सादर प्रणाम !! 🙏🕉🙏
कृपा शंकर बावलिया
झुंझुनूं (राजस्थान)
१३ दिसंबर २०२०

Tuesday, 7 December 2021

भोजन विधि ---

 भोजन विधि ---

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हम जो कुछ भी खाते या पीते हैं, वह आहार हम नहीं खाते-पीते, बल्कि भगवान को अर्पित करते हैं, जिसे भगवान स्वयं वेश्वानर (जठराग्नि) के रूप में हमारे माध्यम से ग्रहण करते हैं; और उस से पूरी सृष्टि का भरण-पोषण होता है| अतः वही आहार ग्रहण करें जो भगवान को प्रिय है| उतना ही भोजन अपनी थाली में लें, जितना हम पूरी तरह खा सकें; जूठा छोड़ना -- भगवान का अपमान है| भोजन एक सोमयज्ञ है जिसमें हम भगवान को सोम की आहूति देते हैं| भगवान कहते हैं --
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः |
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ||१५:१४||"
प्राण और अपान वायु के संयोग से जठराग्नि बनती है, जिस के रूप में वैश्वानर भगवान स्वयं हमारी देह में भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य अन्न रूपी सोम को पचाते हैं| इस से सम्पूर्ण सृष्टि के प्राणियों का भरण-पोषण होता है|
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गीता में बताए हुए निम्न मंत्र का पाठ कर के ही भोजन करना चाहिए ---
" ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् |
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ||४:२४||"
अर्थात् अर्पण (अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है, और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
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जो परमात्मा के मातृ रूप भगवती अन्नपूर्णा के भक्त हैं, वे अन्नपूर्णा स्तोत्र के निम्न भाग का पाठ कर अन्नपूर्णा से माँगे हुए भिक्षान्न के रूप में भोजन करते हैं ---
"अन्नपूर्णे सदा पूर्णे शंकरप्राणवल्लभे |
ज्ञान वैराग्य-सिद्ध्‌यर्थं भिक्षां देहिं च पार्वति ||"
"भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी ||"
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जो मैंने संत-महात्माओं के प्रवचनों में सुना है, उसके अनुसार पञ्च-प्राणों को मानसिक रूप से आहुति देकर --- "ॐ प्राणाय स्वाहा | ॐ अपानाय स्वाहा | ॐ व्यानाय स्वाहा | ॐ उदानाय स्वाहा | ॐ समानाय स्वाहा |" --- प्रथम पाँच ग्रास उपरोक्त मंत्रों के साथ करने चाहियें| कम से कम प्रथम ग्रास तो -- "ॐ प्राणाय स्वाहा" -- मंत्र के साथ लेना ही चाहिए|
भोजन से पूर्व "˙ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा" मंत्र बोलकर जल से आचमन करना चाहिए, और भोजन के उपरांत "ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा" मंत्र से भी आचमन करना चाहिए|
भोजन बनाने वाले को चाहिए कि जब भोजन बन जाये तब भोजन के बहुत ही छोटे-छोटे तीन ग्रास लेकर तीन बार निम्न मंत्रों के साथ अग्नि को जिमाये --- "ॐ भूपतये स्वाहा", "ॐ भुवनपतये स्वाहा", "ॐ भूतानां पतये स्वाहा"|
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अनेक विद्वान ब्राह्मण, कृष्ण यजुर्वेद के निम्न शांति मंत्र का पाठ कर के ही भोजन करते हैं -
"ॐ सह नाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै || ॐ शांति शांति शांति ||"
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सार की बात :--- भोजन शांतिपूर्वक, मौन होकर, सिर्फ भगवान का चिंतन करते हुए, पूर्ण प्रेम पूर्वक, इस भाव से ही करना चाहिये कि यह भोजन भगवान स्वयं ही ग्रहण कर रहे हैं|
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इस लेख का समापन वैदिक शांतिमंत्र से ही करता हूँ ---
"ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।। ॐ शांति, शांति, शांति ||"
कृपा शंकर
८ दिसंबर २०२०
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पुनश्च: --- भगवान को क्या प्रिय है? भगवान कहते हैं ---
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति| तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः||९:२६||"
अर्थात् जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, और जल आदि कुछ भी वस्तु भक्तिपूर्वक देता है, उस प्रयतात्मा -- शुद्धबुद्धि भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किये हुए वे पत्र पुष्पादि मैं (स्वयं) खाता हूँ अर्थात् ग्रहण करता हूँ||
भक्तों को केवल अपुनरावृत्तिरूप अनन्त फल मिलता है, और वे अपनी आराधना भी भी सुखपूर्वक कर सकते हैं|

यमराज का सदा स्वागत है ---

 यमराज जी का सदा स्वागत है; जब भी उन को फुर्सत हो, बड़े आराम से अपनी सुविधानुसार कभी भी आ जायें। हर समय उनके साथ चलने को तैयार हैं ---

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जब कान के पास के बाल सफ़ेद हो जाएँ तब सचेत हो जाना चाहिए क्योंकि कानों के पास के बालों का सफ़ेद होना यमराज का एक सन्देश है कि मैं कभी भी आ सकता हूँ। महाराजा दशरथ ने एक बार दर्पण में अपना मुख देखा तो कानों के पास सफ़ेद बाल दिखाई दिए। उन्होंने तुरंत ही राम के राज्याभिषेक की तैयारी आरम्भ कर दी।
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कहते हैं कि यमराज जब किसी के प्राण हरने आते हैं तो उनके भैंसे के गले में बंधी घंटी की ध्वनि मरने वाले को सुनाई देने लगती है। उसकी ध्वनि इतनी कर्णकटु होती है कि वह घबरा जाता है और विगत का पूरा जीवन उसको सिनेमा की तरह दिखाई देने लगता है। उसी चेतना में यमराज उसके गले में फंदा डालकर उस को देहचेतना से मुक्त कर देते हैं। फिर उसे बहुत अधिक कष्ट झेलने पड़ते हैं।
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यमराज के भैंसे के गले में बंधी घंटी की ध्वनी सुने इससे पहिले ही ओंकार की ध्वनी को या राम नाम की ध्वनी को निरंतर सुनने का अभ्यास आरम्भ कर देना चाहिए। आप किसी बड़े मंदिर में जाते हैं तो वहाँ एक बड़ा घंटा लटका रहता है जिसे जोर से बजाने पर उसकी ध्वनी का स्पंदन बहुत देर तक सुनाई देता है| कल्पना करो कि ऐसे ही किसी घंटे से ओंकार की या रामनाम की ध्वनि निरंतर आ रही है। उस ध्वनी को सुनने और उस पर ध्यान करने का नित्य नियमित अभ्यास करो। यह ध्वनि ही हमें मुक्ति दिला सकती है। अन्यथा एक बार यमराज के भैंसे के गले की घंटी सुन गयी तो फिर अंत समय में अन्य कुछ भी सुनाई नहीं देगा।
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जिन का कभी जन्म ही नहीं हुआ, अभी से उन मृत्युंजयी भगवान शिव का ध्यान स्वयं शिवमय होकर करना आरम्भ कर दो। यमराज फिर हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। "चन्द्रशेखर माश्रये मम किं करिष्यति वै यमः?" कितनी शीतलता और दिव्यता है भगवान शिव में!! वे भगवान चन्द्रशेखर शिव सदा हमारे में व्यक्त हों। ॐ नमः शिवाय॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
६ दिसंबर २०२१

मेरा अभ्युदय और निःश्रेयस ही सारी सृष्टि का अभ्युदय और निःश्रेयस है ---

 मेरा अभ्युदय और निःश्रेयस ही सारी सृष्टि का अभ्युदय और निःश्रेयस है ---

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धर्म और राष्ट्र के उत्थान हेतु प्रत्येक सच्चे भारतीय को परमात्मा पर ध्यान के द्वारा अपनी दीनता और हीनता का परित्याग कर अपने निज देवत्व को जागृत करना होगा। हम अपनी क्षुद्रात्मा पर परिछिन्न माया के आवरण को साधना द्वारा हटा कर संकल्प करें कि ध्यान-साधना में अनुभूत ज्योतिर्मय नाद-ब्रह्म रूपी सर्वव्यापी कूटस्थ सूर्य मैं ही हूँ, जिसका पूर्ण प्रकाश, ज्योतियों की ज्योति - ज्योतिषांज्योति है। मेरे ही संकल्प से सम्पूर्ण संसार का विस्तार हुआ है। जब मैं सांस लेता हूँ तो सारा ब्रह्मांड साँस लेता है, जब मैं साँस छोड़ता हूँ, तब सम्पूर्ण ब्रह्मांड साँस छोड़ता है। मेरा अभ्युदय और निःश्रेयस ही सारी सृष्टि का अभ्युदय और निःश्रेयस है। परमात्मा की अनंतता और उससे परे जो कुछ भी है, वह मैं ही हूँ, यह नश्वर देह नहीं। मेरे से परे कुछ भी नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ दिसंबर २०२१

Monday, 6 December 2021

मेरा एकमात्र संबंध परमात्मा से है, अन्य सब लोकाचार मात्र है ---

 मेरा एकमात्र संबंध परमात्मा से है, अन्य सब लोकाचार मात्र है ---

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भगवान की भक्ति ही इस जीवन की एकमात्र उपलब्धि है। सारे पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्धों में, और बड़ी बड़ी ज्ञान की बातों में अब कोई रस नहीं आता। इन तिलों में अब कोई तेल नहीं है। इस लौकिक जीवन में मेरे साथ बहुत ही अधिक छल-कपट, ठगी और विश्वासघात हुआ है। पता नहीं किस जन्म के किए हुए पापों का फल था। मैं तो मानता हूँ कि इस से मेरे कर्म ही कटे हैं, इसलिए कोई पछतावा नहीं है।
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मुझे निमित्त-मात्र बनाकर भगवान वासुदेव हर समय मेरे समक्ष रहते हैं, और एक क्षण के लिए भी ओझल नहीं होते। वे स्वयं ही स्वयं की उपासना करते हैं। ध्यान साधना में पाता हूँ कि मैं तो कहीं हूँ ही नहीं, स्वयं भगवान वासुदेव ही अपने परमशिव रूप का या नारायण रूप का कूटस्थ में ध्यान कर रहे हैं। जब तक वे इस देह में प्राण रूप में हैं, तब तक वे ही इस देह के स्वामी हैं। मेरे लिए इससे बड़ी कोई अन्य उपलब्धि नहीं हो सकती, यह मनुष्य जीवन की बड़ी से बड़ी उपलब्धि है जो मुझे अनायास ही प्राप्त हो गई है।
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भगवान कहते हैं --
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥७:१८॥"
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
अर्थात् - (यद्यपि) ये सब उत्कृष्ट हैं, परन्तु ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह स्थिर बुद्धि ज्ञानी अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें अच्छी प्रकार स्थित है॥ बहुत जन्मोंके अन्तमें अर्थात् मनुष्यजन्ममें 'सब कुछ परमात्मा ही है', ऐसा जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है॥
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निज अस्तित्व का हरेक कण उन्हें समर्पित है। स्वयं के लिए तो बस उनकी कृपा ही पर्याप्त है। और कुछ भी मेरे पास नहीं है। सब कुछ उनका है। अंत में यह कहना चाहता हूँ कि मेरा एकमात्र संबंध परमात्मा से है, अन्य सब लोकाचार मात्र है। किसी पूर्व जन्म का कोई संस्कार रहा होगा, इसी से इस जन्म में ये सब संबंधी, मित्र और परिचित बने। वास्तव में परमात्मा को छोड़कर अन्य किसी से मेरा कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह शरीर रहे या न रहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
५ दिसंबर २०२१

उपासना "तेलधारा" के समान अखंड होनी चाहिए --- (संशोधित व पुनर्प्रस्तुत).

उपासना "तेलधारा" के समान अखंड होनी चाहिए --- (संशोधित व पुनर्प्रस्तुत).
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तेल को जब एक पात्र से जब दूसरे में डालते हैं तब उसकी धार अखंड रहती है, बीच बीच में टूटती नहीं है, वैसी ही हमारी उपासना होनी चाहिए। योग साधकों के लिए आज्ञाचक्र ही उन का आध्यात्मिक-हृदय होता है। आज्ञाचक्र के एकदम सामने भ्रूमध्य होता है, जहाँ गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं। वहाँ ध्यान करते करते गुरुकृपा से एक न एक दिन एक दिव्य ज्योति के दर्शन होने लगते हैं, और अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई देने लगती है। वह दिव्य ज्योति ही कूटस्थ है, और उसमें निरंतर स्थिति कूटस्थ-चैतन्य है।
गीता में भगवान कहते हैं --
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः॥
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
भावार्थ -- जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं, इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
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आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में 'उपासना' को 'तेलधारा' के समान बताया है। उपासना का शाब्दिक अर्थ है -- समीप बैठना। हमें अपनी चेतना में सदा भगवान के समक्ष ही बैठना चाहिए। शंकर भाष्य के अनुसार -- "उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तेलधारा के सदृश समान वृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं।"
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यहाँ उन्होंने "तैलधारा" शब्द का प्रयोग किया है जो अति महत्वपूर्ण है। तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों का प्रवाह क्या हो सकता है? पहले इस पर विचार करना होगा। योगियों के अनुसार ध्यान साधना में जब प्रणव यानि अनाहत नाद की ध्वनी सुनाई देती है, तब वह तैलधारा के सदृश अखंड होती है। प्रयोग के लिए एक बर्तन में तेल लेकर उसे दुसरे बर्तन में डालिए। जिस तरह बिना खंडित हुए उसकी धार गिरती है, वैसे ही अनाहत नाद यानि प्रणव की ध्वनी सुनाई देती है। प्रणव को परमात्मा का वाचक यानि प्रतीक कहा गया है। यह प्रणव ही कूटस्थ अक्षर ब्रह्म है।
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समानवृत्ति का अर्थ जो मुझे समझ में आता है, वह --- श्वास-प्रश्वास और वासनाओं की चेतना से ऊपर उठना है। चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है। अतः समानवृत्ति शब्द का यही अर्थ हो सकता है।
मेरी सीमित अल्प बुद्धि के अनुसार "उपासना" का अर्थ --- हर प्रकार की चेतना से ऊपर उठकर ओंकार यानि अनाहत नाद की ध्वनी को सुनते हुए उसी में लय हो जाना है। मेरी दृष्टी में यह ओंकार ही गुरु रूप ब्रह्म है।
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उपासना का उद्देश्य उपास्य के साथ एकाकार होना है| व्यवहारिक रूप से किस व्यक्ति में कौन सा गुण प्रधान है, उस से वैसी ही उपासना होगी। मनुष्य जैसा चिंतन करता है वैसी ही उपासना करता है। तमोगुण की प्रधानता अधिक होने पर मनुष्य परस्त्री/परपुरुष व पराये धन की उपासना करता है जो उसके और भी अधिक पतन का कारण बनती है। चिंतन चाहे परमात्मा का हो या परस्त्री/पुरुष या पराये धन का, होता तो उपासना ही है। रजोगुण प्रधान व्यक्ति सांसारिक उपलब्धियों की उपासना करता है। सतोगुण प्रधान व्यक्ति परमात्मा के विभिन्न रूपों की उपासना करता है।
अंततः हमें इन तीनों गुणों से भी ऊपर उठना पड़ता है। भगवान हमें निःस्त्रेगुण्य, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम और आत्मवान होने का आदेश देते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
अर्थात् -- "वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, निरन्तर नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित हो जा, योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा।"
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नारद भक्तिसूत्रों के अनुसार उपासक को सर्वदा सत्संग करना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए क्योंकि संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है। मनुष्य जैसे व्यक्ति का चिंतन करता है वैसा ही बन जाता है। महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य तथा अमोध है (महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च), लेकिन किसी भी परिस्थिति में हमें कुसंग का त्याग करना चाहिए (दुस्सङ्गः सर्वथैव त्याज्यः)। कुसंग -- काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवा सर्वनाश का कारण है (कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशकारणत्वात्)। जो पतनोन्मुख है, और जो गलत लोगों का संग करता है, उसका साथ छोड़ देना चाहिए, चाहे वह स्वयं का गुरु ही क्यों ना हो। कुसंग सर्वदा त्याज्य है। योगसूत्रों में एक सूत्र आता है --- "वीतराग विषयं वा चित्तः", इस पर गंभीरता से विचार करें| किसी वीतराग व्यक्ति का निरंतर चिंतन हमारे चित्त को भी वीतराग (राग-द्वेष-अहंकार से परे) बना देता है।
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नर्क की अग्नि से भी भयावह वासना की अग्नि है। इस से बच कर ही रहना चाहिए। इसकी कल्पना भी नर्क की अग्नि में गिरा देती है। अज्ञानग्रंथि का भेदन कर अपने परम शिवत्व को व्यक्त करना ही उपासना का लक्ष्य है। जब हृदय में परमप्रेम उदित होता है तब भगवान किसी गुरु के माध्यम से मार्गदर्शन देते हैं। हमें भगवान को ही इस देहरूपी नौका का कर्णधार बनाना चाहिए। गीता और सारे उपनिषद ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं। अतः कूटस्थ अक्षरब्रह्म का ध्यान में तैलधारा के सदृश निरंतर श्रवण, और कूटस्थ ब्रह्मज्योति का निरंतर दर्शन ही उपासना है। यह कूटस्थ ही गुरुरूप ब्रह्म है, और यह कूटस्थ ही हम स्वयं हैं।
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भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति, आप सब को नमन !!
ॐ गुरुभ्यो नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ दिसंबर २०२१

वर्तमान परिस्थितियों में वह सर्वश्रेष्ठ क्या है, जो मैं कर सकता हूँ? ---

 वर्तमान परिस्थितियों में वह सर्वश्रेष्ठ क्या है, जो मैं कर सकता हूँ? ---

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स्वयं की, परिवार की, समाज की, राष्ट्र की, व विश्व की, वर्तमान परिस्थितियों में निज क्षमता और योग्यतानुसार ईश्वर-प्रदत्त निज विवेक के प्रकाश में जो भी सर्वश्रेष्ठ किया जा सकता है, वह एक निमित्त मात्र होकर मैं निश्चित रूप से करूँगा। वास्तव में कर्ता तो भगवान स्वयं हैं, जिन का मैं एक उपकरण मात्र हूँ।
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मेरा गन्तव्य और एकमात्र लक्ष्य "परमशिव" हैं, जो इतने ज्योतिर्मय हैं कि उन के मार्ग में किसी भी तरह का कोई संशय और असत्य का अंधकार नहीं है। वहाँ प्रकाश ही प्रकाश है। उन्हीं के प्रकाश से सारी सृष्टि प्रकाशित है।
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मैं नित्य जीवन-मुक्त और उनकी पूर्णता हूँ। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ दिसंबर २०२१

भगवान स्वयं ही स्वयं का ध्यान करते हैं ---

भगवान स्वयं ही स्वयं का ध्यान करते हैं। मैं तो कहीं भी नहीं हूँ। भगवान अपने एक रूप विशेष में, अपने ही एक दूसरे रूप विशेष का ध्यान कर रहे हैं। उनकी छवि अनुपम है। उनकी दिव्य ज्योति, और उस में से निःसृत हो रहे मधुर नाद, व उनकी सर्वव्यापकता को मैं "कूटस्थ" कहता हूँ। इस कूटस्थ का केंद्र सर्वत्र है, लेकिन परिधि कहीं भी नही।

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यह कूटस्थ ही मेरा हृदय, मेरा अस्तित्व, मेरा आश्रम, मेरा घर और मेरा निवास है। इसी में सारे तीर्थ हैं, यही मेरा उपास्य, यही मेरा इष्ट और यही मेरा एकमात्र मित्र व संबंधी है। यही वासुदेव है, यही नारायण है, और यही परमशिव है।
मेरे विचार ही मेरे उद्दंड श्रोता हैं, जिन्हें बार-बार बताना पड़ता है कि कभी नकारात्मक मत सोचो, सरल जीवन जीओ और सदा भगवान का चिंतन करो।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
३ दिसंबर २०२१

धर्म की हानि और उत्थान क्या है? पाप और पुण्य क्या है? ---

(१) धर्म की हानि और उत्थान क्या है? ---

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अपनी चेतना को मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्रों में रखना निश्चित रूप से धर्म की हानि है।

अपनी चेतना को आज्ञाचक्र व उस से ऊपर रखना धर्म का उत्थान है।

ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
२ दिसंबर २०२१
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(२) पाप और पुण्य क्या है? ---
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चेतना का मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रों में रहना ही पाप है। सारे पाप वहीं से होते हैं।
चेतना का आज्ञाचक्र और सहस्त्रार में रहना ही पुण्य है। सारे पुण्य वहीं से होते हैं।
मूलाधार से सहस्त्रार तक की यात्रा पुण्योदय है।
सहस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरु-चरणों में मिला आश्रय है। श्रीगुरु-चरणों में आश्रय लेकर वहीं रहें। ज्योतिर्मय-ब्रह्म का ध्यान, और नाद-ब्रह्म का श्रवण भी वहीं करे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
३ दिसंबर २०२१

Sunday, 5 December 2021

हम अनन्य भाव और पूर्ण भक्ति से ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करें ---

हम अनन्य भाव और पूर्ण भक्ति से ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करें ---
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जो ज्योतिषांज्योति स्वयं ज्योतिर्मय है, जिसकी ज्योति से सारा ब्रह्मांड प्रकाशित है, भगवान के उस विराट रूप का हम ध्यान करें। उसमें अपना पूर्ण समर्पण कर दें, उसके साथ एक हो जाएँ। वहाँ कोई अन्य नहीं है। परमात्मा का वह प्रकाशरूप ही ज्योतिर्मय ब्रह्म है, वही परमशिव है, वही परमेश्वर है, और वही वासुदेव है। उसी का हम ध्यान करें, उसी में समर्पित हों, व उसके साथ एकाकार हों।
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भगवान के लिए परमप्रेम होगा तो सब कुछ वे समझा देते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
(१) "दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः॥११:१२॥"
अर्थात् - अगर आकाश में एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जायँ, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा-(विराट् रूप परमात्मा-) के प्रकाश के समान शायद ही हो।
(२) "न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
अर्थात् - उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है॥
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श्रुति भगवती कहती है --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥"
(मुंडकोपनिषद व कठोपनिषद)
अति संक्षेप में इसका अर्थ है कि जो कुछ भी प्रकाशमान् है, वह 'उस' ज्योति की आभा से ही प्रतिभासित है।'
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जहाँ कोई अन्य नहीं है, पूर्ण भक्ति और समर्पण से उस का ध्यान -- अनन्य भक्ति है। गीता में भगवान कहते हैं --
(१) "भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥११:५४॥"
अर्थात् -- परन्तु हे परन्तप अर्जुन! अनन्य भक्ति के द्वारा मैं तत्त्वत: 'जानने', 'देखने' और 'प्रवेश' करने के लिए (एकी भाव से प्राप्त होने के लिए) भी, शक्य हूँ!॥
(२) अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
(३) "मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् -- अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
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अनन्य भक्ति यानि अनन्य भाव को हम भगवान के गहन ध्यान से ही समझ सकते हैं। यह एक अनुभूति का विषय है। हम शरणागत हों, भक्ति में स्थित हों, कामनाओं व राग-द्वेष से मुक्त हों, और समस्त प्राणियों से मैत्री भाव रखें, यह परमात्मा के ध्यान द्वारा ही संभव है।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर

२ दिसंबर २०२१ 

पढ़ो कम, और ध्यान अधिक करो ---

 पढ़ो कम, और ध्यान अधिक करो ---

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शास्त्रों के स्वाध्याय से हमें सिर्फ प्रेरणा और मार्गदर्शन ही मिल सकता है, वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान तो प्रत्यक्षानुभूति से ही मिल सकता है। प्रवचनों को सुनकर ज्ञान का आभास तो हो सकता है, लेकिन ज्ञान की प्राप्ति नहीं। ज्ञान की प्राप्ति के लिए सत्य का अनुभव स्वयं को ही करना होगा। मनोरंजन नहीं, मनोनिग्रह हो। इसलिए थोड़ी देर पढ़ो पर ध्यान अधिक करो। यदि एक घंटे पढ़ते हो तो आठ घंटे भगवान का ध्यान करो।
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जो इस मार्ग पर नए हैं, वे पहले खूब भक्ति के साथ खूब जप करें। जप करते करते भगवान की कृपा से समझ में आ जाएगा कि ध्यान कैसे करें। भगवान बड़े कृपालू हैं, वे कोई कोई न कोई व्यवस्था समझाने की कर देंगे। पर प्रयास तो स्वयं को ही करना पड़ेगा।
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आवश्यकता सिर्फ भक्ति और सत्यनिष्ठा की है। यदि भक्ति और सत्यनिष्ठा नहीं है तो आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाएंगे। आप सभी को मंगलमय शुभ कामना और सादर सप्रेम नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ दिसंबर २०२१

हम सदा सही दिशा में गतिशील रहते हुए असत्य के अंधकार से ऊपर रहें ---

हम सदा सही दिशा में गतिशील रहते हुए असत्य के अंधकार से ऊपर रहें ---
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हम निज जीवन से तो असत्य का अंधकार दूर कर सकते हैं, लेकिन पूरी सृष्टि से नहीं। यह सृष्टि, प्रकाश और अन्धकार के द्वैत का ही एक खेल है। सही दिशा में चलते हुए हमारा कार्य परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना ही है। हम निज जीवन से अंधकार दूर करेंगे तो आसपास का अंधकार भी दूर होगा। अपनी चेतना में हम परमात्मा के प्रकाश (ब्रह्मज्योति) और उन की ध्वनि (अनाहत नाद) के प्रति सदा सजग रहें। किसी भी तरह की हीन भावना न लायें। हमारी सही दिशा हमारा कूटस्थ है। कूटस्थ-चैतन्य यानि ब्राह्मी-स्थिति में सदा प्रयासपूर्वक रहें। उसकी चेतना कभी विस्मृत न हो। कूटस्थ चैतन्य ही हमें परमशिव का बोध करा सकता है। गीता में भगवान कहते हैं --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।२:७२॥"
अर्थात् - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना ही मेरा कर्मयोग है। परमात्मा ही मेरी दिशा और मेरा जीवन हैं। ॐ तत्सत् !! जय गुरु !! ॐ गुरु !!
कृपा शंकर

१ दिसंबर २०२१ 

गुरु चरणों में मिला आश्रय बना रहे ---

गुरु चरणों में मिला आश्रय बना रहे ---
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इस देह रूपी विमान के चालक स्वयं परमात्मा हैं, और यह विमान भी वे स्वयं ही हैं। उनसे पृथकता का बोध उनकी माया है। वे ही गुरु रूप ब्रह्म हैं। अपने ज्योतिर्मय चरण-कमलों के दर्शन वे मुझे सहस्त्रार-चक्र में देते हैं, और सदा ब्रह्मरंध्र पर ही ध्यान लगवाते हैं। इस देह से बाहर परमशिव की अनुभूतियाँ उन्हीं की कृपा से होती हैं। अच्छा-बुरा जो कुछ भी मैं हूँ, वह उनकी कृपा का ही फल है। वे ही परमशिव हैं, और वे ही वासुदेव भगवान नारायण हैं। उनकी कृपा ही मेरा अस्तित्व है। उनकी कृपा से ही मैं यह सब लिख पा रहा हूँ।
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मुझे और कुछ भी नहीं लिखना है, उन्हीं की इच्छा पूर्ण हो, और उन्हीं का अस्तित्व बना रहे। उनकी कृपा भी सभी प्राणियों पर बनी रहे। मुझे सदा अपने चरणों की सेवा में ही लगाए रखें। सभी प्राणियों में व सारी सृष्टि में वे ही व्याप्त हैं। उनके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। वे ही सर्वस्व हैं। हरिः ॐ तत्सत्॥
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"ॐ वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
कृपा शंकर

१ दिसंबर २०२१ 

अपने हृदय को पूछिये और हृदय जो भी कहता है वह कीजिये ---

अपने हृदय को पूछिये और हृदय जो भी कहता है वह कीजिये। हृदय कभी झूठ नहीं बोल सकता क्योंकि हृदय में भगवान का निवास है।

भगवान की भक्ति के लिए इधर-उधर भागदौड़ करने से कोई लाभ नहीं है। सब गुरुओं के गुरु भगवान श्रीकृष्ण हैं, उनसे बड़ा कोई गुरु नहीं है। हृदय में उनका ध्यान कीजिये और नित्य गीता पाठ कीजिये। गीता पाठ में यदि कठिनाई आती है तो नित्य नियमित रामचरितमानस का पाठ कीजिये। यदि वह भी नहीं होता है तो नित्य नियमित रूप से हनुमान चालीसा या द्वादशाक्षरी भागवत मंत्र का जप तो कर ही सकते हैं। वह भी नहीं होता तो निरंतर रामनाम का जप कीजिये। उससे अधिक सरल और प्रभावी साधन कोई दूसरा नहीं है।
सभी को शुभ कामनाएँ और नमन!
३० नोवेंबर २०२१

अब चिंतन-धारा (विचार-धारा) में बहुत बड़े परिवर्तन हो गये हैं ---

 अब चिंतन-धारा (विचार-धारा) में बहुत बड़े परिवर्तन हो गये हैं ---

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(१) पहले स्वयं को व्यक्त करने की एक आकांक्षा थी, जिसकी पूर्ति के लिए परमात्मा ने फेसबुक आदि सोशियल मीडिया प्रदान कीं, जिन से मन अब पूरी तरह भर गया है| अब स्वयं को परमात्मा की अनंतता में व उस से भी परे व्यक्त होने की एक अति तीब्र अभीप्सा गहनतर होती जा रही है| सारी आध्यात्मिक साधनाओं का एकमात्र उद्देश्य ही स्वयं में परमात्मा को, व परमात्मा में स्वयं को व्यक्त करना है|
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(२) यह सृष्टि परमात्मा की है, मेरी नहीं| मेरा एकमात्र संबंध भी परमात्मा से ही रह गया है| उन के अतिरिक्त अब न तो कोई सुनने वाला है और न कोई रक्षा करने वाला| अतः अब कोई भी निंदा-स्तुति, आलोचना-प्रशंसा, शिकायत-अनुशंसा, --- परमात्मा से ही करेंगे, किसी अन्य से नहीं|
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(३) मृत्यु का अब कोई भय नहीं रहा है| मृत्यु मुझ से यह शरीर ही छीन सकती है और कुछ नहीं| मैं यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, जिसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता| इस शरीर की मृत्यु के पश्चात न तो किसी स्वर्ग की कामना है, और न ही किसी नर्क का भय| मेरी गति अति सूक्ष्म जगत के उन्हीं हिरण्यमय लोकों में होगी, जहाँ मेरे पूर्व जन्मों के गुरु, परमात्मा के साथ एक हैं| मैं उन से पृथक नहीं रह सकता|
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(४) मैं एक नित्य-मुक्त शाश्वत आत्मा हूँ जिस की इस शरीर से मुक्त होने के पश्चात किसी भी तरह की कोई दुर्गति नहीं होगी, क्योंकि पूर्वजन्मों के गुरु मेरी रक्षा कर रहे हैं| मैं उन्हीं के साथ परमात्मा के हृदय में हूँ, और वहीं रहूँगा|
जब यह शरीर शांत हो जाये तब किसी भी तरह के कर्मकांड इस देह के लिए करने की आवश्यकता मेरे परिजनों को नहीं है| इस को भस्म कर के किसी पवित्र नदी में प्रवाहित कर दें ताकि कोई प्रदूषण न हों, और कुछ भी नहीं| पता नहीं अब तक कितने शरीरों में जन्म और मृत्यु हुई है| यह चक्र, प्रकृति का एक नियम है| मैं यह भी नहीं चाहता कि कोई मुझे याद करे| याद ही करना है तो परमात्मा को करें|
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(५) परमात्मा की आरोग्यकारी उपस्थिती सभी प्राणियों की देह, मन व आत्मा में प्रकट हो| सभी का कल्याण हो, और सभी सुखी रहें|
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गीता में अर्जुन द्वारा की गई यह स्तुति मेरे जीवन का अटूट अंग है ---
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||११:३९||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||११:४०||"
भावार्थ जो मैं समझता हूँ :---
आप ही यम (मूलाधार चक्र), वरुण (स्वाधिष्ठान चक्र), अग्नि (मणिपुर चक्र), वायु (अनाहत चक्र), शशांक (विशुद्धिचक्र), प्रजापति (आज्ञाचक्र), और प्रपितामह (सहस्त्रार चक्र) हैं| आपको हजारों बार नमस्कार है| पुनश्च: आपको "क्रिया" (क्रियायोग के अभ्यास और आवृतियों) के द्वारा अनेकों बार नमस्कार (मैं नहीं, आप ही हैं, यानि कर्ता मैं नहीं आप ही हैं) हो|
(यह अतिशय श्रद्धा, भक्ति और अभीप्सा का भाव है)
आप को आगे से और पीछे से (इन साँसों से जो दोनों नासिका छिद्रों से प्रवाहित हो रहे हैं) भी नमस्कार है (ये साँसें आप ही हो, ये साँसें मैं नहीं, आप ही ले रहे हो)| सर्वत्र स्थित हुए आप को सब दिशाओं में (सर्वव्यापकता में) नमस्कार है| आप अनन्तवीर्य (अनंत सामर्थ्यशाली) और अमित विक्रम (अपार पराक्रम वाले) हैं, जो सारे जगत में, और सारे जगत को व्याप्त किये हुए सर्वरूप हैं| आपसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है|
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यह मैं और मेरा होने का भाव मिथ्या है| जो भी हैं, वह आप ही हैं| जो मैं हूँ वह भी आप ही हैं| हे प्रभु , आप को बारंबार नमन है !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ दिसंबर २०२०

गीता में अर्जुन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति जो मेरे जीवन का अटूट भाग है ---

गीता में अर्जुन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति जो मेरे जीवन का अटूट भाग है ---
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"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||११:३९||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||११:४०||"
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भावार्थ जैसा मैं समझता हूँ :---
आप ही यम (मूलाधार चक्र), वरुण (स्वाधिष्ठान चक्र), अग्नि (मणिपुर चक्र), वायु (अनाहत चक्र), शशांक (विशुद्धि चक्र), प्रजापति (आज्ञा चक्र), और प्रपितामह (सहस्त्रार चक्र) हैं| आपको हजारों बार नमस्कार है|
पुनश्च: आपको "क्रिया" (क्रियायोग के अभ्यास और आवृतियों) के द्वारा अनेकों बार नमस्कार (मैं नहीं, आप ही हैं, यानि कर्ता मैं नहीं आप ही हैं) हो|
(यह अतिशय श्रद्धा, भक्ति और अभीप्सा का भाव है)
आप को आगे से और पीछे से (इन साँसों से जो दोनों नासिका छिद्रों से प्रवाहित हो रहे हैं) भी नमस्कार है (ये साँसें आप ही हो, ये साँसें मैं नहीं, आप ही ले रहे हो)| सर्वत्र स्थित हुए आप को सब दिशाओं में (सर्वव्यापकता में) नमस्कार है| आप अनन्तवीर्य (अनंत सामर्थ्यशाली) और अमित विक्रम (अपार पराक्रम वाले) हैं, जो सारे जगत में, और सारे जगत को व्याप्त किये हुए सर्वरूप हैं| आपसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है|
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यह मैं और मेरा होने का भाव मिथ्या है| जो भी हैं, वह आप ही हैं| जो मैं हूँ वह भी आप ही हैं| हे प्रभु , आप को बारंबार नमन है !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ दिसंबर २०२०