Thursday 7 May 2020

नक्सलवाद तो कभी का पूरी तरह समाप्त हो चुका है .....

वर्तमान भारत में नक्सलवाद तो कभी का पूरी तरह समाप्त हो चुका है, जिनको अब हम नक्सलवादी कहते हैं वे और उनके समर्थक सिर्फ "ठग" "बौद्धिक आतंकवादी", "डाकू" और "तस्कर" हैं, इस के अलावा वे कुछ भी अन्य नहीं हैं| उनका एक ही इलाज है, और वह है ...... "बन्दूक की गोली"| इसी की भाषा को वे समझते हैं| वे कोई भटके हुए नौजवान नहीं है, वे कुटिल राष्ट्रद्रोही तस्कर हैं, जिनको बिकी हुई प्रेस, वामपंथियों और राष्ट्र्विरोधियों का समर्थन प्राप्त है| जिस समय नक्सलबाड़ी में चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने नक्सलवादी आन्दोलन का आरम्भ किया था, उस समय चाहे मैं किशोरावस्था में ही था, पर तब से अब तक का सारा घटनाक्रम मुझे याद है|
.
नक्सलवादी आन्दोलन का विचार कानू सान्याल के दिमाग की उपज थी| यह एक रहस्य है कि कानू सान्याल इतना खुराफाती कैसे हुआ| वह एक साधू आदमी था जिसका जीवन बड़ा सात्विक था| उसका जन्म एक सात्विक ब्राह्मण परिवार में हुआ था| उसकी दिनचर्या बड़ी सुव्यवस्थित थी और भगवान ने उसे बहुत अच्छा स्वास्थ्य दिया था| कहते हैं कि उसकी निजी संपत्ति में खाना पकाने के कुछ बर्तन, कुछ पुस्तकों का पोटली में बंधा हुआ एक ढेर, एक चटाई और एक कुर्सी थी| और कुछ भी उसके पास नहीं था| वह एक झोंपड़ी में रहता था| सन १९६२ में वह बंगाल के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री वी.सी.रॉय को काला झंडा दिखा रहा था कि पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जहाँ उसकी भेट चारु मजुमदार से हुई|
.
चारु मजूमदार एक कायस्थ परिवार से था और हृदय रोगी था, जो तेलंगाना के किसान आन्दोलन से जुड़ा हुआ था और जेल में बंदी था| दोनों की भेंट सन १९६२ में जेल में हुई और दोनों मित्र बन गए|
.
सन १९६७ में दोनों ने बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक गाँव से तत्कालीन व्यवस्था के विरुद्ध एक घोर मार्क्सवादी हिंसक आन्दोलन आरम्भ किया जो नक्सलवाद कहलाया| इस आन्दोलन में छोटे-मोटे तो अनेक नेता थे पर इनको दो और प्रभावशाली कर्मठ नेता मिल गए ........ एक तो था नागभूषण पटनायक, और दूसरा था टी.रणदिवे| इन्होनें आँध्रप्रदेश के श्रीकाकुलम के जंगलों से इस आन्दोलन का विस्तार किया|
.
कालांतर में यह आन्दोलन पथभ्रष्ट हो गया जिससे कानु सान्याल और चारु मजूमदार में मतभेद हो गए और दोनों अलग अलग हो गए| चारु मजुमदार की मृत्यु सन १९७२ में हृदय रोग से हो गयी, और कानु सान्याल को इस आन्दोलन का सूत्रपात करने की इतनी अधिक मानसिक ग्लानि और पश्चाताप हुआ कि २३ मार्च २०१० को उसने आत्महत्या कर ली|
.
जो मूल नक्सलवादी थे उनकी तीन गतियाँ हुईं .......
उनमें से आधे तो पुलिस की गोली का शिकार हो गए| वे अस्तित्वहीन ही हो गए| जो जीवित बचे थे उन में से आधों ने तत्कालीन सरकार से समझौता कर लिया और नक्सलवादी विचारधारा छोड़कर राष्ट्र की मुख्य धारा में बापस आ कर सरकारी नौकरियाँ ग्रहण कर लीं| बाकी बचे हुओं ने इस विचारधारा से तौबा कर ली और इस विचारधारा के घोर विरोधी हो गए| उनमें से कई तो साधु बन गए| अब कोई असली नक्सलवादी नहीं है| जिनको हम नक्सलवादी बताते हैं वे चोर बदमाश हैं जिन्हें उचित दंड मिलना चाहिए|
.
वन्दे मातरं | भारत माता की जय ||
२५ अप्रेल २०२०

No comments:

Post a Comment