Thursday 7 May 2020

एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग नहीं दिखा सकता .....

एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग नहीं दिखा सकता .....
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"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्|
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं| भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि||"
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"ॐ अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं| तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम:||"
जो परम-तत्व सारी सृष्टि में व्याप्त है और सारी सृष्टि जिन से व्याप्त है, उन अखंड अनंत मंडलाकार सर्वव्यापी का बोध जिन्होने करवा दिया है, उन सद्गुरु महाराज को मैं प्रणाम करता हूँ|
बलिहारी है उन गुरु महाराज की जिन्होंने परमपुरुष का बोध निज चैतन्य में करवा दिया है|
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प्राचीन भारत में बड़े-बड़े तपस्वियों ने अनेक प्रकार के साधन किये, स्वर्ग के सुखों को देखा और पाया कि वहाँ भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, व ईर्ष्या-द्वेष आदि सब तरह की बुराइयाँ हैं| वहाँ भी तभी तक रहने को मिलता है जब तक पुण्यों की कमाई है, बाद में फिर मृत्युलोक में आना पड़ता है| तब उन्हें वैराग्य हो गया| तभी जन्म-मरण के अंतहीन चक्र से मुक्ति, मोक्ष और परमात्मा की प्राप्ति आदि पर विचार आरंभ हुये|
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फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि "तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्
समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ||" ( मुण्डकोपनिषद् १-२-१२ ). अर्थात किन्हीं श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष गुरु की शरण में जाना होगा जो मुक्ति का मार्ग दिखा सके| श्रोत्रिय का अर्थ है जिन्हें शास्त्र और वेदों का इतना ज्ञान हो कि हमको समझा सकें| जिन्हें सिर्फ स्वयं के लिए ही ज्ञान हो वैसे गुरु कोई काम नहीं आएंगे, अतः वे ब्रह्मनिष्ठ भी हों, यानि जिन्होने निज जीवन में परमात्मा का साक्षात्कार भी किया हो| "गु" यानि अंधकार(अज्ञान) और "रु" यानि दूर करना| जो अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर परमात्मा का बोध कराता है वही गुरु है|
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गुरु और अध्यापक में बहुत अंतर है| अध्यापक वह है जो कुछ शुल्क लेकर सांसारिक विषयों को पढ़ाता है जिनसे विद्यार्थी को कोई आजीविका का साधन प्राप्त हो जाये और संसार में उस का निर्वाह हो सके| गुरु वह है जो अंतर के अंधकार को दूर कर परमात्मा का बोध कराता है| स्वामी रामसुखदास जी ने अपने एक प्रवचन में कहा है कि गुरु कभी शिष्य नहीं बनाते| उनके भीतर यह भाव कभी नहीं रहता कि कोई हमारा शिष्य बने| वे तो गुरुओं का ही निर्माण करते हैं| लौकिक अर्थ में माता-पिता भी 'गुरु' शब्द के अंतर्गत ही आाते हैं|
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"उपाध्याय" का अर्थ है वह अध्यापक जो वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष) की शिक्षा विद्यार्थी को अपनी आजीविका के लिए कुछ दक्षिणा लेकर पढ़ाता है|
"आचार्य" उसे कहते हैं जो विद्यार्थी से आचारशास्त्रों के अर्थ तथा बुद्धि का आचयन (ग्रहण) कराता है| वह विद्यार्थी से धर्म का आचयन कराता है| शास्त्रों में आचार्य का अर्थ बड़े विस्तार से बताया हुआ है| आचार्य का स्थान बहुत ऊँचा है|
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पात्रता होने पर ही सदगुरु मिलते हैं| अन्यथा .....
"सद्गुरु तो मिलते नहीं, मिलते गुरु-घंटाल| पाठ पढ़ायें त्याग का, स्वयं उड़ायें माल||"
जहाँ किसी भी तरह का थोड़ा सा भी लालच होता है, वहाँ ....
"गुरू लोभी चेला लालची, दोनों खेले दाँव| दोनों डूबे बावरे, चढ़ि पत्थर की नाव||"
एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग नहीं दिखा सकता|
आजकल के तथाकथित गुरुओं द्वारा बड़े बड़े उपदेश तो निःस्पृहता के दिये जाते हैं पर उनकी दृष्टि धनाढ्य/मालदार आसामियों की खोज में ही रहती है| पैसा झटकने में वे बिलकुल भी देर नहीं लगाते| उनके द्वारा कहा तो यह जाता है कि किसी साधु का वातानुकूलित भवनों से क्या काम, पर ऐसा कहने वाले स्वयं बिना वातानुकूलित भवनों के रह ही नहीं सकते|
जहाँ झूठ-कपट हो, व कथनी-करनी में अंतर हो, उस स्थान और उस वातावरण का विष की तरह तुरंत त्याग कर देना चाहिए|
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अब उपरोक्त विषय पर और विचार नहीं करेंगे| जो भी समय मिलेगा उस में भगवान का ही ध्यान करेंगे| ध्यान में उपासक, गुरु और उपास्य में कोई भेद नहीं रहता| सभी एक हो जाते हैं|
ॐ श्री परमात्मने नमः || ॐ तत्सत् || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ अप्रेल २०२०

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