समभाव में स्थिति ही समाधि है .......
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समाधि कोई क्रिया नहीं एक अवस्था का नाम है जिसमें साधनारत साधक समभाव में अधिष्ठित हो जाता है| यह अष्टांग योग का आठवाँ अंग है| समभाव में स्थिति ही समाधि है| जब साधक स्थूल, सूक्ष्म, कारण एवं तुरीय भूमियों पर एक ही दशा में अवस्थान करते हैं उसे समाधि कहते हैं|
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पतंजल योगदर्शन में सबीज, निर्बीज, सवितर्क, निर्वितर्क, सम्प्रज्ञात, असम्प्रज्ञात, सविकल्प और निर्विकल्प आदि समाधि की अवस्थाओं का स्पष्ट वर्णन है|
नाथ सम्प्रदाय में समाधि की अन्य अवस्थाओं के नाम भी प्रचलित हैं|
कुछ अन्य सम्प्रदायों में और भी अवस्थाओं के वर्णन हैं जैसे सहज समाधि, आनंद समाधि, चैतन्य समाधि आदि| हठ योग की कुछ विधियों से जड़ समाधि होती है| भावातिरेक में भाव समाधि हो जाती है|
समाधि अनेक नहीं हैं, ये सब समाधि की अवस्था के उत्तरोत्तर सोपान हैं| वास्तविक तत्व की प्राप्ति तो निर्विकल्प समाधि से भी परे जाकर होती है|
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सार की बात यह है कि जब .....
ध्येय, ध्याता और ध्यान, ज्ञेय, ज्ञाता और ज्ञान, दृष्टा दृश्य और दर्शन .....
इन सब का लय हो जाता है वह समाधि की अवस्था है|
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इससे आगे की अवस्था जिसका वाणी से वर्णन नहीं हो सकता यानि जो अवर्णनीय है वह अवस्था ..... "योग" है जहाँ परमात्मा से कोई भेद नहीं होता|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः :-
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसी समत्व को योग कहा है ....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥"
भावार्थ :- हे धनञ्जय ! तू आसक्तिको त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर, योगमें स्थित हुआ कर्तव्य कर्मोंको कर; यही समत्व योग कहलाता है|
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ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
भावार्थ : फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है|
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समाधि कोई क्रिया नहीं एक अवस्था का नाम है जिसमें साधनारत साधक समभाव में अधिष्ठित हो जाता है| यह अष्टांग योग का आठवाँ अंग है| समभाव में स्थिति ही समाधि है| जब साधक स्थूल, सूक्ष्म, कारण एवं तुरीय भूमियों पर एक ही दशा में अवस्थान करते हैं उसे समाधि कहते हैं|
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पतंजल योगदर्शन में सबीज, निर्बीज, सवितर्क, निर्वितर्क, सम्प्रज्ञात, असम्प्रज्ञात, सविकल्प और निर्विकल्प आदि समाधि की अवस्थाओं का स्पष्ट वर्णन है|
नाथ सम्प्रदाय में समाधि की अन्य अवस्थाओं के नाम भी प्रचलित हैं|
कुछ अन्य सम्प्रदायों में और भी अवस्थाओं के वर्णन हैं जैसे सहज समाधि, आनंद समाधि, चैतन्य समाधि आदि| हठ योग की कुछ विधियों से जड़ समाधि होती है| भावातिरेक में भाव समाधि हो जाती है|
समाधि अनेक नहीं हैं, ये सब समाधि की अवस्था के उत्तरोत्तर सोपान हैं| वास्तविक तत्व की प्राप्ति तो निर्विकल्प समाधि से भी परे जाकर होती है|
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सार की बात यह है कि जब .....
ध्येय, ध्याता और ध्यान, ज्ञेय, ज्ञाता और ज्ञान, दृष्टा दृश्य और दर्शन .....
इन सब का लय हो जाता है वह समाधि की अवस्था है|
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इससे आगे की अवस्था जिसका वाणी से वर्णन नहीं हो सकता यानि जो अवर्णनीय है वह अवस्था ..... "योग" है जहाँ परमात्मा से कोई भेद नहीं होता|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः :-
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसी समत्व को योग कहा है ....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥"
भावार्थ :- हे धनञ्जय ! तू आसक्तिको त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर, योगमें स्थित हुआ कर्तव्य कर्मोंको कर; यही समत्व योग कहलाता है|
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ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
भावार्थ : फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है|
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