भगवान इतने दयालु हैं कि अपने से अनन्य-द्वेष करने वाले को भी वे वही गति प्रदान करते हैं जो अनन्य-प्रेम करने वाले को देते हैं| एक अनन्य-द्वेषयोग भी होता है, जहाँ द्वेष करने वाला दिन-रात केवल भगवान का ही चिंतन करता है, चाहे वह गाली देकर या दुर्भावना से ही करता हो| इसलिए भगवान को दिन-रात गाली देने और बुरा बोलने वाले भी अंततः भगवान को ही प्राप्त होते हैं| यही सनातन धर्म की महानता है| यहाँ किसी को नर्क की भयावह अग्नि में अनंत काल तक तड़पाया नहीं जाता|
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अतः हे लिबरल सेकुलर दुराचारी वामपंथियो, तुम लोग, शिशुपाल की तरह दिन-रात हमारे भगवान को गाली देते रहो, लेकिन तुम्हारा उद्धार हमारे भगवान ही करेंगे|
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भगवान श्रीराम ने जब ताड़का को देखा तो देखते ही अस्त्रप्रहार कर उसका वध कर दिया क्योंकि वह आततायी थी| उन्होंने तो उससे बात भी नहीं की, और यह भी नहीं सोचा कि वह महिला थी| उस जमाने में महिला-आयोग नहीं था| भगवान श्रीराम तो हमारे परमादर्श हैं| इस सन्दर्भ में रामचरितमानस की चौपाई बहुत गम्भीर है --
"चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥"
भावार्थ -- मार्ग में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। राम ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया। भगवान् ने उसका वध तो किया है, पर साथ में उसको दीन जान कर उस पर कृपा भी की है, और उसको अपना परम पद भी दिया है| अन्दर से हृदय में गहन प्रेम, लेकिन बाहर से अपराधी को ज्ञान कराने के लिये दंड देना--- यही तो विशेषता है हमारे भगवान की|
जब तक ऐसा ही प्रेम हमारे हृदय में अपने शत्रु के प्रति न आये, तब तक हम भगवान् राम का अनुकरण करने का दम्भ नहीं भर सकते|
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भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक असुरों का वध किया, लेकिन उनके मन में कभी किसी के प्रति क्रोध या घृणा जागृत नहीं हुई| पूतना को मारा तो पूतना का उद्धार हो गया, शिशुपाल को मारा तो शिशुपाल का उद्धार हो गया| महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ पर सारथी के रूप में जब वे बैठते थे तो उनकी छवि बड़ी मनमोहक और मंत्रमुग्ध करने वाली होती थी| जो भी उनकी ओर देखता वह स्तब्ध हो जाता था| इतने में अर्जुन उनके प्राण ले लेता; और उन सब की सदगति ही होती| भगवान श्रीकृष्ण ने तो यहाँ तक कहा है कि --
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||१८:१७||"
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है||
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भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण ने जितने भी दुष्ट असुरों का बध किया, उन सब की सदगति हुई| वे सारे के सारे असुर, भगवान से द्वेष रखते थे| भगवान की दृष्टि में शबरी तथा ताड़का में कोई भेद नहीं, क्योंकि दोनों को उन्होंने वही परमपद दिया है| हां, देने के तरीके में भेद है, लेकिन वह भेद क्षणिक है, कुछ क्षणों बाद दोनों को वही एक पद मिल जाता है|
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किसी भी मज़हब या रिलीजन में शैतान या आसुरी वृत्ति वाले लोगों को भगवान की प्राप्ति नहीं होती, मिलता है तो उन्हें केवल जहन्नुम| लेकिन सनातन धर्म भगवान से द्वेष करने वालों को जहन्नुम नहीं, भगवान की प्राप्ति कराता है| इसी को कहते हैं द्वेषयोग, यानी परमात्मा से अनन्य द्वेष करके उनके साथ संयोग प्राप्त करना|
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शुकदेव जी ने भागवत में कहा है --
"उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः, द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः|"
अर्थात् हे परीक्षित, मैं आपको पहले ही बता चुका कि किस प्रकार शिशुपाल व कंस आदि भगवान् श्री कृष्ण से द्वेष करके भी सिद्धि को प्राप्त हो गये, फिर व्रज की गोपियों का तो कहना ही क्या!!
आप सब के हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम जागृत हो| सब का कल्याण हो|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ मार्च २०२१
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भगवान इतने दयालु हैं कि अपने से अनन्य-द्वेष करने वाले को भी वे वही गति प्रदान करते हैं जो अनन्य-प्रेम करने वाले को देते हैं| एक अनन्य-द्वेषयोग भी होता है, जहाँ द्वेष करने वाला दिन-रात केवल भगवान का ही चिंतन करता है, चाहे वह गाली देकर या दुर्भावना से ही करता हो| इसलिए भगवान को दिन-रात गाली देने और बुरा बोलने वाले भी अंततः भगवान को ही प्राप्त होते हैं| यही सनातन धर्म की महानता है| यहाँ किसी को नर्क की भयावह अग्नि में अनंत काल तक तड़पाया नहीं जाता|
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अतः हे लिबरल सेकुलर दुराचारी वामपंथियो, तुम लोग, शिशुपाल की तरह दिन-रात हमारे भगवान को गाली देते रहो, लेकिन तुम्हारा उद्धार हमारे भगवान ही करेंगे|
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भगवान श्रीराम ने जब ताड़का को देखा तो देखते ही अस्त्रप्रहार कर उसका वध कर दिया क्योंकि वह आततायी थी| उन्होंने तो उससे बात भी नहीं की, और यह भी नहीं सोचा कि वह महिला थी| उस जमाने में महिला-आयोग नहीं था| भगवान श्रीराम तो हमारे परमादर्श हैं| इस सन्दर्भ में रामचरितमानस की चौपाई बहुत गम्भीर है --
"चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥"
भावार्थ -- मार्ग में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। राम ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया। भगवान् ने उसका वध तो किया है, पर साथ में उसको दीन जान कर उस पर कृपा भी की है, और उसको अपना परम पद भी दिया है| अन्दर से हृदय में गहन प्रेम, लेकिन बाहर से अपराधी को ज्ञान कराने के लिये दंड देना--- यही तो विशेषता है हमारे भगवान की|
जब तक ऐसा ही प्रेम हमारे हृदय में अपने शत्रु के प्रति न आये, तब तक हम भगवान् राम का अनुकरण करने का दम्भ नहीं भर सकते|
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भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक असुरों का वध किया, लेकिन उनके मन में कभी किसी के प्रति क्रोध या घृणा जागृत नहीं हुई| पूतना को मारा तो पूतना का उद्धार हो गया, शिशुपाल को मारा तो शिशुपाल का उद्धार हो गया| महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ पर सारथी के रूप में जब वे बैठते थे तो उनकी छवि बड़ी मनमोहक और मंत्रमुग्ध करने वाली होती थी| जो भी उनकी ओर देखता वह स्तब्ध हो जाता था| इतने में अर्जुन उनके प्राण ले लेता; और उन सब की सदगति ही होती| भगवान श्रीकृष्ण ने तो यहाँ तक कहा है कि --
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||१८:१७||"
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है||
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भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण ने जितने भी दुष्ट असुरों का बध किया, उन सब की सदगति हुई| वे सारे के सारे असुर, भगवान से द्वेष रखते थे| भगवान की दृष्टि में शबरी तथा ताड़का में कोई भेद नहीं, क्योंकि दोनों को उन्होंने वही परमपद दिया है| हां, देने के तरीके में भेद है, लेकिन वह भेद क्षणिक है, कुछ क्षणों बाद दोनों को वही एक पद मिल जाता है|
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किसी भी मज़हब या रिलीजन में शैतान या आसुरी वृत्ति वाले लोगों को भगवान की प्राप्ति नहीं होती, मिलता है तो उन्हें केवल जहन्नुम| लेकिन सनातन धर्म भगवान से द्वेष करने वालों को जहन्नुम नहीं, भगवान की प्राप्ति कराता है| इसी को कहते हैं द्वेषयोग, यानी परमात्मा से अनन्य द्वेष करके उनके साथ संयोग प्राप्त करना|
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शुकदेव जी ने भागवत में कहा है --
"उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः, द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः|"
अर्थात् हे परीक्षित, मैं आपको पहले ही बता चुका कि किस प्रकार शिशुपाल व कंस आदि भगवान् श्री कृष्ण से द्वेष करके भी सिद्धि को प्राप्त हो गये, फिर व्रज की गोपियों का तो कहना ही क्या!!
आप सब के हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम जागृत हो| सब का कल्याण हो|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ मार्च २०२१