Thursday, 26 January 2017

"उत्तरा सुषुम्ना", "कूटस्थ चैतन्य" और परमात्मा के मेरे सर्वप्रिय साकार रूप .....

"उत्तरा सुषुम्ना", "कूटस्थ चैतन्य" और परमात्मा के मेरे सर्वप्रिय साकार रूप .....
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यह मेरे सर्वप्रिय विषयों में से एक है जिसे व्यक्त करने में बहुत अधिक समय, विस्तार और स्थान चाहिए| पर मैं कम से कम शब्दों में और कम से कम समय में इस अति गूढ़ विषय को व्यक्त करूंगा| जिस पर भी मेरे परम प्रिय प्रभु की कृपा होगी वह इसे निश्चित रूप से समझ जाएगा|
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(1) उत्तरा सुषुम्ना ....
आज्ञाचक्र से सहस्त्रार में प्रवेश के दो मार्ग हैं| एक तो भ्रूमध्य से है जो गुरुप्रदत्त उपासना/साधना से खुलता है| यह परा सुषुम्ना का मार्ग है| दूसरा एक सीधा मार्ग है जो आज्ञाचक्र के ऊपर से सीधा सहस्त्रार में चला जाता है| यह उत्तरा सुषुम्ना का मार्ग है जो या तो सिद्ध गुरु की विशेष कृपा से खुलता है, या मृत्यु के समय जब जीवात्मा इस में से निकल कर ब्रह्मरंध्र को भेदती हुई कर्मानुसार अज्ञात में चली जाती है| जीवित रहते हुए इसमें केवल गुरु कृपा से ही प्रवेश मिलता है| सभी सिद्धियाँ और सभी निधियाँ भी यहीं निवास करती हैं|
यदि गुरुकृपा से घनीभूत प्राण चेतना (कुण्डलिनी) जागृत है तो यह उत्तरा सुषुम्ना ही ध्यान के समय हमारा निवास, आश्रय और प्रियतम परमात्मा का मंदिर होना चाहिए|

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(2) कूटस्थ चैतन्य ....
कूटस्थ का अर्थ है जिसका कभी नाश व परिवर्तन नहीं होता| शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीपतम लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहें| साधना करते करते गुरु कृपा से एक दिन विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय अक्षर ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं में से है|
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(3) परमात्मा के मेरे सर्वप्रिय साकार रूप ...
भगवान नारायण का साकार रूप सर्वाधिक सम्मोहक है| पूरी सृष्टि उन्हीं में है और वे ही समस्त सृष्टि में व्याप्त है| ध्यान में वे एक विराट श्वेत ज्योति में परिवर्तित हो जाते हैं जिसमें समस्त सृष्टि और उससे भी परे जो कुछ भी है वह सब व्याप्त है| एक नीला और स्वर्णिम आवरण भी उन्हें घेरे रहता है|
वे ही परमशिव हैं और वे ही सर्वव्यापी परम चैतन्य हैं| सहस्त्रार से ऊपर समस्त सृष्टि में वे व्याप्त हैं| उन परम शिव की जटाओं से उनकी प्रेममयी कृपा और ज्ञानरूपी गंगा की निरंतर मुझ पर वर्षा होती रहती है|
दोनों के ही ध्यान में अक्षर ब्रह्म ओंकार की ध्वनी बराबर सुनाई देती है| दोनों एक ही हैं, उनमें कोई अंतर नहीं है, सिर्फ अभिव्यक्तियाँ ही पृथक हैं| यह उनकी ही इच्छा है कि किस रूप में वे अपना ध्यान करवाते हैं| कभी इन में और कभी इन से भी परे|
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ॐ तत्सत् | ॐ गुरु | ॐ ॐ ॐ ||
"ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ||"
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||

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