अनंत स्वरूप वेदान्त के सूर्य को प्रणाम ---
हमारी सब की आयु एक ही है -- और वह है "अनंत"। हम यह देह नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापी चेतना हैं। हमारा स्वभाव "प्रेम" है, और हम स्वयं साक्षात परमात्मा के प्रेम की पूर्ण अभिव्यक्ति हैं। रात-दिन निरंतर परमात्मा के प्रेम में डूबे रहो और स्वयं वह दिव्य प्रेम बन जाओ। हम सब यह नश्वर देह नहीं, एक दिव्य परम तत्व हैं। वीतराग/स्थितप्रज्ञ होकर कूटस्थ-चैतन्य/ब्राह्मीस्थिति में रहो। अन्य सब बातें गौण हैं। कूटस्थ ही गुरु है।
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हम प्रेममय हो जायें, यही भगवान की भक्ति है। अन्य है ही कौन?
(भक्ति कोई क्रिया नहीं है, यह एक अवस्था यानि स्थिति है)
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मैं किसे पाने के लिए तड़प रहा हूँ? यह अतृप्त प्यास और असीम वेदना किसके लिए है? मेरे से अन्य तो कोई है भी नहीं। भक्ति-सूत्रों के अनुसार परमप्रेम ही भक्ति है। हम जब परमप्रेममय हो जाते हैं, यही भगवान की भक्ति करना होता है। भक्ति कोई क्रिया नहीं है, यह एक अवस्था यानि स्थिति है।
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यह एक मिथ्या भ्रम है कि हम किसी की भक्ति कर रहे हैं। हम भक्त हो सकते हैं, लेकिन किसी की भक्ति कर नहीं सकते। परमात्मा कोई वस्तु या कोई व्यक्ति नहीं है जो आकाश से उतर कर आयेगा, और कहेगा कि भक्त, वर माँग। वह कोई सिंहासन पर बैठा हुआ, दयालू या क्रोधी व्यक्ति भी नहीं है जो दंडित या पुरस्कृत करता है। परमात्मा हमारी अपनी स्वयं की ही एक उच्चतम चेतना है। यह एक अनुभूति का विषय है, जिसका मैंने अनुभव किया है।
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हम निमित्त मात्र ही नहीं, इतने अधिक प्रेममय हो जायें कि स्वयं में ही परमात्मा की अनुभूति हो। परमात्मा और स्वयं में कोई भेद न रहे। हमारा अस्तित्व ही परमात्मा का अस्तित्व हो जाए। यही परमात्मा की प्राप्ति है, यही आत्म-साक्षात्कार है। भगवान कोई ऊपर से उतर कर आने वाले नहीं, हमें स्वयं को ही परमात्मा बनना पड़ेगा। सदा शिवभाव में रहो। हम परमशिव हैं, यह नश्वर मनुष्य देह नहीं।
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लौकिक रूप से ही हम कह सकते हैं कि भगवान को अपना पूर्ण प्रेम दो। यथार्थ में वह लौकिक प्रेम हम स्वयं हैं। हमें स्वयं को ही सत्यनिष्ठ और परमप्रेममय बनना होगा। सत्यनिष्ठा कभी व्यर्थ नहीं जाती। सदा वर्तमान में रहें। परमात्मा हम स्वयं हैं। हमारा परमात्मा के रूप में जागृत होना ही परमात्मा की प्राप्ति है।
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"मिलें न रघुपति बिन अनुरागा, किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥" रां रामाय नमः॥ श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥ जय जय श्रीसीताराम॥
शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं !! अहं ब्रह्मास्मि !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ जनवरी २०२५
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