परमब्रह्म परमात्मा की ध्यान-साधना तभी करें जब आपका आचरण व विचार शुद्ध हों, और आप में परमात्मा को पाने की एक घनीभूत अभीप्सा हो। अन्यथा मत कीजिये, आपको कोई लाभ नहीं होगा, लाभ के स्थान पर हानि ही होगी। आपको मष्तिष्क की स्थायी गंभीर विकृति भी हो सकती है, आप विक्षिप्त भी हो सकते हैं, या आपको आसुरी जगत अपने नियंत्रण में लेकर एक भयानक असुर भी बना सकता है। इस स्थिति में आपका शरीर तो मनुष्य का ही रहेगा, लेकिन आपके विचार राक्षसी होंगे। अतः इस स्थिति से बचें।
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ध्यान साधना और सूक्ष्म प्राणायाम उन्हीं के लिए है -- जो कामुकता, लोभ, क्रोध, मोह, घृणा, अहंकार, और ईर्ष्या से प्रायः मुक्त हैं। इसका सबसे पहला लाभ तो यह होगा कि यह आपको वीतराग बना देती है। कुछ समय पश्चात आप पाएंगे कि आप राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त हैं। दूसरा लाभ यह होगा कि आपकी प्रज्ञा -- परमात्मा में स्थिर होने लगेगी। आगे आपको ईश्वर-लाभ होगा।
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आप भजन-कीर्तन कीजिये, खूब नाम-जप कीजिये। जब विचारों में पवित्रता आने लगे, तभी ध्यान और सूक्ष्म प्राणायाम आदि की साधना कीजिये, अन्यथा नहीं॥ इस आलेख को साझा (Share) भी कीजिए। धन्यवाद॥ हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ जनवरी २०२५
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पुनश्च: --- आध्यात्म में वीतरागता और स्थितप्रज्ञता -- ये दोनों ही आवश्यक हैं। इस के पश्चात ही आगे का मार्ग प्रशस्त होता है। जीवन -- कभी समाप्त न होने वाली एक सतत् प्रक्रिया है। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, शिव-संकल्प तो सभी सिद्ध होंगे ही। सबसे बड़ा शिव-संकल्प है -- परमात्मा की प्राप्ति, जिस के लिए चाहे कितने भी जन्म लेने पड़ें, वे सभी कम हैं।
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