अब भगवान का नाम लेकर छलांग लगा ली है-- आर या पार। पार पहुँच गए तो भगवती सीता जी के दर्शन हो जाएंगे। नहीं पहुंचे तो भगवान का नाम लेते हुए उन्हीं में विलीन हो जाएंगे। बीच में खड़े नहीं रह सकते।
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मैं बातें सिर्फ ज्ञान और भक्ति की ही करता हूँ, क्योंकि और कुछ मुझे आता-जाता भी नहीं है। निर्बल के बल राम। बीच में कभी कभी वेदान्त-वासना जागृत हो जाती है। अब किसी से कोई बात ही नहीं करनी है। भगवान ही एकमात्र सत्य हैं, बाकी सब मिथ्या है। किसी की भगवान में रुचि ही नहीं है। सब को भगवान का सामान चाहिए, भगवान से किसी को कोई मतलब नहीं है।
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मुझे निमित्त बनाकर भगवान स्वयं अपनी भक्ति और उपासना करते रहें। मेरा सब कुछ बापस ले लें, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। मुझे भी अपने साथ कर लें। उनकी दुनियाँ से मन भर गया है।
ॐ ॐ ॐ !!
७ अप्रेल २०२२
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पुनश्च:---
यह भगवान को प्रसन्न करने वाली बात कुछ जँचती नहीं है। प्रसन्नता और अप्रसन्नता -- उनका अपना मामला है, मुझे इससे क्या?
कभी मेरा साथ न छोड़ें, बस और कुछ नहीं चाहिए।
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कल अचानक ही मन में एक भाव उठा,और किसी से बात करने की इच्छा हुई, वह भी किसी ऐसे व्यक्ति से जो सौ काम छोड़ कर पहले मेरी बात सुने। वृंदावन के एक महात्मा जी को फोन लगाया, जो बड़े प्रसन्न हुये और पूछा कि फोन करने का क्या उद्देश्य है। मैंने कहा कि आज भगवान से लड़ाई करने का मानस हो रहा है। भगवान को कुछ बुरा-भला भी कहना चाहता हूँ, उनकी निंदा भी करना चाहता हूँ, और उनसे उनकी शिकायत भी करना चाहता हूँ, लेकिन किन शब्दों का प्रयोग करूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। भगवान के बारे में सोचता हूँ तो वाणी मौन हो जाती है। उनके सिवाय कोई अन्य रहता भी नहीं है।
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किसी परिणाम पर पहुँच नहीं पाये, किसी के पास मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। और भी अनेक बाते हैं, जिन्हें लिख नहीं सकता, और हर किसी के साथ बात भी नहीं कर सकता।
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