Thursday, 31 October 2019

आतताई का बध शास्त्रसम्मत है .....

आततायी को चाहे वह गुरु हो या बालक,वृद्ध हो या बहुश्रुत-ब्राह्मण, बिना सोचे शीघ्र मार देना चाहिये| कोई आततायी आपको मारने आ रहा है या आपके राष्ट्र और धर्म का अहित करने आ रहा है, तब क्या आप उस में परमात्मा का भाव रखेंगे? मेरे आदर्श तो भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण हैं| कहीं भी कोई संदेह या भ्रम होता है तो मैं स्वयं से यह प्रश्न करता हूँ कि यदि भगवान् श्रीराम मेरे स्थान पर होते तो वे क्या करते? जो भगवान करते या भगवान ने किया है वही मेरा आदर्श है और वही मुझे करना चाहिए| इस से सारे भ्रम दूर हो जाते हैं|
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'वशिष्ठ-स्मृति' के अनुसार आततायी का लक्षण निम्नलिखित है―
*अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः । क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते आततायिनः ।।-(वशिष्ठ-स्मृति ३/१९)
आग लगाने वाला,विष देने वाला,हाथ में शस्त्र लेकर निरपराधों की हत्या करने वाला,दूसरों का धन छीनने वाला,पराया-खेत छीनने वाला,पर-स्त्री का हरण करने वाला-ये छह आततायी हैं।
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ऐसे आततायी के वध के लिए मनुजी का आदेश है―
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् । आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ।।--(मनु० ८/३५०)
आततायी को चाहे वह गुरु हो या बालक,वृद्ध हो या बहुश्रुत-ब्राह्मण, बिना सोचे शीघ्र मार देना चाहिये।
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भगवान् राम ने इसी मनुस्मृति वचन का उल्लेख रामायण में किया है-
श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चारित्रवत्सलौ।
गृहीतौ धर्मकुशलैस्तत्तथा चरितं हरे॥(किष्किन्धा काण्ड, १८/३१)
इसके पूर्व ताड़का (ताटका) के वध के लिये भी विश्वामित्र ने राम को कहा था कि स्त्री का वध करने में उनको संकोच नहीं होना चाहिये।
बालकाण्ड, (सर्ग २५)-न हि ते स्त्री वधकृते घृणा कार्या नरोत्तम॥१६॥
चातुर्वर्ण्य हितार्थाय कर्तव्यं राजसूनुना।
नृशंसमनृशंसं वा प्रजारक्षणकारणात्॥१७॥
पातकं वा सदोषं वा कर्तव्यं रक्षता सदा।
राज्यभारनियुक्तानामेष धर्मः सनातनः॥१८॥
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जय श्रीराम ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
२३ अक्टूबर २०१९

भगवान की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है .....

भगवान की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है .....
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हरिःकृपा से मुझे सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों के अच्छे से अच्छे संत-महात्माओं के सत्संग का अवसर मिला है| हर संप्रदाय में अच्छे से अच्छे विद्वान और परोपकारी तपस्वी महात्मा हैं, इसलिये मैं किसी संप्रदाय की या किसी संत-महात्मा की निंदा नहीं करता| मानवीय कमजोरी तो सभी में होती हैं, हम स्वयं भी उस से मुक्त नहीं हैं, अतः जो बात अच्छी नहीं लगती हो वह निज जीवन में नहीं आनी चाहिए, पर सार की बात सभी की ग्रहण कर लेनी चाहिए| सबसे बड़ी सार की बात है .... "भगवान से परमप्रेम यानि भक्ति, और भगवान को पाने की अभीप्सा|" इस से अधिक बड़ी कोई दूसरी बात नहीं है| कोई यह कहे कि उसका मत ही सही है और बाकी सब गलत, तो ऐसे व्यक्तियों से उसी क्षण दूर हट जाना चाहिए| अपनी स्वयं की गुरु-परंपरा, आस्था और उद्देश्य के प्रति मैं निष्ठावान और पूर्णतः समर्पित हूँ|
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अब तो सारी प्रेरणा, मार्गदर्शन और ज्ञान, भगवान की परम कृपा से प्रत्यक्ष उन्हीं से मिल जाता है| बौद्धिक स्तर पर कहीं भी किसी भी तरह की कोई शंका और संदेह नहीं है| छोटी से छोटी हर तरह की जिज्ञासा की पूर्ति भगवान स्वयं कर देते हैं, अतः पूर्ण संतोष और तृप्ति है| कहीं भी इधर-उधर देखने की आवश्यकता नहीं है| अपनी इस वर्तमान शारीरिक आयु में इस स्वास्थ्य के साथ किसी भी तरह की भागदौड़ और बड़ी गतिविधी अब संभव नहीं है| इस लिए अकेला ही हूँ और अकेला ही आनंदमय, संतुष्ट और तृप्त रहूँगा, किसी भी तरह की कोई आकांक्षा नहीं है|
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साधना के क्षेत्र में मेरा अनुभव यह है कि शब्द ब्रह्म प्रणव सबसे बड़ा मंत्र है, और आत्मानुसंधान सबसे बड़ा तंत्र| बीज मंत्रों, नाद, कुंडलिनी जागरण, चक्रभेद, व विभिन्न मुद्राओं और साधनाओं आदि का ज्ञान भगवान स्वयं किसी न किसी माध्यम से करा देते हैं| अतः सारा ध्यान भक्ति पर ही होना चाहिए| भक्ति से ही ज्ञान और वैराग्य का जन्म होता है| गीता में भगवान ने जिस अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति को बताया है, वह सर्वश्रेष्ठ है .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी|
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३::११||"
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जैसे जैसे भौतिक आयु बढ़ती जा रही है, इस शरीर, मन और बुद्धि की क्षमता भी कम होती जा रही है| धीरे धीरे सब और से ध्यान हटा कर भगवान में ही अब लगाना है| जिस दिन भी ईश्वर की इच्छा होगी उस दिन व उस क्षण यह जीवात्मा ब्रह्मरंध्र को भेदकर इस देह से मुक्त हो परमशिव में विलीन हो जाएगी|
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आनंद ही आनंद और मंगल ही मंगल है| हे सर्वव्यापी परमशिव आपकी जय हो| सभी का कल्याण हो| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ अक्तूबर २०१९

भारत का स्वतन्त्रता दिवस २१ अक्तूबर को या ३० दिसंबर को क्यों नहीं मनाना चाहिए?

एक ज्वलंत प्रश्न :----- अब हमें भारत का स्वतन्त्रता दिवस २१ अक्तूबर को या ३० दिसंबर को क्यों नहीं मनाना चाहिए?
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आज से ७६ वर्ष पूर्व २१ अक्तूबर १९४३ को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी थी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मंचूरिया और आयरलैंड ने मान्यता दे दी थी| जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप समूह इस अस्थायी सरकार को दे दिये| सुभाष बोस उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया| अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया|
३० दिसंबर १९४३ को पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया था|
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इससे पहले प्रथम विश्व युद्ध के बाद अफ़ग़ानिस्तान में महान् क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप ने आज़ाद हिन्द सरकार और फ़ौज बनायी थी जिसमें ६००० सैनिक थे|
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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इटली में क्रान्तिकारी सरदार अजीत सिंह ने 'आज़ाद हिन्द लश्कर' बनाई तथा 'आज़ाद हिन्द रेडियो' का संचालन किया|
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जापान में रासबिहारी बोस ने भी आज़ाद हिन्द फ़ौज बनाकर उसका जनरल कैप्टेन मोहन सिंह को बनाया था|
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इन सभी का लक्ष्य भारत को अंग्रेज़ों के चंगुल से सैन्य बल द्वारा मुक्त कराना था| पर स्वतंत्र सरकार की स्थापना नेताजी ने ही ७६ वर्ष पूर्व आज ही के दिन की थी| अतः वास्तविक स्वतंत्रता दिवस तो आज ही है|
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१५ अगस्त १९४७ तो भारत का विभाजन दिवस था| १५ अगस्त १९४७ का दिन भारत के लिए एक कलंक था क्योंकि उस दिन भारत के दो टुकड़े हुए, लाखों लोगों की हत्या हुई, लाखों महिलाओं के साथ बलात्कार हुए और करोड़ों लोग विस्थापित हुए| इस दिन लाशों से भरी हुई कई ट्रेन पाकिस्तान से आईं जिन पर खून से लिखा था .... Gift to India from Pakistan. १९७६ में छपी पुस्तक Freedom at midnight में उनके चित्र दिये दिये हुए थे| वह कलंक का दिन भारत का स्वतन्त्रता दिवस नहीं हो सकता|
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तेरा गौरव अमर रहे माँ हम दिन चार रहें न रहें| भारत माता की जय !
वन्दे मातरं ! जय हिन्द !
कृपा शंकर
२१ अक्तूबर २०१९

शुभ काम में देरी नहीं .....

शुभ काम में देरी नहीं| जो कल करना है सो आज करो, और जो आज करना है वह अभी करो| सर्वाधिक शुभ कार्य है ..... भक्तिपूर्वक परमात्मा का ध्यान, जिसे आगे पर ना टालें| भगवान की अपार कृपा बरस रही है| भगवान अपनी परम कृपा लूटा रहे हैं| दोनों हाथों से खूब लूट लो, अन्यथा बाद में पछताना होगा| कोई कहता है कि हमारा समय नहीं आया है, उनका समय कभी नहीं आएगा| किसी ने पूछा कि संसार में उलझे हुए हैं, भगवान के लिए फुर्सत कैसे निकालें? उनके लिए हमारा उत्तर है .....
जब हम साइकिल चलाते हैं तब पैडल भी मारते हैं, हेंडल भी पकड़ते हैं, ब्रेक पर अंगुली भी रखते है, सामने भी देखते हैं, और यह भी याद रखते हैं कि कहाँ जाना है| इतने सारे काम एक साथ करने पड़ते हैं अन्यथा हम साइकिल नहीं चला पाएंगे| वैसे ही यह संसार भी चल रहा है| संसार में इस देह रूपी मोटर साइकिल को भी चलाओ पर याद रखो कि जाना कहाँ है|

निज जीवन सतोगुण प्रधान हो .....

निज जीवन सतोगुण प्रधान हो .....
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सतोगुण की प्रधानता निज जीवन में हो, यह गीता में भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है, इसलिए इसका प्रयास निरंतर करते रहना चाहिए| जीवन में भक्ति और ज्ञान, सतोगुण द्वारा ही संभव है| रजोगुण प्रधान व्यक्ति कर्मयोगी तो हो सकता है, पर भक्त और ज्ञानी नहीं| सतोगुण के लिए अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) की शुद्धि आवश्यक है जिस के लिए प्रथम आवश्यकता "आहार शुद्धि" है| हमारा भोजन ही हमारा आहार नहीं है; आँखों का आहार ... दृश्य, कानों का आहार ... श्रवण, नासिका का आहार ... गंध, और मन का आहार ... विचार हैं| इन सब की शुद्धि आवश्यक है तभी जीवन में सतोगुण की प्रधानता होगी|
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साधना में विक्षेप यानि चंचलता और भटकाव का कारण रजोगुण है| जड़ता और प्रमाद यानि आलस्य और दीर्घसूत्रता यानि काम को आगे के लिए टालने की प्रवृत्ति का कारण तमोगुण है| तमोगुण प्रधान व्यक्ति कभी आध्यात्मिक हो ही नहीं सकता| सत्संग द्वारा उसमें कुछ अच्छे गुण तो या सकते हैं, पर आध्यात्म नहीं|
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भक्ति से ही ज्ञान और वैराग्य का जन्म होता है| ज्ञान और वैराग्य सतोगुण के लक्षण हैं| ज्ञान और वैराग्य ही किसी को जीवनमुक्त बना सकते हैं| भगवान श्रीकृष्ण तो नित्यसत्वस्थ यानि नित्य सतोगुण में ही स्थित रहने और उस से भी परे जाने का का आदेश देते हैं .....
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन| निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्||२:४५||"
निस्त्रैगुण्य होने के लिए भगवान ने यहाँ निर्द्वन्द्व, नित्यसत्त्वस्थ, निर्योगक्षेम और आत्मवान् होने की चार शर्तें भी रख दी हैं| यहाँ हम नित्य सत्वस्थ होने की ही चर्चा कर रहे हैं, अतः इस चर्चा के मूल विषय से भटकेंगे नहीं|
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अगली आवश्यकता अच्छे वातावरण की है जिसका निर्माण या तो हमें स्वयं करना पड़ेगा, या उसकी खोज कर उसमें रहना होगा| इससे आगे की आवश्यकता स्वाध्याय, सत्संग और साधना की है| सबसे बड़ी आवश्यकता हरिःकृपा है जिसके बिना कुछ भी संभव नहीं है|
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भगवान का सदा स्मरण करें, उनके नाम का जप करें, उनका ध्यान करें और उन्हें अपने जीवन का केंद्र-बिन्दु बनाएँ| फिर निश्चित रूप से उनकी कृपा होगी| यही सन्मार्ग है|
भगवान की कृपा थी इसलिए ये चार पंक्तियाँ लिख पाया अन्यथा मुझ अकिंचन की क्या औकात है? कुछ भी नहीं| हे प्रभु, आपकी जय हो, आप ही इस जीवन को जीते रहें, आपकी कृपा बनी रहे| हरिः ॐ तत्सत्! ॐ ॐ ॐ!!
कृपा शंकर
२१ अक्तूबर २०१९

साधना में उत्साह कम हो जाये तो क्या करें ?

साधना में उत्साह कम हो जाये तो क्या करें ?
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चाहे हम कितने भी बड़े वेदांती हों, एक बार तो साकार साधना में बापस आना ही पड़ेगा| शुद्ध देसी घी का दीपक जलायें और अपने इष्ट देव के विग्रह के समक्ष निवेदित करें| उस दीपक को प्रज्ज्वलित रहने दें और अपने पवित्र आसन पर बैठकर हाथ में जप माला लें और भगवान श्रीगणेश व गुरु महाराज को मानसिक नमन करते हुए यथासंभव अधिकाधिक अपने उपासना मंत्र का पूरी भक्ति से जप करें| प्रज्ज्वलित शुद्ध देसी घी के दीपक के समक्ष मंत्रशक्ति कई गुणा अधिक बढ़ जाती है|
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चलते फिरते हर समय जप योग का अभ्यास करें| श्रीगुरुचरणों का ध्यान करें, स्वाध्याय और सत्संग करें, कुसंग का त्याग करें व तनाव-मुक्त जीवन जीयें| साधना के अतिरिक्त कुछ न कुछ लोक-कल्याण का कार्य भी करते रहें|
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इस से एक नये उत्साह का जन्म होगा और हरिः कृपा से सारे विक्षेप दूर होंगे| निराकार अनंत की साधना भी धीरे धीरे बापस प्रारम्भ हो जाएगी| शुभ कामनाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० अक्तूबर २०१९

हृदय की यह वेदना स्वतः ही फूट पड़ती है .....

हृदय की यह वेदना स्वतः ही फूट पड़ती है .....
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हे प्रभु, हमारे में तो इतनी शक्ति नहीं है कि आपकी इस दुस्तर माया को पार कर सकें| आप ही अनुग्रह कर के हमारी रक्षा करें और अपने श्रीचरणों में आश्रय दें| हमारे में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि अंत समय में आपका स्मरण कर सकें| यह देह तो भस्म हो जाएगी आप ही अनुग्रह कर के हमारा स्मरण कर लेना| आपकी कृपा हमें पार लगा देगी| हम आपकी कृपा और अनुग्रह पर ही निर्भर हैं|
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्‌| ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर||"
(ईशावास्योपनिषद मंत्र १७)
मेरा प्राण सर्वात्मक वायु रूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो क्योकि वह शरीरों में आने जाने वाला जीव अमर है; और यह शरीर केवल भस्म पर्यन्त है इसलिये अन्त समय में हे मन ! ॐ का स्मरण कर, अपने द्वारा किए हुये कर्मों का स्मरण कर, ॐ का स्मरण कर, अपने द्वारा किये हुए कर्मों का स्मरण कर||
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गीता में आप ने ही कहा है .....
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्| साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः||९:३०||"
अर्थात यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है||
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
अर्थात मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे||
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अर्थात अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२० अक्तूबर २०१९

Saturday, 19 October 2019

जगन्माता को हम नामरूप में कैसे बांध सकते हैं? ....

दीपावली की शुभ कामना .....
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इस समय जो मैं लिख रहा हूँ, यह कोई लेख नहीं है| अभी कोई पोस्ट नहीं कर रहा हूँ, यह सिर्फ एक संवाद है जो मैं अपने फेसबुक व अन्य संपर्कों से करना चाहता हूँ| फेसबुक व सोशियल मीडिया पर सिर्फ राष्ट्रवादी और आध्यात्मिक व्यक्ति ही मेरे संपर्क में रहें| शेष मुझे छोड़ दीजिये क्योंकि मैं उन के किसी काम का नहीं हूँ|
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एक प्रश्न है जिस पर मनीषियों के विचार जानना चाहता हूँ| परमात्मा की उपासना मातृ रूप में क्यों व कैसे करें? जगन्माता तो असीम और अनंत है, दसों दिशाएँ उनके वस्त्र हैं, फिर उन्हें हम नामरूप में कैसे बांध सकते हैं?
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उन्हें हम सीमित नहीं कर सकते तो क्या परमात्मा की अनंतता, अनंत विस्तार की ही हम जगन्माता के रूप में आराधना नहीं कर सकते? मेरी चेतना में तो परमशिव और पराशक्ति में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं| शिव और विष्णु भी वे ही है, उनमें भी कहीं कोई भेद नहीं है| वैसे ही महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती में भी कोई भेद नहीं है, ये और दसों महाविद्याएँ व परमशिव भी एक ही हैं|
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जहाँ तक मैं समझता हूँ परमात्मा की पूर्णता ही जगन्माता है और अपनी परिछिन्नता को त्याग कर, उस पूर्णता को हम उपलब्ध हों, यही जगन्माता की उपासना है| हमारे अंतर का अंधकार दूर हो, और ज्योतिर्मय कूटस्थ परमब्रह्म परमात्मा के साथ हम एक हों, यही दीपावली की शुभ कामना और अभिनंदन है|
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आप सब को नमन ! हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० अक्तूबर २०१९

परमात्मा भी एक अनुभूति हैं .....

"जगन्माता" एक अनुभूति है, "परमशिव" भी एक अनुभूति है, "गुरु-तत्व" भी एक अनुभूति है, ये सब परमात्मा की परम कृपा से ही समझ में आते हैं, अन्यथा नहीं| परमात्मा भी एक अनुभूति हैं, अन्यथा शास्त्र ही प्रमाण हैं|
"सोइ जानहि जेहि देहु जनाई, जानत तुमहिं तुमहि हुई जाई।"
"धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् |
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भगवान से परमप्रेम करें| गीता का स्वाध्याय करें| अपनी चेतना को उत्तरा-सुषुम्ना में रखें| कुसंग का सदा त्याग करें, और परमात्मा का निरंतर सत्संग करें| यही सन्मार्ग है|
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अपनी श्रद्धा, विश्वास और आस्था को विचलित न होने दें, क्योंकि श्रद्धावान को ही शांति मिलती है| भगवान कहते हैं .....
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः| ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति||४:३९||
अर्थात श्रद्धावान् तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है| ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है||
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ अक्टूबर २०१९

जगन्माता सदा हमारे कूटस्थ चैतन्य में रहें, हम स्थितप्रज्ञ हों .....

जगन्माता सदा हमारे कूटस्थ चैतन्य में रहें, हम स्थितप्रज्ञ हों .....
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"स्थितप्रज्ञता" ..... साधना की उच्चतम अवस्था है जहाँ हम परमात्मा से साक्षात्कार करने लगते हैं| स्थितप्रज्ञ होने के लिए वीतराग होना आवश्यक है| जो राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त है वह वीतराग है| कुछ मतों का उच्चतम ध्येय ही वीतरागता है| वीतराग होने के साथ साथ जब हम अनुद्विग्नमन और विगतस्पृह होकर भय व क्रोध से भी मुक्त हो जाते हैं, तब हम स्थितप्रज्ञ हैं| स्थितप्रज्ञ व्यक्ति ही वास्तविक "मुनि" और "सन्यासी" है| गीता में भगवान कहते हैं....
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||"
अर्थात दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है||
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स्थितप्रज्ञता ही माया के प्रभाव से मुक्त करती है| हमें ऐसे स्थितप्रज्ञ महात्माओं की सेवा करनी चाहिए, इसका बड़ा पुण्य है| ऐसे महात्माओं की सेवा करते करते हम स्वयं भी वीतराग बन जाते हैं| योगदर्शन का एक सूत्र इस बात की पुष्टि करता है| वह सूत्र है ..... "वीतराग विषयम् वा चित्तम् ||१:३७||"
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रामचरितमानस के अरण्य कांड में सबरी को भगवान श्रीराम कहते हैं .....
"मम दरसन फल परम अनूपा | जीव पाव निज सहज सरूपा ||"
यह बहुत ही सुंदर प्रसंग है जिसे मैं विषय से भटक नहीं जाऊँ इसलिए नहीं लिख रहा|
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जगन्माता कुछ भी बनाए, कहीं भी रखे, कोई फर्क नहीं पड़ता| पर वे सदा निरंतर हमारे कूटस्थ चैतन्य में रहें| बस यही अभीप्सित है| उनकी चेतना में हम स्वयं भी परमशिव हैं| जगन्माता के प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ चाहिए भी नहीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ अक्टूबर २०१९

वीर सावरकर अमर हैं और अमर रहेंगे ....

वीर सावरकर अमर हैं और अमर रहेंगे| भारत की स्वतंत्रता में उनका योगदान सबसे अधिक है| भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को प्रकाश में वे ही लाए जो क्रांतिकारियों का प्रेरणा स्त्रोत बना| उन्हीं की प्रेरणा से नेताजी सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज का गठन किया| जेल से वे एक विशेष उद्देश्य के लिए बाहर आए थे| उन्होनें देखा कि भारतीयों के पास न तो अस्त्र-शस्त्र हैं, और न ही उन्हें चलाना आता है| उन्होंने हजारों राष्ट्रवादी युवकों को सेना में भर्ती कराया ताकि वे अस्त्र-शस्त्र चलाना सीखें और समय आने पर उन अस्त्रों का मुँह अंग्रेजों की ओर ही कर दें| द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ऐसा ही हुआ| इस युद्ध ने अंग्रेज सेना की कमर तोड़ दी थी| भारतीय सिपाहियों ने अंग्रेज अधिकारियों का आदेश मानने से मना कर दिया, और नौसेना में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह हुआ| इस से डर कर ही अंग्रेज भारत छोड़कर गए| जाते जाते वे भारत की सत्ता अपने एक मानसपुत्र को सौंप गए जिसने नेताजी सुभाष बोस, आजाद हिन्द फौज, और वीर सावरकर व भारतवर्ष का जितना अधिक अहित कर सकता था उतना किया| वीर सावरकर एक युगपुरुष जीवनमुक्त महान आत्मा थे जिन्होनें भारत माता को स्वतंत्र कराने के लिए अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही इस धरा पर जन्म लिया|
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वीर सावरकर ने खुद के लिए नहीं, बल्कि सारे बंदियों के लिए क्षमा-याचना की थी| इस समय देश में वीर सावरकर पर बहस चल रही है| झुठ की फैक्ट्री चलाने वालें अपनी आदत के अनुसार झूठ फैला रहे हैं| बार-बार एक साजिश के तहत यह झुठ फैलाया जाता है कि कालापानी जैसे सजा काटने वाले महान स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने अंग्रेजों से माफी थी| सच्चाई यह है वीर सावरकर ने अपने लिए नही ब्लकि अंडमान जेल में बंद सारे कैदियों के लिए माफी मांगी थी| अपनी पुस्तक "My Transporation Life" की पृष्ठ संख्या ६९, २१९, व २२० पर उन्होनें लिखा है कि वे इंदु भूषण नामक कैदी की आत्महत्या से इतने दुखी हो गये थें कि उन्होनें सारे कैदियों के लिए माफी याचिका लिख डाली थी|
 
भारत माता की जय ! वंदे मातरं !
१८ अक्तूबर २०१९

ॐ जय जगदीश हरे .....

ॐ जय जगदीश हरे .....
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आजकल घर-घर में और हर मंदिर में गाई जाने वाली प्रसिद्ध कालजयी आरती .... "ओम जय जगदीश हरे" के रचयिता पं. श्रद्धाराम शर्मा फिल्लौरी थे जिन्होंने सन १८७० ई. में इस आरती की रचना की| अगले ग्यारह वर्षों में यह आरती पूरे भारत में प्रचलित हो गई| सन १८६५ ई.में अंग्रेज़ सरकार ने उन पर एक पाबंदी लगाकर उन्हें उनके जिले से निष्काषित कर दिया था जिसके बाद वे पूरे भारत में घूम-घूम कर कथावाचन का कार्य करने लगे| हर कथा के अंत में वे यह आरती अवश्य गाते| इस तरह उनकी यह आरती पूरे भारत में प्रचलित हो गई|
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उनका जन्म पंजाब के जालंधर जिले के फिल्लौर नगर में हुआ था| पं. श्रद्धाराम शर्मा फिल्लौरी एक धर्म-प्रचारक, ज्योतिषी, स्वतंत्रता सेनानी, संगीतज्ञ तथा हिन्दी और पंजाबी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे| वे संस्कृत, हिन्दी, पंजाबी और फ़ारसी भाषाओं के विद्वान तथा ज्योतिष में पारंगत थे| उन्होने पंजाबी में "सिक्खां दे राज दी विथियाँ" और "पंजाबी बातचीत" नाम की पुस्तकें लिखी थीं जो पंजाब में अत्यधिक लोकप्रिय हुईं| हिन्दी भाषा में उन्होने "भाग्यवती" नामक एक उपन्यास सन १८७७ ई. में लिखा जिसे कई समीक्षक हिन्दी भाषा का प्रथम उपन्यास बताते हैं| २४ जून सन १८८१ ई.को लाहौर में उनका निधन हो गया| उनके निधन के बाद ही उनकी धर्मपत्नी ने यह उपन्यास छपवाया था| वे आत्म-प्रशंसा और प्रचार से दूर रहे थे, शायद इसीलिए लोग उनके बारे में कम जानते हैं| ऐसे संत को नमन!

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ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे |
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे | ॐ जय जगदीश हरे ||
जो ध्यावे फल पावे, दुःखबिन से मन का,
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का | ॐ जय जगदीश हरे ||
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी,
तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी | ॐ जय जगदीश हरे ||
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी,
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी | ॐ जय जगदीश हरे ||
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता,
मैं मूरख फलकामी, कृपा करो भर्ता | ॐ जय जगदीश हरे ||
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति,
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति | ॐ जय जगदीश हरे ||
दीन-बन्धु दुःख-हर्ता, ठाकुर तुम मेरे,
अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे | ॐ जय जगदीश हरे ||
विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा,
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, सन्तन की सेवा | ॐ जय जगदीश हरे ||

पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं; पूर्णता शिव में ढूंढें, जीव में नहीं .....

पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं; पूर्णता शिव में ढूंढें, जीव में नहीं .....
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सदा हृदय की ही सुननी चाहिए, मन की नहीं| हर व्यक्ति में परमात्मा का अंश तो होता ही है, पर साथ साथ पशुता भी होती है| अति अल्प मात्रा में ही सही जब तक व्यक्ति में अहंकार है, पशुता का अंश भी उसमें है| व्यक्ति का कभी भी पतन हो सकता है, उसे पता भी नहीं चलता|
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हमारी यह बहुत बड़ी भूल है कि हम अपने राष्ट्रनायकों, महात्माओं और धर्मगुरुओं को पूर्ण समझते हैं; उनकी हर बात को आदर्श और परम सत्य मानते है, जो एक भटकाव है| उनके कहे हुए असत्य को भी सत्य मान लेते हैं| पर वे भी भूल कर सकते हैं और उनका भी आंशिक या गहन पतन हो सकता है| पूर्णता और सत्य को परमात्मा में ढूंढें , मनुष्य में नहीं, चाहे उसका व्यक्तित्व कितना भी महान क्यों ना हो| पर हमें दूसरों के उज्जवल पक्ष से ही प्रेरणा लेनी चाहिए, ना कि उनके अंधकारमय पक्ष से|
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हमारा निरंतर प्रयास हो कि हम उतरोत्तर प्रगति करते रहें| किसी गेंद को सीढियों पर गिरा दें तो वह नीचे की ओर ही जायेगी| किसी बर्तन को नियमित न माँजें तो उसकी चमक भी कम होती जायेगी| जीवन में स्थिरता नहीं है| या तो उत्थान है या पतन| निरतर उत्थान का प्रयत्न न करते रहेंगे तो पतन निश्चित है| हमारे भीतर एक देवता भी है और एक असुर भी| हमारा लक्ष्य इन दोनों से ऊपर उठ कर शिवत्व को उपलब्ध होना है| शुभ कामनाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अक्तूबर २०१९

जगन्माता की उपासना किस रूप में करें? ....

जगन्माता की उपासना किस रूप में करें?
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सारे नाम-रूप, सम्पूर्ण अस्तित्व, साकार और निराकार वे ही हैं| वे ही दसों दिशायें हैं, वे ही प्राण और आकाश तत्व हैं| वे ही सोम हैं, वे ही अग्नि हैं, वे ही कूटस्थ स्वरूपा गुरु-तत्व और परमेश्वरी हैं| शब्द-ब्रह्म व वाक् भी वे ही हैं, वे ही बैखरी, मध्यमा, पश्यंती और परा हैं| वे ही ज्योतिषांज्योति और समस्त ज्ञान हैं| वे ही पूर्णत्व हैं, प्रणव रूप में वे ही इस अकिंचन के माध्यम से स्वयं का ध्यान कर रही हैं| यह अकिंचन भी वे ही हैं जिसका चित्त ही जगन्माता के अति कोमल चरण-युगलों की चरण-पादुका है; जिसे पहिन कर ही वे अपनी इस अनंत सृष्टि में विहार कर रही हैं| हमें अपना "निमित्त" बना कर जगन्माता ने हम सब पर बड़ी कृपा की है| जिस ने हमें आलोकित कर रखा है, वह जगन्माता का सौन्दर्य ही वास्तविक सौंदर्य है, जिसके आलोक में कोई भी असत्य रूपी अन्धकार नहीं टिक सकता| प्रेम ही उनका स्वभाव है, जो हमें आनंदमय बनाता है| हमारा जीवन मंगलमय हो, हम सत्यनिष्ठ, स्वस्थ, वीर व अकुटिल हों| हम जीव से शिव बनें, हमारा कल्याण हो|
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते| पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः|| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अक्तूबर २०१९

एक वृक्ष में "धर्म" और "मोक्ष" नाम के दो पुष्प और फल ....

एक वृक्ष है जिसमें "धर्म" और "मोक्ष" नाम के दो पुष्प और फल हैं| महाभारत के अनुसार वह वृक्ष भारतवर्ष है| भारत का प्राण "धर्म" है| इस "धर्म" पर आघात इस मानवता का नाश कर देगा| यह "धर्म" नहीं रहा तो सभी मनुष्य आपस में लड़कर ही समाप्त हो जायेंगे|
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संसार में कुछ भी नि:शुल्क नहीं है| हर चीज का मुल्य चुकाना होता है| एक दीपक पहले स्वयं जलता है तब जाकर उसका प्रकाश औरों को मिलता है| दीपक पहले अपने आप को जलाता है, उसके बाद ही पतंगे उस की लौ से प्रेम करते हैं|
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लोगों से मित्रता की कामना ..... निजात्मा की परमात्मा को पाने की अभीप्सा की एक अभिव्यक्ति है| सांसारिक लोगों से अत्यधिक घनिष्ठता अंततः वितृष्णा यानि घृणा को जन्म देती है| अत्यधिक घनिष्ठता से अंततः निराशा ही मिलती है| मित्रता वहीं सफल होती है जहाँ मित्रता का आधार परमात्मा के प्रति प्रेम होता है| अन्य आधार बेचैनी और असंतोष को जन्म देते हैं| वास्तव में हमारा सच्चा और एकमात्र मित्र परमात्मा ही है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ अक्तूबर २०१९

सामूहिक घृणा का परिणाम युद्ध होता है ....

सामूहिक घृणा का परिणाम युद्ध होता है| प्रथम और द्वितीय दोनों विश्वयुद्धों का एकमात्र कारण था ..... "घृणा और लोभ"| जहाँ भी घृणा और लोभ होगा, वहाँ युद्ध अवश्यंभावी है, उसे कोई नहीं टाल सकता| भगवान श्रीकृष्ण ने भी महाभारत के युद्ध को टालने के बहुत प्रयास किए पर नहीं टाल सके, हमारी तो औकात ही क्या है?
वर्तमान में विश्व में घृणा और लोभ इतने अधिक बढ़ गए हैं कि उनका कोई अंत नहीं दिखाई देता| भारत की तो सबसे बड़ी समस्या ही भ्रष्टाचार है| मनुष्य सिर्फ अपनी मृत्यु से ही डरता है अन्य किसी से नहीं| भारत में दुर्भाग्य से स्थिति ऐसी बन गयी है कि बिना रिश्वत लिए कोई भी सरकारी कर्मचारी काम नहीं करता, कोई काम करना ही नहीं चाहता, सब को अधर्म का धन चाहिए| लोग नौकरी करते हैं सिर्फ वेतन के लिए, काम करने के लिए नहीं| काम करने के लिए रिश्वत चाहिए| सबकी दृष्टि पराये धन पर ही रहती है| ऐसे समाज और सभ्यता का पूरा विनाश ही हो जाना चाहिए| धर्म तो रहा ही नहीं है, अधर्म ही अधर्म है| चाहे आप किसी न्यायालय में जा कर देख लो, वहाँ भी सबकी गिद्ध-दृष्टि दिखाई देती है, सब की दृष्टि पराये धन पर रहती है| अतः यह समाज भी नष्ट होगा और नए सिरे से बसेगा तभी धर्म की पुनर्स्थापना होगी| वर्तमान परिस्थितियों में मुझे लगता है कि विनाश का प्रारम्भ पश्चिमी एशिया से ही होगा, जो आरंभ हो चुका है|
ॐ तत्सत् !
१५ अक्तूबर २०१९

परमात्मा की प्रेममय अनंतता ही हमारा अस्तित्व हो सकती है ....

परमात्मा की प्रेममय अनंतता ही हमारा अस्तित्व हो सकती है ....
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जन्म और मृत्यु की चेतना से परे परमात्मा की प्रेममय अनंतता ही हमारा अस्तित्व हो सकती है, उससे कम तो कुछ भी नहीं| संत-महात्माओं के मुख से सुना है कि हमारी सूक्ष्म देह में अज्ञान रुपी तीन ग्रंथियाँ होती हैं ..... ब्रह्मग्रंथि (मूलाधार में), विष्णुग्रंथि (अनाहत में) और रूद्रग्रंथि (आज्ञाचक्र में) जिनका भेदन किए बिना अज्ञान नष्ट नहीं होता| इसका वर्णन देव्याथर्वशीर्ष में भी बताते है|
यह विषय एक गोपनीय विषय है क्योंकि इसमें ऐसी योग साधना है जहाँ यम-नियमों का पालन अनिवार्य है| यहाँ गुरुमुखी (गुरुमुख से बताई हुई) साधना ही काम आती है| आचार्य गुरु भी वही हो सकता है जो श्रौत्रीय और ब्रह्मनिष्ठ हो| अतः किसी श्रौत्रीय ब्रहमनिष्ठ सिद्ध सद्गुरु से ही मार्गदर्शन प्राप्त करें, हर किसी से नहीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१२ अक्तूबर २०१९

साधना का संहार-क्रम और विस्तार-क्रम व इन से भी परे जो कुछ भी है :---

साधना का संहार-क्रम और विस्तार-क्रम व इन से भी परे जो कुछ भी है :---
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यह संसार हमारे विचारों से ही निर्मित है| जैसे हमारे विचार होते हैं, वैसा ही संसार हमारे लिए सृजित हो जाता है| हमारी कामनायें ही इस सृष्टि को सृजित कर रही हैं| इस विषय का ज्ञान सभी साधकों को होना चाहिए कि हम चाहते क्या हैं| हम संसार को चाहते हैं, या भगवान को चाहते हैं, या दोनों को चाहते हैं| अन्यथा स्थिति बड़ी विकट हो जाती है|
(१) संहार-क्रम की साधना परिधि से केंद्र की ओर जाने की साधना यानि मोक्ष की साधना है| इसमें संसार से प्रेम कम होते होते सिर्फ भगवान से ही रह जाता है| ऐसे लोगों को वैराग्य हो जाता है और वे घर-गृहस्थी के योग्य नहीं रहते| गृहस्थी में उनके घर के सदस्य उनसे बहुत अधिक दुःखी हो जाते हैं| ऐसे लोगों के लिए सन्यास की व्यवस्था है, उनको घर-गृहस्थी में नहीं रहना चाहिए|
(२) विस्तार-क्रम की साधना सांसारिक लाभ यानि भौतिक समृद्धि की साधना है, जिस में हम केंद्र से परिधि की ओर जाते हैं| इस से सारे सांसारिक लाभ मिलते हैं, लेकिन मोक्ष नहीं|
(३) एक है दोनों की यानि समग्रता की साधना जिसके बारे में साधक की मानसिक स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए कि वह क्या चाहता है| कोई झूठ-पाखंड नहीं होना चाहिए क्योंकि भगवान कहते हैं .... "मोहि कपट छल छिद्र न भावा"| हम जब कहते हैं .... "तेरा तुझको अर्पण", तो जो कुछ भी है वह बापस भगवान को ही चला जाएगा| यदि हम कहते हैं .... "धऩं देहि,बलं देहि, रूपं देहि" तो धन, बल और रूप तो मिलेगा पर मोक्ष नहीं|
यदि हम अपनी चेतना का विस्तार कर के परमात्मा की समग्रता का ध्यान करेंगे तो परमात्मा की समग्रता मिलेगी, कोई क्षुद्रता नहीं रहेगी| यही सर्वश्रेष्ठ साधना है| जो कुछ भी भगवान का है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, क्योंकि हम परमात्मा के अमृतपुत्र हैं| भगवान भी हमारे हैं, उन पर भी हमारा पूर्ण अधिकार है| हम उन को समर्पित हों| हम उनके साथ एक हैं|
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ज्ञान से भी परे की निश्चित रूप से एक अवस्था है, जो हमें प्राप्त हो| हमारा एक सच्चिदानंदमय परमशिव रूप है जो हमें प्राप्त हो| शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि ||
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जीसस क्राइस्ट का एक बहुत ही शानदार उपदेश है .....
"Whoever has will be given more, and he will have an abundance. Whoever does not have, even what he has will be taken away from him." (Matthew 13:12)
अर्थात जिसके पास है, उसे और भी अधिक दिया जाएगा, उसके पास सब कुछ होगा| पर जिसके पास नहीं है, उस से वह सब भी छीन लिया जाएगा जो कुछ भी उसके पास है|
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इस लेख में मैंने अपने विचार व्यक्त किए हैं| जिनसे मेरे विचार नहीं मिलते वे मुझ अज्ञानी को क्षमा करें| मैं जिस की खोज में हूँ वह ज्ञान और अज्ञान से परे की अवस्था है| मैं अपने विचारों पर दृढ़ हूँ जो बदल नहीं सकते|
ॐ तत्सत् ! शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ अक्टूबर २०१९

"संसार में जिसे हम ढूंढ रहे हैं वह तो हम स्वयं ही हैं".....

"संसार में जिसे हम ढूंढ रहे हैं वह तो हम स्वयं ही हैं".....
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यह मेरा अपना निजी अनुभव है कोई कपोल-कल्पना नहीं| मेरा सारा जीवन एक अंतहीन भागदौड़ था, जिस में मैंने दिन-रात एक किए, खूब खून-पसीना बहाया, आकाश-पाताल एक किए, और पूरी दुनियाँ की खाक छानी, पर मिला क्या? कुछ भी नहीं| बाहर के कामों को सलटाते सलटाते मैं स्वयं ही सलट गया| कहीं भी तृप्ति और संतुष्टि नहीं मिली| पूर्व जन्मों के कुछ अच्छे कर्मफलों से हृदय में एक अभीप्सा जागृत हुई जिसने जीवन की चिंतनधारा को एक नई दिशा दी, पर हृदय अशांत ही रहा|
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अंत में भगवान से प्रार्थना की तो उनकी परम कृपा से पता चला कि जिस सुख और आनंद को मैं बाहर ढूंढ रहा था वह तो मैं स्वयं ही हूँ| वह आनंद न तो भीतर है और न बाहर, वह तो मैं स्वयं हूँ| बाहर और भीतर की खोज एक पराधीनता है, और पराधीन को स्वप्न में भी सुख नहीं मिल सकता| अपने सच्चिदानंद आत्म-तत्व रूपी सत्य को व्यक्त करना ही अब इस जीवन का ध्येय है| उस सच्चिदानंद के अतिरिक्त अन्य सब असत्य/मिथ्या है, यह मेरा अपना निजी अनुभव है|
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जो कुछ भी मैंने लिखा है यह अपने हृदय की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है, कोई अपनी महता नहीं| यह स्वयं से स्वयं का एक सत्संग मात्र है, किसी से कोई अपेक्षा नहीं|
"ॐ सच्चिदानंदरूपाय नमोस्तु परमात्मने| ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमांगल्यमूर्तये||
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अक्तूबर २०१९

माया के "आवरण" और "विक्षेप" को हम भक्ति द्वारा पार करें .....

माया के "आवरण" और "विक्षेप" को हम भक्ति द्वारा पार करें .....
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माया के "आवरण" और "विक्षेप' को मैं सबसे बड़ी बाधा और शत्रु मानता था पर अब स्पष्ट हो गया है कि ये हमारे शत्रु नहीं बल्कि मित्र हैं जो चुनौतियों के रूप में सामने आते हैं| हर आध्यात्मिक साधक को ये चुनौतियाँ जगन्माता की कृपा से पार करनी ही पड़ती हैं| ये माया की शक्तियाँ हैं जो हमें परमात्मा से दूर रखती हैं| इनसे कोई लड़ नहीं सकता| इन्हें स्वीकार कर इनको पार ही करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है| इनको पार करना हमारा पुरुषार्थ है| भक्ति के द्वारा इन्हें पार किया जा सकता है, और इन्हें पार करना ही पड़ेगा| परिस्थितियों को दोष न दें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अक्टूबर २०१९

"भगवती भद्रकाली शक्ति पीठ" का भ्रमण और एक विलक्षण सिद्ध महात्मा से सत्संग ......

"भगवती भद्रकाली शक्ति पीठ" का भ्रमण और एक विलक्षण सिद्ध महात्मा से सत्संग ......
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कल मंगलवार ८ अक्तूबर २०१९ को विजयदशमी के दिन माँ भगवती से प्रेरणा हुई राजस्थान के चुरू जिले के राजलदेसर नगर में स्थित "भगवती भद्रकाली शक्ति पीठ" में भगवती के दर्शन और वहाँ के पीठाधीश्वर श्रीमद् दंडीस्वामी जोगेन्द्राश्रम जी महाराज से सत्संग करने की| मैं रात्रि में काम आने वाले कपड़ों की एक जोड़ी और कुछ अन्य आवश्यक सामान ब्रीफ़ केस में डालकर दोपहर साढ़े बारह बजे झुञ्झुणु से बीकानेर जाने वाली बस से चलकर ढाई घंटों की बस यात्रा के पश्चात राजलदेसर लगभग तीन बजे पहुँच गया| वहाँ आने की सूचना किसी माध्यम से भिजवा दी थी| एक ऑटो कर के सिमसिमिया रोड़ पर स्थित शक्ति पीठ पर गया| वहाँ स्वामीजी बाहर एक हॉल में बैठे हुए पाँच-छः जिज्ञासुओं से चर्चा कर रहे थे| मेरे वहाँ आगमन से वे बड़े प्रसन्न हुए| कुछ देर बाद जब सारे जिज्ञासु चले गए तब वे मुझे भीतर अपनी बैठक में ले गये|
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अपनी अंतर्प्रज्ञा से मुझे अहसास हो गया कि इस प्रथम भेंट में ही स्वामीजी मेरे बारे में सब कुछ जानते हैं, उन्हें किसी औपचारिक परिचय की या मुझ से कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं है| मैं भी सतर्क हो गया कि बातों ही बातों में कोई भी झूठी और अनावश्यक बात भूल से भी मेरे मुंह से नहीं निकल जाये|
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स्वामीजी सब समझ रहे थे कि मेरे अन्तर्मन में क्या चल रहा है और मैं क्या सोच रहा हूँ| दो घंटों तक उन्होनें वेदान्त के दृष्टिकोण से मुझे समझाकर मेरे हृदय को शांत किया| मुझे भी लगा कि मैं सही स्थान पर और सही सिद्ध संत से सत्संग लाभ ले रहा हूँ| रात्री को नौ बजे से हमारा सत्संग उनकी बैठक में दुबारा प्रारम्भ हुआ| उनके चार और भक्त हनुमानगढ़ से आए हुए थे| स्वामी जी ने हमें आदेश दिया कुछ भी पूछने का| मैंने अपनी कुछ जिज्ञासाएँ उनके समक्ष रखीं जिन का सटीक शास्त्रोक्त उत्तर उन्होने अपने अनुभव से दिया| फिर स्वयं उन्होने अपनी ओर से कई गूढ तत्व की बातें समझाईं जिनकी सार्वजनिक चर्चा नहीं की जाती| यह सत्संग बहुत लंबा आठ-नौ घंटों तक चला जिसमें समय की चेतना ही नहीं रही|
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बहुत अच्छा और लंबा सत्संग चल रहा था| समय की चेतना ही नहीं रही| जब घड़ी में समय देखा तो प्रातः के पाँच बज रहे थे| बड़ा ही लंबा, रहस्यमय और गूढ सत्संग हुआ| मैंने अनुभूत किया कि स्वामी जी में ज्ञान, भक्ति और वैराग्य .... तीनों कूट कूट कर भरे हुए हैं| यह भी अनुभूत किया कि उन पर माँ भगवती की पूर्ण कृपा है|
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आज प्रातःकाल मुझे लगने लगा कि यदि मैं आधे घंटे और इस आश्रम में रह लिया तो फिर कभी भी इस जीवन में बापस संसार में नहीं जा पाऊँगा, और विरक्त होकर यहीं सन्यासी बन जाऊँगा| जब मैं चलने लगा तो स्वामी जी ने तो आज्ञा नहीं दी, उनका आदेश तो था कि मैं वहीं रहूँ| पर घर पर कुछ आवश्यक कार्य सलटाने थे इसलिए क्षमा निवेदन कर के जबर्दस्ती बापस लौट आया| मुझे लगता है मैंने गलत ही किया, मुझे वहीं रहना चाहिए था| अपनी मूर्खता और गलत निर्णय के लिए श्रद्धेय स्वामीजी से क्षमा याचना करता हूँ| ऋषिकेश के ब्रह्मचारी शिवेंद्र स्वरूप जी भी वहीं मिल गये| वे बापस ऋषिकेश जा रहे थे| कुछ वर्षों से उनसे मेरी अच्छी मित्रता है| अपनी गाड़ी से उन्होने मुझे चुरू तक छोड़ दिया जहाँ से मैं बस द्वारा घर झुञ्झुणु आ गया|
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घोर आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब घर वालों ने कहा कि इतनी जल्दी बापस क्यों आ गये? सब ने कहा कि जब सत्संग के उद्देश्य से गये थे तो चार-पाँच दिन तो कम से कम वहीं रहना था| अब निकट भविष्य मैं स्वामी जी के सत्संग में बापस अवश्य जाऊंगा| अबकी बार ये महात्मा मुझे वैराग्य और सन्यास का आदेश देंगे, तो तत्क्षण स्वीकार लूँगा|
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अक्तूबर २०१९

विजयदशमी की शुभ कामनाएँ, बधाई और अभिनंदन ....

विजयदशमी की शुभ कामनाएँ, बधाई और अभिनंदन ....
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हमारे भीतर का रावण अभी तक मरा नहीं है| वह भीतर का रावण ही अनेक सद्गुण-विकृतियों के रूप में जीवित है| स्वयं राममय होकर ही हम इस रावण को मार सकते हैं| हमारे अंतर में असत्य और अन्धकार की शक्तियों से एक युद्ध निरंतर चल रहा है, इस युद्ध में हमें विजयी बनना है| ये अंधकार और असत्य की शक्तियाँ ही रावण हैं| जब से सृष्टि बनी है तब से आज तक बाहरी युद्धों को भी कोई नहीं रोक पाया है| लगता है कि जीवन में युद्ध अपरिहार्य है|
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भारत में युद्ध करने के लिए एक पृथक क्षत्रिय वर्ण का निर्माण कर दिया गया जिनका कार्य ही दूसरों को क्षति से त्राण दिलाना, यानी समाज और राष्ट्र की रक्षा हेतु युद्ध करना था| धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के लिए सभी युद्ध करते थे सिर्फ क्षत्रिय ही नहीं| कालान्तर में एक "सद्गुण विकृति" आ गयी और यह मान लिया गया कि युद्ध करना सिर्फ क्षत्रिय का ही कार्य है, अन्य वर्णों का नहीं| यह सद्गुण विकृति ही भारत के पराभव और दासता का कारण बनी| भारत पर जितने आक्रमण हुए हैं उनका दस-लाखवाँ प्रहार भी किसी अन्य संस्कृति पर हुआ तो वह संस्कृति नष्ट हो गई| भारतवर्ष इन प्रहारों को सहन करता हुआ आज भी जीवित है| समाज के सभी वर्ण यदि एकजूट होकर आतताइयों का सामना क्षत्रियों के साथ मिल कर करते तो भारत कभी पराभूत नहीं होता|
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युद्धभूमि में ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ प्रकट होता है| युद्धभूमि में ही गीता का ब्रह्मज्ञान व्यक्त हुआ| वह युद्ध जो हमारे अंतर में निरंतर चल रहा है .... असत्य और अन्धकार की शक्तियों से, उस युद्ध में हमें विजयी बनना है| यही विजयदशमी का संदेश है| ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ अक्तूबर २०१९

पृथ्वी पर कुछ भला होगा तो उन्हीं लोगों से होगा जिनके ह्रदय में परमात्मा है .....

पृथ्वी पर कुछ भला होगा तो उन्हीं लोगों से होगा जिनके हृदय में परमात्मा है| बड़ी से बड़ी और ऊँची से ऊँची सेवा जो हम अपने जीवन में कर सकते हैं वह है "निज जीवन में ईश्वर को व्यक्त करना"| यही सनातन धर्म है| यही भारत की अस्मिता और पहिचान है| बिना सनातन धर्म के भारत, भारत नहीं है| भारत ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है| भारत आज भी यदि जीवित है तो उन महापुरुषों के कारण जीवित हैं जिन्होंने निज जीवन में ईश्वर को व्यक्त किया, न कि धर्मनिरपेक्ष नेताओं, मार्क्सवादियों, अल्पसंख्यकवादियों, समाजवादियों और तथाकथित राजनीतिक सुधारवादियों के कारण|
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भारत में एक से एक बड़े बड़े चक्रवर्ती सम्राट हुए, महाराजा पृथु जैसे राजा हुए जिन्होंने पूरी पृथ्वी पर राज्य किया, जिनके कारण यह ग्रह "पृथ्वी" कहलाता है| एक से एक बड़े बड़े सेठ-साहूकार हुए| भारत में इतना अन्न होता था कि सम्पूर्ण पृथ्वी के लोगों का भरण पोषण हो सकता था, इसलिए यह राष्ट्र भारतवर्ष कहलाता था| एक छोटा-मोटा गाँव भी हज़ारों लोगो को भोजन करा सकता था| लोग सोने कि थालियों में भोजन कर थालियों को फेंक दिया करते थे| राजा लोग हज़ारों गायों के सींगों में सोना मंढा कर ब्राह्मणों को दान में दे दिया करते थे| पर हम अपनी संस्कृति में उन चक्रवर्ती राजाओं और सेठ-साहूकारों को आदर्श नहीं मानते और ना ही उनसे कोई प्रेरणा लेते हैं| हम आदर्श मानते हैं और प्रेरणा लेते हैं तो राम और कृष्ण जैसों से क्योंकि उनके जीवन में परमात्मा अवतरित थे| हमारे आदर्श और प्रेरणास्त्रोत सदा ही भगवान के भक्त और प्रभु को पूर्णतः समर्पित संतजन रहे हैं| और उन्होंने ही हमारी रक्षा की है, और वे ही हमारी रक्षा करेंगे|
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इस पृथ्वी पर चंगेज़, तैमूर, माओ, स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी, अँगरेज़ शासकों, व मुग़ल शासकों जैसे क्रूर अत्याचारी और कुबलई जैसे बड़े बड़े सम्राट हुए पर वे मानवता को क्या दे पाए? अनेकों बड़े बड़े अधर्म फैले और फैले हुए हैं, वे क्या दे पाए हैं, या क्या भला कर पाए हैं? कुछ भी नहीं! पृथ्वी पर कुछ भला होगा तो उन्हीं लोगों से होगा जिनके ह्रदय में परमात्मा है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
८ अक्तुबर २०१४

हम ध्यान कहाँ किस बिन्दु से आरंभ करें ? ....

हम ध्यान कहाँ किस बिन्दु से आरंभ करें ? ....
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देवीभागवत के अनुसार हमें शिखास्थान से ऊपर सहस्त्रार में, शिव संहिता के अनुसार ब्रह्मरंध्र में, गीता में भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार भ्रूमध्य में, और तंत्रागमों के अनुसार उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य) में ध्यान करना चाहिए|
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मेरा अनुभव कहता है कि हमारा आध्यात्मिक हृदय आज्ञाचक्र है जो भ्रूमध्य के बिल्कुल सामने पीछे की ओर खोपड़ी में है, जहाँ मेरूशीर्ष (Medulla Oblongata) है| जीवात्मा का निवास भी यहीं है| भ्रूमध्य में ध्यान करते करते ध्यान स्वयमेव ही सहस्त्रार में ब्रह्मरंध्र में चला जाता है| सहस्त्रार ही गुरु महाराज के चरण कमल हैं| सहस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है| सहस्त्रार में स्वतः ही ब्रह्मरंध्र में ध्यान होने लगता है| सहस्त्रार में ब्रह्मरंध्र में ध्यान करते करते चेतना विस्तृत होकर कई बार शरीर से परे अनंत में चली जाती है| वहाँ होने वाली अनुभूतियों का वर्णन सार्वजनिक रूप से करने का निषेध है| इसकी चर्चा सिर्फ गुरु परंपरा में ही की जाती है| गहन आध्यात्मिक साधना भी गुरु परंपरा में ही होनी चाहिए|
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भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में बताई हुई विधि से ही शरणागत होकर ध्यान साधना का आरंभ करना चाहिए| यह निरापद है| सब कुछ उन्हीं को समर्पित कर दें| सारे फल और कर्ताभाव भी उन्हें ही समर्पित कर दें| फिर जो करना है, वे भगवान श्रीकृष्ण ही करेंगे| हमारी उपस्थिति बस इतनी है जितनी किसी यज्ञ में एक यजमान की होती है, उससे अधिक नहीं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ अक्टूबर २०१९

सब चिंता भगवान करेंगे, उनका काम ही चिंता करना है .....

सब चिंता भगवान करेंगे, उनका काम ही चिंता करना है .....
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जिन्होंने इस सृष्टि की रचना की है, उसकी चिंता वे अगम अगोचर अलख अनादि अनंत और अपार ही करेंगे, यह उन्हीं का काम है, हमारा नहीं| हम तो उन की रचना मात्र हैं जिसे वे जीवित रखें या मृत, दुःखी रखें या सुखी ... जैसी उनकी मर्जी| हमारे प्रेम के पात्र वे ही हैं, और उन अदृश्य से ही हमें प्रेम हो गया है| यह देह भी वे हैं, यह प्राण भी वे हैं और यह जीवात्मा भी वे ही हैं| उन्हीं का धर्म हमारा धर्म है| जैसे वे सब तरह के धर्म और अधर्म की रचना कर स्वयं उनसे ऊपर हैं, वैसे ही हम भी सब तरह के धर्म और अधर्म से ऊपर उनके साथ एक होकर साक्षात सच्चिदानंद हैं, यह नश्वर देह नहीं|
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देह का धर्म और आत्मा का धर्म अलग अलग होता है| यह देह जिससे हमारी चेतना जुड़ी हुई है, उसका धर्म अलग है| भूख प्यास, सर्दी गर्मी और ज़रा-मृत्यु आदि इस देह का धर्म है| आत्मा का धर्म परमात्मा के प्रति आकर्षण और परमात्मा के प्रति परम प्रेम की अभिव्यक्ति ही है, अन्य कुछ भी नहीं| जब जीवन में परमात्मा की कृपा होती है तब सारे गुण स्वतः खिंचे चले आते हैं| उनके लिए किसी पृथक प्रयास की आवश्यकता नहीं है| परमात्मा के प्रति प्रेम ही सबसे बड़ा गुण है जो सब गुणों की खान है|
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हम अपना ईश्वर प्रदत्त कार्य स्वविवेक के प्रकाश में करें| जहाँ विवेक कार्य नहीं करता वहाँ श्रुतियाँ प्रमाण हैं| भगवान एक गुरु के रूप में मार्गदर्शन करते हैं पर अंततः गुरु एक तत्व बन जाता है जिसे किसी नाम रूप में नहीं बाँध सकते| हमारी जाति, सम्प्रदाय और धर्म वही है जो परमात्मा का है| हमारा एकमात्र सम्बन्ध भी सिर्फ परमात्मा से है, जो सब प्रकार के बंधनों से परे है|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को सप्रेम नमन !
ॐ तत्सत् ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ अक्टूबर २०१९

समस्याएँ मन में हैं या परिस्थितियों में ? ...

समस्याएँ मन में हैं या परिस्थितियों में ? ...
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एकांत और मौन में ध्यानस्थ होकर हम अपनी सभी शाश्वत जिज्ञासाओं का उत्तर पा सकते हैं| बाहर कोई कमी दिखती है तो परमात्मा की पूर्णता पर ध्यान करें| आत्मा की पूर्णता पर ही बाहर की पूर्णता निर्भर है| परमात्मा को भूलने से बड़ी पीड़ा कोई दूसरी नहीं है| उनकी निरंतर स्मृति से बड़ा कोई आनंद दूसरा नहीं है| जो परिवर्तन हम बाहरी विश्व में चाहते हैं वह स्वयं से आरम्भ करें. आत्मनिंदा से हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ अक्टूबर २०१९

स्वयं को परमात्मा से जोड़ें, न कि इस नश्वर देह से .....

स्वयं को परमात्मा से जोड़ें, न कि इस नश्वर देह से .....
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दुखी व्यक्ति को सब ठगने का प्रयास करते हैं| धर्म के नाम पर बहुत अधिक ठगी हो रही है| हमें हर प्रकार के बंधनों, मत-मतान्तरों, यहाँ तक की धर्म और अधर्म से भी ऊपर उठना ही पड़ेगा| परमात्मा सब प्रकार के बंधनों से परे है| चूँकि हमारा लक्ष्य परमात्मा है तो हमें भी उसी की तरह स्वयं को मुक्त करना होगा, और साधना द्वारा अपने सच्चिदानंद स्वरुप में स्थित होना ही होगा|
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चिंता और भय ये दोनों ही मस्तिष्क के क्षय रोग हैं जो हमारी क्षमता का तो ह्रास करते ही हैं पर साथ साथ जीवित ही नर्क में भी डाल देते हैं| ये अकाल मृत्यु के कारण भी हैं| परमात्मा में श्रद्धा, विश्वास और निरंतर आतंरिक सत्संग ही हमें इस अकाल मृत्यु सम यन्त्रणा से मुक्त कर सकते हैं|
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अपनी पीड़ा सिर्फ भगवान को अकेले में कहें, दुनियाँ के आगे रोने से कोई लाभ नहीं है| हम दूसरों की दृष्टी में क्या हैं इसका महत्व नहीं है| महत्व तो इसी बात का है कि हम परमात्मा की दृष्टी में क्या हैं| समष्टि के कल्याण की ही प्रार्थना करें| समष्टि के कल्याण में ही स्वयं का कल्याण है| बीता हुआ समय स्वप्न है जिसे सोचकर ग्लानि ग्रस्त नहीं होना चाहिए|
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भगवान हम सब की रक्षा करें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ अक्तुबर २०१९

भगवान श्रीकृष्ण हमारे परम सखा हैं .....

भगवान श्रीकृष्ण हमारे परम सखा हैं .....
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भगवान की भक्ति में "सखा" शब्द बहुत ही विलक्षण है| यह "सखा" शब्द भगवान श्रीकृष्ण को अति प्रिय है, इसलिए भगवान श्रीकृष्ण हमारे परम सखा हैं| गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को "मे सखा चेती" कहते हैं यानि तूँ मेरा "सखा" है ....
"स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः| भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्||४:३||"
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हिन्दी में सखा मित्र को कहते हैं पर तात्विक दृष्टि से इसका अर्थ भिन्न है| "ख" आकाश तत्व को कहते हैं| जहाँ आकाश तत्व में सारी सृष्टि समाहित हो जाती है, वहीं आकाश तत्व शून्य भी है| आकाश के साथ जो है वही सखा है, यानि जिसके साथ होने से यह सारा संसार शून्य हो जाए, और जिस के नहीं होने से भी सारा संसार शून्य हो जाए ..... यह सखा का लक्षण है| श्रुति भगवती बार बार कहती है .....

"द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते|
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति||" (मुंडकोपनिषद)
अर्थात एक साथ रहने वाले तथा परस्पर सख्यभाव रखनेवाले दो पक्षी जीवात्मा एवं परमात्मा एक ही वृक्ष शरीर का आश्रय लेकर रहते हैं| उन दोनों में से एक जीवात्मा तो उस वृक्ष के फल .... कर्मफलों का स्वाद ले लेकर खाता है, किंतु दूसरा .... ईश्वर उनका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है||
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चैतन्य महाप्रभु कहते हैं .....
"युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् |
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द-विरहेण मे || (शिक्षाष्टकम्:७)
अर्थात् श्रीकृष्ण के विरह में मेरे लिए एक एक क्षण एक युग के समान है, आँखों में जैसे वर्षा ऋतु आई हुई है और यह विश्व एक शून्य के समान लग रहा है|
"आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा मदर्शनान्मर्महतां करोतु वा|
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः||" (शिक्षाष्टकम्:८)
अर्थात् उनके चरणों में प्रीति रखने वाले मुझ सेवक का वे आलिंगन करें या न करें, मुझे अपने दर्शन दें या न दें, मुझे अपना मानें या न मानें, वह चंचल, नटखट श्रीकृष्ण ही मेरे प्राणों के स्वामी हैं, कोई दूसरा नहीं||
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यह परम सखाभाव है| भगवान वैसे तो सर्वस्व हैं, पर सबसे अधिक प्रिय भाव "सखा" का ही है| वे हम सब के सखा ही हैं, उनके बिना तो जीवन असंभव है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ अक्टूबर २०१९

इस्लाम के नाम पर जिहाद की धमकी .....

इस्लाम के नाम पर जिहाद की धमकी ..... पाकिस्तान की नई रणनीति है जिसमें उसे तुर्की और मलेशिया का समर्थन प्राप्त है| अन्य किसी भी इस्लामी देश ने पाकिस्तान का साथ नहीं दिया है| पहले पाकिस्तान आणविक युद्ध की धमकी देकर भारत को डराता था जिस से काँग्रेस की सरकारें दब जाती थीं| पर वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को दबाना असंभव है| मैंने तुर्की की भूतकाल की सल्तनत-ए-उस्मानिया और खिलाफ़त का इतिहास पढ़ा है और तुर्की व मलेशिया दोनों देशों का भ्रमण भी किया है व उन्हें अच्छी तरह समझता हूँ|
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तुर्की के अपने पड़ोसी देशों .... ग्रीस व आर्मेनिया से तो बहुत अधिक कटु संबंध हैं ही, अज़रबेजान, बुल्गारिया, जॉर्जिया, ईरान, इराक, सीरिया व साइप्रस से भी संबंधों में कोई मधुरता नहीं है| भारत के प्रधाननमंत्री का आर्मेनिया के राष्ट्रपति से अमेरिका में मिलना तुर्की की दुखती नब्ज पर हाथ रखना और उसे अपनी औकात दिखाना था| तुर्की का महत्व उसकी महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति से ही है| वहाँ का बासफ़ोरस जलडमरूमध्य और दर्रादानिएल का समुद्री क्षेत्र बड़ा महत्वपूर्ण है| तुर्की में न तो खिलाफत कभी बापस आ सकती है और न वह मुस्लिम विश्व का प्रमुख अब बन सकता है| भारत का वह कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता|
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मलेशिया भी भारत का कुछ नहीं बिगाड़ सकता| उसे अपने व्यापार के लिए भारत की आवश्यकता बहुत अधिक है| मलेशिया में कट्टरपंथी इस्लामी सरकार है| वहाँ चीनी और भारतीय मूल के लोग बहुत हैं| चीन के साथ उसके सम्बन्धों में बहुत अधिक कटुता है|
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पाकिस्तान सोचता है कि इस्लामी देशों में सिर्फ वही अणुबम रखता है अतः इस्लामी देश उसे अपना नेता बना लेंगे, पर कोई भी देश उसे घास नहीं डाल रहा है| भारत की वर्तमान पाकिस्तान संबंधी नीति बहुत अच्छी है| पाकिस्तान को भारत ने एक भिखारी देश बना दिया है| अतः भारत को पाकिस्तान से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है|
कृपा शंकर
२ अक्टूबर २०१९

महामाया से पार हम अपनी शक्ति से नहीं जा सकते .....

महामाया से पार हम अपनी शक्ति से नहीं जा सकते, यह बड़ी दुरूह है| इस से परे भगवान की भक्ति ही ले जा सकती है| एक तो इस के अज्ञान रूपी आवरण को भेदना प्रायः असंभव ही है, दूसरा इसका मोहरूपी विक्षेप बड़ा भयंकर है जो अपनी ओर आकर्षित कर बड़े बड़े ज्ञानियों को भी पतित कर देता है| स्वयं दुर्गासप्तशती कहती है ...
"ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा| बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति||"

भक्त और भगवान के बीच में यह महामाया ही है जिसके आवरण ने भेद उत्पन्न कर रखा है, यह आवरण जब तक नहीं हटेगा तब तक परमात्मा का बोध नहीं हो सकता| अन्य कोई कारण नहीं है जिसने हमें परमात्मा से दूर कर रखा है| इसका समाधान परमात्मा की कृपा और अनुग्रह प्राप्त कर स्वयं को ही करना पड़ता है| दूसरा कोई कुछ नहीं कर सकता| श्रीमदभगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इसका समाधान बताया है ....
"दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया| मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते||७:१४||"


भगवान से हमें कुछ भी नहीं चाहिए, क्योंकि कामनाओं व लोभ का कोई अंत नहीं है| कोई भी प्राप्त वस्तु कभी संतुष्ट और तृप्त नहीं कर सकती| जो कुछ भी चाहिए वह तो भगवान दे चुके हैं| जो दें उस से भी संतुष्ट हैं और जो नहीं दें उस से भी संतुष्ट हैं| भगवान से हम प्रेम करते हैं, क्योंकि भगवान ने ऐसा हमारा स्वभाव बनाया है| वे स्वयं ही स्वयं को प्रेम कर रहे हैं, हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| पृथकता का बोध एक भ्रम है| वे अपने इस मायावी आवरण और विक्षेप से मुक्त करें, और कुछ भी नहीं चाहिए|
 
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१ अक्तूबर २०१९

श्रद्धा क्या है और श्रद्धावान कौन है ? .....

श्रद्धा क्या है और श्रद्धावान कौन है ?
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जैसी हमारी श्रद्धा होती है वैसे ही हम बन जाते हैं| हमारा निर्माण संस्कारों द्वारा होता है| संस्कार चिंतन से बनते हैं| जैसा हमारा चिंतन होता है वैसे ही हम बन जाते हैं, और वैसा ही हमारा स्वरूप हो जाता है| "श्रद" का अर्थ होता है हृदय, और "धा" का अर्थ है जो धारण किया है| जिस भाव को हमने हृदय में धारण किया है वही हमारी श्रद्धा है|
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं .....
"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत| श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः||१७:३||"
अर्थात् हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव संस्कार) के अनुरूप होती है| यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है|
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जिस परमात्मा को हमने वरण कर लिया है उसके अतिरिक्त हृदय में अन्य कोई भी भाव न हो, स्वयं के पृथक अस्तित्व का भी, तभी हम श्रद्धावान हैं| बार बार निरंतर इसका अभ्यास करना पड़ता है| जो हमारे हृदय में भाव हैं वह ही हमारी श्रद्धा है, और जो हमारी श्रद्धा है, वह ही हम हैं| आप सब निजात्माओं को नमन !
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हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२९ सितम्बर २०१९

सभी को शारदीय नवरात्रि की हार्दिक शुभ कामनाएँ ....

सभी को शारदीय नवरात्रि की हार्दिक शुभ कामनाएँ .....
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जगन्माता माँ दुर्गा हम सब को बल, बुद्धि, सुख, ऐश्वर्य, संपन्नता और आत्मज्ञान प्रदान करे, हमें जगन्माता का पूर्ण प्रेम मिले, अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति हमारे में व्यक्त हो, हमें आत्मज्ञान प्राप्त हो|
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नवरात्रों के बारे में विशेष ज्ञान तो मार्कंडेय-पुराण व देवी-भागवत जैसे ग्रंथों में मिलेगा, पर इनका थोड़ा-बहुत ज्ञान तो भारतीय संस्कृति में सभी को है| भगवान माता भी है और पिता भी| मातृरूप में मुख्यतः दुर्गा देवी की आराधना की जाती है, जिन का प्राकट्य तीन रूपों .... महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती के रूपों में है| नवरात्रों में हम माता के इन तीनों रूपों की आराधना उन की प्रीति के लिए करते हैं|
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महाकाली की आराधना से हमारे अंतर की विकृतियों और दुष्ट वृत्तियों का नाश होता है| माँ दुर्गा का एक नाम है महिषासुर-मर्दिनी है| महिष का अर्थ होता है ... भैंसा, जो तमोगुण का प्रतीक है| आलस्य, अज्ञान, जड़ता और अविवेक ये तमोगुण के प्रतीक हैं| महिषासुर वध हमारे भीतर के तमोगुण के विनाश का प्रतीक है|
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ध्यानस्थ होने के लिए अंतःकरण का शुद्ध होना आवश्यक होता है जो महालक्ष्मी की कृपा से होता है| सच्चा ऐश्वर्य है आतंरिक समृद्धि| हमारे में सद्गुण होंगे तभी हम भौतिक समृद्धि को सुरक्षित रख सकते हैं| हमारे में सभी सद्गुण आयें इसके लिए महालक्ष्मी की साधना की जाती है|
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आत्मा का ज्ञान ही ज्ञान है| इस आत्मज्ञान को महासरस्वती प्रदान करती हैं|
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महाविद्याओं के साधक नवरात्रों में महाविद्या की साधना करते हैं, और भगवान श्रीराम व हनुमान जी के उपासक इनमें भगवान श्रीराम व हनुमान जी की उपासना करते हैं|
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अपने स्वभाव के अनुकूल जैसी भी जो भी साधना आप करना चाहें वह करें, पर करें अवश्य |
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ सितंबर २०१९

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ......

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ......
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मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है, न कि स्वर्ग की प्राप्ति. यदि कोई अपने पुण्यों से स्वर्ग जाता भी है तो पुण्य समाप्त होने पर बापस वहाँ से निकाल दिया जाता है| शास्त्रों के अनुसार स्वर्ग भी और नर्क भी अनेक श्रेणियों के अनेक हैं| कोई बापस लौट कर तो बताता नहीं है कि वहाँ की वास्तविकता क्या है|
दो ही वृतांत मेरे पढ़ने में आए हैं कि किसी ने बापस आकर अपने अनुभव बताये हैं|
(१) "योगी कथामृत" (Autobiography of a Yogi) पुस्तक में स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी अपनी भौतिक मृत्यु के बाद अपने शिष्य स्वामी योगानन्द गिरी (परमहंस योगनन्द) के समक्ष सशरीर प्रकट होकर उन्हें सूक्ष्म जगत और नर्क/स्वर्ग आदि के बारे में विस्तार से बताते हैं|
(२) "चित्तशक्तिविलास" नामक पुस्तक में स्वामी मुक्तानन्द जी स्वयं जीवित रहते हुए भी अपने तपोबल से सशरीर नर्क और स्वर्ग में घूम कर आने और इन्द्र देवता से भी मिल कर आने का अपना अनुभव लिखते हैं|

और भी कई मनीषियों ने इस विषय पर लिखा है पर उपरोक्त दो पुस्तकें तो बहुत अधिक लोकप्रिय हुई हैं|
महाभारत में मुद्गल ऋषि कि कथा है जिन्हें लेने के लिए स्वर्ग से विमान आता है, पर वे स्पष्ट रूप से किसी भी ऐसे स्वर्ग में जाने से मना कर देते हैं जहाँ से पुण्यक्षय होने पर बापस लौट कर आना पड़ता है| महाभारत में ऐसे और भी अनेक वृतांत हैं|
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मृत्यु के बाद जाने के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान कौन सा है जिसका प्रयास हमें करना चाहिए :----
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :--
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||१५:६||"
अर्थात उस(परमपद) को न सूर्य, न चन्द्र और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है और जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर (संसारमें) नहीं आते, वही मेरा परमधाम है|
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जहाँ हमारे इष्ट देव है वहीं हमें जाना है, उस से कम किसी भी अन्य स्थान पर नहीं| हमें तो सुख-शांति अपने इष्टदेव से जुड़कर ही मिलेगी जिनके हम अंश हैं| कोई स्वर्ग-नर्क हमें नहीं चाहिए| स्वर्ग तो एक घटिया स्थान है जहाँ जाकर हम अपने इष्ट देव को भूल जाते हैं| जहाँ हमारे भगवान वासुदेव हैं हम तो वहीं उनके साथ ही रहेंगे, अन्य कहीं भी नहीं, क्योंकि उनके बिना हम नहीं रह सकते|
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम||१८:७८||"
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ सितंबर २०१९

आपकी भक्ति करने में हम असमर्थ हैं, आप ही हमारा कल्याण करें .....

आपकी भक्ति करने में हम असमर्थ हैं, आप ही हमारा कल्याण करें .....
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वासनायें हमें अंदर ही अंदर इतना अधिक शक्तिहीन कर देती हैं कि हम परमात्मा को उपलब्ध होने की शक्ति खो देते हैं| शास्त्र कहते हैं कि अभ्यास, वैराग्य और सत्संग द्वारा हम वासनाओं से ऊपर उठें| यह सर्वाधिक कठिन कार्य है| कुछ समझ में ही नहीं आता कि वासनायें कहाँ से आती हैं, पर ये हमारे अंतर में बहुत अधिक विध्वंस कर जाती हैं, वैसे ही जैसे भयंकर तूफान आते हैं और सर्वनाश कर जाते हैं| महात्मा लोग कहते हैं कि भगवान में मन लगाओ| पर कैसे मन लगायें? मन लगाते ही यह वासनारूपी शैतान आकर सर्वनाश कर जाता है|
{इब्राहिमी मतों (ईसाईयत, इस्लाम और यहूदी मत) में जिसे शैतान कहा गया है, वह कोई व्यक्ति नहीं, ये वासनायें ही हैं|} शैतान चाहे जितना भी शक्तिशाली हो, अंततः उसकी पराजय सुनिश्चित है|
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भगवान श्रीकृष्ण के ये वचन बड़ा आश्वासन देते हैं .....
(१)
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अर्थात अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||
(२)
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
अर्थात मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे||
(३)
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्| साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः||९:३०||"
अर्थात यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है||
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हे प्रभु, हमारे में तो इतनी शक्ति नहीं है कि आपकी इस दुस्तर माया को पार कर सकें| आप ही अनुग्रह कर के हमारी रक्षा करें और अपने श्रीचरणों में आश्रय दें| हमारे में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि अंत समय में आपका स्मरण कर सकें| यह देह तो भस्म हो जाएगी आप ही अनुग्रह कर के हमारा स्मरण कर लेना| आपकी कृपा हमें पार लगा देगी| हम आपकी कृपा और अनुग्रह पर ही निर्भर हैं|

"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्‌| ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर||"
(ईशावास्योपनिषद मंत्र १७)
मेरा प्राण सर्वात्मक वायु रूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो क्योकि वह शरीरों में आने जाने वाला जीव अमर है; और यह शरीर केवल भस्म पर्यन्त है इसलिये अन्त समय में हे मन ! ॐ का स्मरण कर, अपने द्वारा किए हुये कर्मों का स्मरण कर, ॐ का स्मरण कर, अपने द्वारा किये हुए कर्मों का स्मरण कर||
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ॐ तत्सत | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ सितंबर २०१९

Thursday, 17 October 2019

हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ?......

हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ?......
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अपने किसी पूर्व जन्म में मैं वाराणसी के योगिराज श्री श्री श्याचरण लाहिड़ी महाशय (३० सितम्बर १८२८ -- २६ सितंबर १८९५) से जुड़ा हुआ था, जिनकी आज १२४ वीं पुण्यतिथि है| मुझे लगता है कि उस के उपरांत यह मेरा तीसरा जन्म है| इस जन्म में भी मुझे उनका आशीर्वाद प्राप्त है| यह लेख मैंने दो वर्ष पूर्व लिखा था जिसे संशोधित कर के उन की पुण्य-स्मृति में पुनर्प्रेषित कर रहा हूँ| उनकी सत्ता किसी सूक्ष्म जगत में है, जहाँ से आध्यात्मिक मार्गदर्शन और रक्षा आज भी उनके आशीर्वाद से हो रही है|
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हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं| कभी प्रकाश हावी हो जाता है और कभी अन्धकार, पर विजय सदा प्रकाश की ही होती है यद्यपि अन्धकार के बिना प्रकाश का कोई महत्त्व नहीं है| सृष्टि द्वंद्वात्मक यानि दो विपरीत गुणों से बनी है| जीवन और मृत्यु भी दो विपरीत गुण हैं, पर मृत्यु एक मिथ्या भ्रम मात्र है, और जीवन है वास्तविकता| जीवात्मा कभी मरती नहीं है, सिर्फ अपना चोला बदलती है, अतः विजय सदा जीवन की ही है, मृत्यु की नहीं|
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भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ....
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ||०२:२२||"
अर्थात् जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है? वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है ||
(गीता में आस्था रखने वालों को समाधियों, मक़बरों और कब्रों की पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि दिवंगत आत्मा तो तुरंत दूसरा शरीर धारण कर लेती है| महापुरुष तो परमात्मा के साथ सर्वव्यापी हैं)
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जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ...
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः| न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः"||०२:२३||
अर्थात इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती||
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भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ....
"न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे||०२:२०||"
अर्थात यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है| यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है| शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता||
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शरीर के मरने या मारे जाने पर जीवात्मा मरती नहीं है| बाइबिल के अनुसार ...
{1 Corinthians 15:54-55 (N.I.V.)}
54 "When the perishable has been clothed with the imperishable, and the mortal with immortality, then the saying that is written will come true: “Death has been swallowed up in victory.”[a]
55 “Where, O death, is your victory? Where, O death, is your sting?”
1 Corinthians 15:54 Isaiah 25:8
1 Corinthians 15:55 Hosea 13:14
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श्री श्री लाहिड़ी महाशय अपनी देहत्याग के दूसरे दिन प्रातः दस बजे दूरस्थ अपने तीन शिष्यों के समक्ष एक साथ एक ही समय में अपनी रूपांतरित देह में यह बताने को साकार प्रकट हुए कि उन्होंने अपनी उस भौतिक देह को त्याग दिया है, और उन्हें उनके दर्शनार्थ काशी आने की आवश्यकता नहीं है| उनके साथ उन्होंने और भी बातें की| समय समय पर उन्होंने अपने अनेक शिष्यों के समक्ष प्रकट होकर उन्हें साकार दर्शन दिए हैं| विस्तृत वर्णन उनकी जीवनियों में उपलब्ध है|
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सचेतन देहत्याग के पूर्व उन्होंने कई घंटों तक गीता के श्लोकों की व्याख्या की और अचानक कहा कि "मैं अब घर जा रहा हूँ"| यह कह कर वे अपने आसन से उठ खड़े हुए, तीन बार परिक्रमा की और उत्तराभिमुख हो कर पद्मासन में बैठ गए और ध्यानस्थ होकर अपनी नश्वर देह को सचेतन रूप से त्याग दिया| पावन गंगा के तट पर मणिकर्णिका घाट पर गृहस्थोचित विधि से उनका दाह संस्कार किया गया| वे मनुष्य देह में साक्षात शिव थे|
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ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन करते हुए मैं इस लेख का समापन करता हूँ|
ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२६ सितम्बर २०१९

गीता भारत का प्राण है ....

गीता भारत का प्राण है| गीता ने भारत को जीवित रखा है| गीता का एक एक शब्द जीवंत है| नीचे के तीन श्लोक गीता के कर्मयोग का सार हैं| यह संसार भी ऐक युद्धभूमि यानि कर्मभूमि है| यहाँ युद्ध करने का भावार्थ अपने कर्म निष्ठापूर्वक करने से है|
भगवान कहते हैं .....
"मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा| निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः||३:३०||"
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः| श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः||३ ३१||"
"ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ | सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ||३:३२||"

भावार्थ : अत: हे अर्जुन! अपने सभी प्रकार के कर्तव्य-कर्मों को मुझमें समर्पित करके पूर्ण आत्म-ज्ञान से युक्त होकर, आशा, ममता, और सन्ताप का पूर्ण रूप से त्याग करके युद्ध कर ||
जो मनुष्य मेरे इन आदेशों का ईर्ष्या-रहित होकर, श्रद्धा-पूर्वक अपना कर्तव्य समझ कर नियमित रूप से पालन करते हैं, वे सभी कर्मफ़लों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं ||
परन्तु जो मनुष्य ईर्ष्यावश इन आदेशों का नियमित रूप से पालन नही करते हैं, उन्हे सभी प्रकार के ज्ञान में पूर्ण रूप से भ्रमित और सब ओर से नष्ट-भ्रष्ट हुआ ही समझना चाहिये||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

आत्म-तत्व में स्थित रहना ही मेरी दृष्टि में वास्तविक साधना है .....

आत्म-तत्व में स्थित रहना ही मेरी दृष्टि में वास्तविक साधना है .....
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ध्यान में चेतना के विस्तार की अनुभूतियाँ वास्तव में आत्म-तत्व की ही आरंभिक अनुभूतियाँ हैं| आत्मतत्व ही ब्रह्म-तत्व है| तब यह लगने लगता है कि हम यह देह नहीं, बल्कि परमात्मा की अनंतता हैं| उस अनंतता में स्थित रहना ही मेरी सीमित व अल्प समझ से वास्तविक साधना है| आत्म-तत्व को सदा अनुभूत करते रहें| इस से आगे की अनुभूतियाँ गुरुकृपा से सहस्त्रार में ब्रह्मरंध्र से भी परे यानि देह की चेतना से भी परे जाकर होती हैं| वे अनुभूतियाँ पारब्रह्म परमशिव परमात्मा की होती हैं| वे परमशिव ही भगवान वासुदेव हैं, जिनके बारे में गीता में कहा है....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||०७:१९||"
अर्थात बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि यह सब वासुदेव है ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है||
आचार्य शंकर ने इस श्लोक की व्याख्या यों की है ....
"बहूनां जन्मनां ज्ञानार्थसंस्काराश्रयाणाम् अन्ते समाप्तौ ज्ञानवान् प्राप्तपरिपाकज्ञानः मां वासुदेवं प्रत्यगात्मानं प्रत्यक्षतः प्रपद्यते| कथम् वासुदेवः सर्वम् इति। यः एवं सर्वात्मानं मां नारायणं प्रतिपद्यते सः महात्मा न तत्समः अन्यः अस्ति अधिको वा| अतः सुदुर्लभः मनुष्याणां सहस्रेषु इति हि उक्तम् आत्मैव सर्वो वासुदेव इत्येवमप्रतिपत्तौ कारणमुच्यते||
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परमात्मा से एक क्षण के लिए भी पृथक होना महाकष्टमय मृत्यु है| वास्तविक महत्व इस बात का है कि हम क्या हैं| सच्चिदान्द परमात्मा सदैव हैं, परन्तु जीवभाव रूपी मायावी आवरण भी उसके साथ-साथ लिपटा है| उस मायावी आवरण के हटते ही सच्चिदानन्द परमात्मा भगवान परमशिव व्यक्त हो जाते हैं| सच्चिदानन्द से भिन्न जो कुछ भी है उसे दूर करना ही सच्चिदानंद की अभिव्यक्ति और वास्तविक उपासना है जिसमें सब साधनायें आ जाती हैं| अपने वास्तविक स्वरुप में स्थित होना ही साक्षात्कार है| उपासना और भक्ति (परम प्रेम) ही मार्ग हैं| जब परमात्मा के प्रति प्रेम हमारा स्वभाव हो जाए तब पता चलता है कि हम सही मार्ग पर हैं| परमात्मा के प्रति प्रेम यानि भक्ति ही हमारा वास्तविक स्वभाव है|
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कर्ता भाव को सदा के लिए समाप्त करना है| वास्तविक कर्ता तो परमात्मा ही हैं| कर्ताभाव सबसे बड़ी बाधा है| अतः सब कुछ यहाँ तक कि निज अस्तित्व भी परमात्मा को समर्पित हो| यह समर्पण ही साध्य है, यही साधना है और यही आत्म-तत्व में स्थिति है| इसके लिए वैराग्य और अभ्यास आवश्यक है| जो भी बाधा आती है उसे दूर करना है| अमानित्व, अदम्भित्व और परम प्रेम ये एक साधक के लक्षण हैं| हम जो कुछ भी है, जो भी अच्छाई हमारे में है, वह हमारी नहीं अपितु परमात्मा की ही महिमा है| आप सब महान आत्माओं को मेरा दंडवत प्रणाम !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ सितंबर २०१९

अब और क्या बचा है? मौज-मस्ती ही करनी है .....

अब और क्या बचा है? मौज-मस्ती ही करनी है .....
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पिछले सात-आठ वर्षों से जैसी भी मुझे भगवान से प्रेरणा मिलती रहती, वैसा ही नित्य कुछ न कुछ लिखता ही रहता था| खुद का दिमाग तो कभी लगाया ही नहीं, सिर्फ हृदय की ही बात सुनता रहा| जो बात हृदय कह देता, उसे वैसी की वैसी ही लिख देता| अधिकांशतः तो प्रेरणा मुझे हृदय में बिराजमान भगवान वासुदेव से ही मिलती| दिमाग तो अब खालीस्थान है, जहाँ कुछ भी नहीं बचा है, पूरा बंजर हो गया है| हृदय भी एक बार भगवान को दिया था जो उन्होनें कभी बापस लौटाया ही नहीं, अपने पास ही रख लिया, अतः वह भी नहीं है| अपना कहने को कुछ भी नहीं है, सब कुछ श्रीहरिः ने छीन लिया है| सब कुछ था भी तो उन्हीं का, मैं तो उधार में मिली हुई चीज का जबर्दस्ती मालिक बना बैठा हुआ था| बहुत पहिले एक बार उनके समक्ष सिर झुकाया था जो फिर बापस कभी उठा ही नहीं, अभी तक झुका हुआ है|
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पता नहीं क्यों, दुनियाँ की मौज-मस्ती करना ही भूल गए| अब हृदय कहता कि खूब मौज-मस्ती की जाए| लिखने की प्रेरणा मिली तो लिखेंगे, बाकी समय अपनी मौज-मस्ती करेंगे| और कुछ नहीं करना है|
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इस संसार में मैं सबके साथ एक हूँ क्योंकि जो परमात्मा सब के हृदय में हैं, वे ही मेरे हृदय में हैं| अतः कहीं भी कोई फर्क नहीं है| अब हृदय की ही बात सुनेंगे, मन की नहीं| जो हृदय कहेगा वही करेंगे| किसी से कुछ लेना-देना नहीं है| एकमात्र संबंध ही अब सिर्फ भगवान से है| आप सब में व्यक्त उन भगवान वासुदेव को नमन ! वे ही मेरे परमशिव हैं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ सितंबर २०१९

अद्भुत, अभूतपूर्व, अकल्पनीय और ऐतिहासिक घटना:----

अद्भुत, अभूतपूर्व, अकल्पनीय और ऐतिहासिक घटना:----
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कल संयुक्त राज्य अमेरिका के टेक्सास प्रांत के ह्यूस्टन नगर में एक नया स्वर्णिम इतिहास रचा गया| पचास हजार से अधिक प्रवासी भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों की उपस्थिती में सं.रा.अमेरिका के राष्ट्रपति श्री डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा भारत के प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी का जो स्वागत और सम्मान किया गया वह अमेरिका के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी| ऐसा सम्मान आज तक अमेरिका के इतिहास में किसी भी राजनेता का नहीं किया गया| मंच पर वहाँ के प्रशासन का सारा नेतृत्व था|
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>>> यह सम्मान पूरे भारत का सम्मान था| <<<
घटनास्थल अपनी क्षमता से अधिक पूरा खचाखच भरा हुआ था| लाखों प्रवासी अमेरिकी भारतीय व अन्य अमेरिकी नागरिक और करोड़ों लोग पूरे विश्व में यह कार्यक्रम टीवी पर प्रत्यक्ष देख रहे थे|
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भारत को अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति और गरीबी दूर करने के लिए नवीनतम टेक्नोलोजी की आवश्यकता है, जिसे देने की क्षमता सिर्फ अमेरिका के पास है| साथ साथ भारत में जिहादी आतंकवाद को निपटाने के लिए भी अमेरिका का सक्रिय सहयोग आवश्यक है| अतः यह कार्यक्रम महान ऐतिहासिक था| दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व को मेरी ओर से अभिनंदन और नमन!
कृपा शंकर
२३ सितंबर २०१९

भगवान कहाँ हैं और कहाँ नहीं हैं ? ......

भगवान कहाँ हैं और कहाँ नहीं हैं ? ......
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यह एक प्रश्न है जो मैं आप सब से पूछ रहा हूँ कि भगवान कहाँ हैं, और कहाँ नहीं हैं?
लोग अपनी सीमित चेतना व सीमित अल्प ज्ञान से पूछते हैं कि भगवान कहाँ है? इसका कोई उत्तर है तो वह स्वयं के लिए ही हो सकता है| दूसरों को कोई संतुष्ट नहीं कर सकता| परमात्मा की स्पष्ट प्रत्यक्ष उपस्थिती कहाँ कितनी है यह हम अनुभूत ही कर सकते हैं|
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वर्षा ऋतु चल रही है| वर्षा के पश्चात पृथ्वी से एक बड़ी मोहक गंध निकलती है| वह गंध जहाँ जितनी अधिक मात्रा में है, वहाँ परमात्मा की उपस्थिति उतनी ही अधिक है| यह हम अनुभूत कर सकते हैं| किसी व्यक्ति को देखते ही मन श्रद्धा से भर उठता है, और हम स्वतः ही उसे नमन करते हैं| यह उस व्यक्ति का तप है जिसे हम नमन करते हैं| परमात्मा ही उसके तप में व्यक्त होते हैं| हम किसी भी प्राणी को देखते हैं तो उस व्यक्ति की जो प्राण चेतना है वह परमात्मा ही है| परमात्मा सभी प्राणियों के प्राणों में व्यक्त होते हैं| अग्नि का तेज और बर्फ की शीतलता भी परमात्मा ही है| हर पदार्थ के अणु जिस ऊर्जा से निर्मित हैं, वह ऊर्जा भी परमात्मा है| उस ऊर्जा के पीेछे का विचार भी परमात्मा है| सारा जीवन और उस से परे भी जो कुछ है वह परमात्मा ही है| और भी अधिक स्पष्ट अनुभूति ध्यान साधना में सर्वव्यापी ब्रह्म तत्व की आनंददायक अनुभूति से होती है, जिसके पश्चात कोई संदेह नहीं रहता| जो विकार हैं वे सांसारिक पुरुषों के अज्ञान और अधर्म आदि के कारण ही हैं|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ......
"पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ| जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु||७:९||"
अर्थात् पृथ्वी में पवित्र गन्ध हूँ और अग्नि में तेज हूँ सम्पूर्ण भूतों में जीवन हूँ और तपस्वियों में मैं तप हूँ||
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रामचरितमानस के आयोध्याकाण्ड में ऋषि वाल्मीकि भगवान श्रीराम से यही प्रश्न पूछते है कि जहाँ आप न हों वह स्थान तो बता दीजिये ताकि मैं चलकर वही स्थान आपको दिखा दूं? वे स्वयं सारे स्थान भी बता देते हैं जहाँ भगवान श्रीराम को रहना चाहिए| बड़ा ही सुंदर प्रसंग है जो सभी को एक बार तो पढ़ना और समझना ही चाहिए .....

"काम क्रोध मद मान न मोहा, लोभ न क्षोभ न राग न द्रोहा |
जिनके कपट दंभ नहीं माया, तिन्ह के ह्रदय बसहु रघुराया ||
जे हरषहिं पर सम्पति देखी, दुखित होहिं पर बिपति विशेषी |
जिनहिं राम तुम प्राण पियारे, तिनके मन शुभ सदन तुम्हारे ||
जाति पांति धनु धरम बड़ाई, प्रिय परिवार सदन सुखदाई |
सब तजि रहहुँ तुम्हहि उर लाई, तेहिं के ह्रदय रहहु रघुराई ||"
यहाँ इस बात का स्पष्ट उत्तर मिल जाता है कि भगवान कहाँ हैं और कहाँ नहीं हैं| आप सब में व्यक्त परमात्मा को नमन!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ सितंबर २०१९

चित्त की विभिन्न अवस्थाएँ और योगसाधना का निषेध ....

चित्त की विभिन्न अवस्थाएँ और योगसाधना का निषेध ....
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सनातन धर्म के अतिधन्य आचार्यों ने चित्त के स्वरूप को समझते हुए चित्त की पाँच अवस्थाएँ बताई हैं..... (१) क्षिप्त, (२) मूढ़, (३) विक्षिप्त, (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध|
प्रथम तीन अवस्थाओं में योगसाधना का निषेध है| योगसाधना सिर्फ अंतिम दो अवस्था वालों के लिए ही है| कुछ सूक्ष्म प्राणायाम, धारणायें और ध्यान सिर्फ उन्हीं को बताए जाते हैं, और सिद्ध भी उन्हीं को होते हैं जिनका आचार-विचार शुद्ध हो व जो यम-नियमों का पालन करने में समर्थ हों| देवत्व उन्हीं में व्यक्त हो सकता है|
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जो क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्त चित्त वाले हैं, उनके लिए योग मार्ग का निषेध है| ऐसे चित्त वालों को साधना के रहस्य नहीं बताए जाते| वे दुराचारी यदि साधना करेंगे भी तो उन पर आसुरी जगत अपना अधिकार कर लेगा और वे घोर असुर बन जाएँगे| यह बात स्वामी विवेकानंद ने अपने प्रवचनों में बड़े स्पष्ट रूप से कही है| मैं इस विषय की गहराई में नहीं जा रहा हूँ क्योकि यह बड़ा स्पष्ट है| क्षिप्त अवस्था में मनुष्य सदा तनावग्रस्त रहता है| मूढ़ावस्था में वह विवेकहीन हो जाता है| उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहता| विक्षिप्त अवस्था में उसका चित्त स्थिर नहीं हो सकता, वह डांवाडोल रहता है| ऐसे लोग कभी एकाग्र नहीं हो सकते अतः उन के लिए योगसाधना का निषेध है| वे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि का अभ्यास करेंगे भी तो उनमें आसुरी भाव ही प्रकट होगा और वे आसुरी शक्तियों के शिकार हो जाएँगे| ऐसे व्यक्ति मनुष्यता की सिर्फ हानि ही कर सकते हैं, कोई लाभ नहीं|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः| हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः||१२:१५||"
अर्थात जिससे कोई लोक (अर्थात् जीव, व्यक्ति) उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी व्यक्ति से उद्वेग अनुभव नहीं करता तथा जो हर्ष, अमर्ष (असहिष्णुता), भय और उद्वेगों से मुक्त है, वह भक्त मुझे प्रिय है||

जिस से संसार उद्वेग को प्राप्त नहीं होता अर्थात् संतप्त -- क्षुब्ध नहीं होता और जो स्वयं भी संसार से उद्वेगयुक्त नहीं होता; जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेग से रहित है (प्रिय वस्तु के लाभ से अन्तःकरण में जो उत्साह होता है, रोमाञ्च और अश्रुपात आदि जिसके चिह्न हैं उसका नाम हर्ष है| असहिष्णुता को अमर्ष कहते हैं| त्रास का नाम भय है, और उद्विग्नता ही उद्वेग है|) वह मुझे प्रिय है|
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भगवान वासुदेव सब का कल्याण करें| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ सितंबर २०१९

हमारा सब से बड़ा धन "श्रद्धा" और "विश्वास" का धन है ....

हमारा सब से बड़ा धन "श्रद्धा" और "विश्वास" का धन है ....
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जीत हमारी निश्चित है| हमारे साथ परमात्मा हैं| उन्होने हमें स्वयं को दिया है| हम विफल हो ही नहीं सकते| असत्य और अंधकार की शक्तियों ने हमारे भीतर हीनभाव उत्पन्न किया है जो मिथ्या है| ये असत्य और अंधकार शाश्वत नहीं हैं| शाश्वत तो हमारे परमप्रिय परमात्मा हैं जो हमारे साथ एक हैं, अतः स्वयं में हमारी श्रद्धा और विश्वास भी शाश्वत है|
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जिन लोगों ने या जिन परिस्थितियों ने मेरे भीतर हीनता का बोध उत्पन्न किया है उन्हें मैं विष की तरह त्याग रहा हूँ| अपनी श्रद्धा और विश्वास से मैं अश्रद्धा और अविश्वास पर विजय प्राप्त कर रहा हूँ| परमात्मा से जुड़कर मैं स्वयं ज्योतिषांज्योति हूँ| स्वयं से अतिरिक्त किसी की भी या किसी से भी अब मुझे कोई अपेक्षा नहीं है| ब्रह्म-तत्व सचेतन रूप से मेरे चारों ओर व्याप्त है| उसके साथ मैं एक हूँ, वही मेरा साधन और साध्य है, साधक भी वही है| उससे मैं कभी विमुख न होऊं| वही मेरा धन और संपत्ति है| मेरे पास और कुछ भी नहीं है|
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गुरुकृपा से ब्रह्म-तत्व के रूप में परमात्मा मेरे समक्ष हैं| अभी और इसी समय हैं| वे ही मेरा जीवन हैं, वे ही मेरे प्राण हैं| अपने स्वयं के हृदय-कमल में विराजमान माँ भगवती को मैं प्रणाम करता हूँ| उन की प्रेमदृष्टि निरंतर मुझ अकिंचन पर बनी रहे| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ सितंबर २०१९

भोजन एक उपासना और यज्ञ है .....

भोजन एक उपासना और यज्ञ है जिसमें हर ग्रास परमात्मा को दी हुई आहुति है .....
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भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं .....
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||"
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हम जो कुछ भी खाते हैं वह भगवान को अर्पित कर के ही खाना चाहिए| हमारे द्वारा खाए हुए भोजन के हर ग्रास को भगवान स्वयं वैश्वानर के रूप में ग्रहण करते हैं, जिस से समस्त सृष्टि का भरण-पोषण होता है| भगवान को अर्पित नहीं कर के खाने वाला पापों का भक्षण करता है| भोजन में पूरी पवित्रता होनी चाहिए| शुद्ध आसन पर बैठकर भोजन करें| तुलसीदल उपलब्ध हो तो उसे भोजन पर अवश्य रखें|
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रसोई घर में भोजन बनाकर गृहिणी द्वारा तीन बार नमक रहित तीन छोटे छोटे ग्रासों से अग्नि को जिमाना चाहिए| यदि संभव हो तो मानसिक रूप से अग्नि को जिमाते समय ये मंत्र भी बोले ... (१) ॐ भूपतये स्वाहा, (२) ॐ भुवनपतये स्वाहा, (३) ॐ भूतानां पतये स्वाहा|
पहली तीन रोटियाँ गाय, कुत्ते और कौवे हेतु निकाल कर अलग से रख लें| आजकल कौवे तो दुर्लभ या लुप्त हो गए हैं|
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हम भोजन को एक यज्ञ समझें| यज्ञ में जैसे आहुतियाँ दी जाती हैं, वैसे ही मुख में डाले एक-एक अन्न के ग्रास को आहुति समझकर डालें| आहुति यज्ञ-कुण्ड में नहीं पड़ी रहतीं, बल्कि सूक्ष्म होकर सारी सृष्टि में फैल जाती हैं| भोजन से पूर्व गीता में दिए निम्न मंत्र का मानसिक पाठ करें ...
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||
अर्थात अर्पण करने का साधन श्रुवा ब्रह्म है और हवि शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
यदि हो सके तो मानसिक रूप से शांति पाठ भी करें .....
"ॐ सहनाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"
फिर भोजन-यज्ञ आरंभ करें| यदि संभव हो तो भोजन के प्रथम ग्रास के साथ ... "ॐ प्राणाय स्वाहा" मंत्र का मानसिक पाठ अवश्य करें| श्रद्धालु जन तो प्रथम पाँच ग्रासों के साथ क्रमशः निम्न मंत्रों का मानसिक पाठ करते हैं... ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा ||
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जो अन्नपूर्णा के साधक हैं वे तो भोजन से पूर्व भगवती अन्नपूर्णा से मानसिक रूप से इस अन्नपूर्णा मंत्र के साथ भिक्षा मांग कर खाते हैं ...
"ॐ अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे| ज्ञान वैराग्य सिध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति||"
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भोजन से पूर्व इस मन्त्र से आचमन करें :-- "ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा" | भोजन के पश्चात् इस मन्त्र से आचमन करें :--
"ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा" |
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और भी थोड़ा बहुत परिवर्तन स्थान स्थान पर है, पर मूलभूत बात यही है कि जो भी हम खाते हैं वह हम नहीं खाते हैं, बल्कि साक्षात् परमात्मा को ही अर्पित करते हैं| उपरोक्त विधि एक यज्ञ है जिसके लिए परिश्रम तो करना ही पड़ता है|
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भगवान को जो प्रिय है वही खाना चाहिए| भगवान को क्या प्रिय हो सकता है? इसका निर्णय अपने विवेक से करें| भगवान तो पत्र, पुष्प और फल भी खा लेते हैं .....
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति| तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः||९:२६||
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आप सब महान आत्माओं को मेरा प्रणाम ! आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब में मुझे परमात्मा के दर्शन होते हैं|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
१९ सितंबर २०१९

शिखा की आवश्यकता .....

शिखा की आवश्यकता .....
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आज से साठ वर्षों पूर्व तक भारत के सब हिन्दू और चीन के प्रायः सभी लोग चोटी रखते थे| भारत के प्राचीन काल में तो सभी पुरुष चोटी रखते थे| चीन के कई प्राचीन चित्र मैनें देखे हैं, एक भी आदमी बिना चोटी के नहीं दिखाई दिया| कोई गंजा हो तो बात दूसरी है|
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खोपड़ी के पीछे के अंदरूनी भाग को संस्कृत में मेरुशीर्ष और अंग्रेजी में Medulla Oblongata कहते हैं| यह देह का सबसे अधिक संवेदनशील भाग है| मेरुदंड की सब शिराएँ यहाँ मस्तिष्क से जुडती हैं| इस भाग की कोई शल्य क्रिया नहीं हो सकती| जीवात्मा का निवास भी यहीं होता है| देह में ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रवेश यहीं से होता है| यहीं पर आज्ञा चक्र है जहाँ पर प्रकट हुई कूटस्थ-ज्योति का प्रतिविम्ब भ्रू-मध्य में होता है| योगियों को नाद की ध्वनि भी यहीं सुनती है|
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देह का यह भाग ग्राहक यंत्र (Receiver) का काम करता है| शिखा सचमुच में ही Receiving Antenna का कार्य करती है| गहरे ध्यान के पश्चात् आरम्भ में योनीमुद्रा में कूटस्थ-ज्योति के दर्शन यहाँ पर होते हैं| वह ज्योति कुछ काल के उपरांत आज्ञा-चक्र और सहस्त्रार के मध्य में या सहस्त्रार के ऊपर नीले और स्वर्णिम आवरण के मध्य श्वेत पंचकोणीय नक्षत्र के रूप में दिखाई देती है| योगी इसी ज्योति व पञ्चकोणीय नक्षत्र का ध्यान कराते हैं| यह नक्षत्र पंचमुखी महादेव है|
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मेरुदंड व मस्तिष्क के अन्य चक्रों (मेरुदंड में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत और विशुद्धि, व मस्तिष्क में आज्ञा और सहस्त्रार, व सहस्त्रार के भीतर --- ज्येष्ठा, वामा और रौद्री ग्रंथियों व श्री बिंदु को ऊर्जा यहीं से वितरित होती है| शिखा धारण करने से यह भाग अधिक संवेदनशील हो जाता है| भारत में जो लोग शिखा रखते थे वे मेधावी होते थे| अतः शिखा धारण की परम्परा भारत के हिन्दुओं में है|
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संध्या विधि में संध्या से पूर्व गायत्री मन्त्र या शिखाबंधन के मन्त्र के साथ शिखा बंधन का विधान है| यह एक संकल्प और प्रार्थना है| किसी भी साधना से पूर्व, शिखाबंधन, मन्त्र के साथ होता है| यह एक हिन्दू परम्परा है| इसके पीछे यदि और भी कोई वैज्ञानिकता है तो उसका बोध गहन ध्यान में माँ भगवती की कृपा से ही हो सकता है| इससे अधिक का मुझे कोई ज्ञान नहीं है| आप सब को नमन !
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१९ सितंबर २०१५

"अंत मति सो गति" यानि "अंत भला तो सब भला" :--

"अंत मति सो गति" यानि "अंत भला तो सब भला" :--
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यह एक बहुत गंभीर लेख है जिसका सभी के जीवन से संबंध है, इसे हंसी-मज़ाक में न उड़ायें| भगवद्गीता के अध्याय ८ अक्षरब्रह्मयोग में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||८:१०||"
अर्थात मृत्युकाल में भक्ति और योगबल से युक्त होकर अचल मन से भ्रुकुटि के मध्य में प्राणों को स्थापित कर के अपने परमात्मस्वरूप का चिन्तन करता हुआ जो व्यक्ति अपनी देह का त्याग करता है वह उस चेतनात्मक परम पुरुषको प्राप्त होता है|
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इससे पूर्व वे कहते हैं .....
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||८:५||"
अर्थात जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है||
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भगवान फिर कहते हैं .....
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८:१३||"
अर्थात सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है||
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भगवान आगे कहते हैं .....
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८:१६||"
अर्थात .... हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यंत सब लोक पुनरावर्ती हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं||
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इतना बड़ा ज्ञान भगवान ने स्वयं अपने श्रीमुख से दिया है, जो इतना अधिक सुलभ और सहज है, फिर भी यदि हम उस पर ध्यान न दें तो हम से बड़ा अभागा और कौन है?
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इसके लिए जब भी पता चले और प्रेरणा मिले उसी समय से अभ्यास में जुट जाना चाहिए| यदि कोई यह सोचता है कि जीवन भर तो मौज-मस्ती करेंगे और अंत समय में भगवान का ध्यान कर लेंगे तो वे ऐसा कभी नहीं कर पायेंगे|
भगवान ने "भक्त्या युक्तः" शब्द का प्रयोग किया है, अर्थात भक्ति से युक्त होकर| भक्तिसूत्रों के अनुसार भक्ति का अर्थ होता है "परमप्रेम"| परमप्रेम सिर्फ परमात्मा से ही हो सकता है|
भगवान ने फिर "योगबल" शब्द का भी प्रयोग किया है| योगबल भी नियमित अभ्यास से ही सिद्ध होता है|
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इस से आगे का और यहाँ तक का ज्ञान भी भगवान की परमकृपा से ही हो सकता है|
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
अर्थात जो सबमें मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता|
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आप सब में तो मुझे सर्वव्यापी भगवान वासुदेव के ही दर्शन होते हैं| आप सब में भगवान वासुदेव को नमन!
ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०१९

कुछ छोटी-मोटी घटनाएँ विश्व की चिंतन धारा को बदल देती हैं ....

कुछ छोटी-मोटी घटनाएँ विश्व की चिंतन धारा को बदल देती हैं|
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(१) क्या सन १९०५ ई.में किसी ने कल्पना भी की थी कि जापान जैसा एक छोटा सा देश रूस जैसे विशाल देश की सेना को युद्ध में हराकर उससे पोर्ट आर्थर (वर्तमान दायरन, चीन में) व मंचूरिया (वर्त्तमान में चीन का भाग) छीन लेगा और रूस की शक्तिशाली नौसेना को त्शुसीमा जलडमरूमध्य (जापान व कोरिया के मध्य) में डूबा देगा? उस झटके से रूस अभी तक उभर नहीं पाया है|
बोल्शेविक क्रांति जो वोल्गा नदी में खड़े रूसी युद्धपोत औरोरा के नौसैनिकों के विद्रोह से आरम्भ हुई और लेनिन के नेतृत्व में पूरे रूस में फ़ैल गयी के पीछे भी मुख्यतः इसी निराशा का भाव था|
उपरोक्त घटना से प्रेरणा लेकर भारत में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ किया| भारत में अंग्रेजों ने इतने अधिक नर-संहार किये (पाँच-छः करोड़ से अधिक भारर्तीयों की ह्त्या अंग्रेजों ने की) और भारतीयों को आतंकित कर के यह धारणा जमा दी थी कि गोरी चमड़ी वाले फिरंगी अपराजेय हैं| उपरोक्त युद्ध से यह अवधारणा समाप्त हो गयी|

(2) किस तरह बाध्य होकर रूस को अलास्का बेचना पडा था अमेरिका को, यह भी एक ऐसी ही घटना थी|
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(3) क्या प्रथम विश्व युद्ध के समय तक किसी ने कल्पना भी की थी कि सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) बिखर जाएगी और खिलाफत का अंत हो जाएगा? वे लोग जो स्वयं को अपराजेय मानते थे, पराजित हो गए|
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(4) जर्मनी जैसा एक पराजित राष्ट्र विश्व का सबसे अधिक शक्तिशाली देश बनकर उबरेगा और पराजित होकर खंडित होगा और फिर एक हो जाएगा, यह क्या किसी चमत्कार से कम था ?
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(5) ब्रिटिश साम्राज्य का विखंडन, जापान की हार, भारत की स्वतंत्रता, चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना, सोवियत संघ का विघटन, साम्यवादी विचारधारा का पराभव आदि क्या किसी अप्रत्याशित चमत्कार से कम थे?
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ऐसे ही भारत में आध्यात्मिक राष्ट्रवाद भी एक चमत्कार से कम नहीं होगा| भारत के आध्यात्मिक राष्ट्रवाद से समस्त सृष्टि का कल्याण होगा| आध्यात्मिक राष्ट्रवाद ही भारत का भविष्य है|
कृपा शंकर
१७ सितंबर २०१३

सभी को पीड़ा होती है और भावनायें भी सभी की आहत होती हैं ...

सभी को पीड़ा होती है और भावनायें भी सभी की आहत होती हैं ...
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जीवन में मुझे भी पीड़ा होती है, मेरी भी भावनाएँ आहत होती हैं| पर यह मेरे और परमात्मा के मध्य का मामला है, अतः किसी को नहीं कहता| कहने से कोई लाभ नहीं, हानि ही हानि है| चारों ओर हिंसा ही हिंसा देखता हूँ| हिंसा का कारण राग-द्वेष और अहंकार है| अहिंसा की सिद्धि वीतरागता व आत्मज्ञान से ही होती है| जिन भी परिस्थितियों में हम हैं उन परिस्थतियों में जो भी सर्वश्रेष्ठ कार्य हो सकता है वह करें| व्यर्थ की निंदा व आलोचना से कोई लाभ नहीं है| देश में अनेक सकारात्मक बहुत अच्छे अच्छे कार्य भी हो रहे हैं| अनेक व्यक्ति और अनेक संस्थाएँ दिन रात अच्छा कार्य भी कर रही हैं| उनके कार्य प्रकाश में नहीं आते क्योंकि जो ठोस धरातल पर काम करने वाले लोग हैं वे अपना प्रचार नहीं करते| यदि किसी को लगता है कि आसपास गलत काम हो रहा है तो अपनी क्षमतानुसार अच्छा काम भी करें| सिर्फ आलोचना और आत्मनिंदा से किसी समस्या का समाधान नहीं होता|
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मैं नित्य नियमित रूप से मंदिरों में जाने का पूर्ण समर्थक हूँ| नित्य कुछ समय के लिए मंदिर में अवश्य जाना चाहिए, इस से भक्तिभाव तो बना ही रहता है, भक्तों के दर्शन भी हो जाते हैं| आरती के समय मंदिर में जाना बहुत शुभ होता है| साधकों/भक्तों का एक आवासीय बस्ती बनाकर पास पास रहने का भी समर्थक हूँ| मेरा ऐसा सौभाग्य नहीं है, पर सत्य को तो सत्य ही कहूँगा| अकेले ध्यान साधना करने की अपेक्षा समूह में ध्यान करना अधिक फलदायी व अधिक सरल होता है| इस से एक-दूसरे के स्पंदन एक-दूसरे की सहायता करते हैं| एक ही साधना पद्धति के अनुयायियों द्वारा कम से कम सप्ताह में एक दिन तो एक निश्चित समय और निश्चित स्थान पर सत्संग और सामूहिक ध्यान साधना करनी ही चाहिए| अपनी आध्यात्मिक विचारधारा और साधना पद्धति के लोगों का हर नगर में एक समूह बनायें और हर सप्ताह नियमित सत्संग करे| हमारी रक्षा होगी|
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भगवान की कृपा के बिना कोई उनका नाम तक नहीं ले सकता| देखते देखते ही मेरे अनेक मित्र साधू-संत-भक्त बन गए, पर कई वहीं किनारे पर बैठे हैं| जीवन एक अनंत सतत प्रक्रिया है| हर संकल्प और हर अभीप्सा अवश्य पूर्ण होती है| आत्मा की अभीप्सा सिर्फ परमात्मा के लिए ही होती है, वह निश्चित ही कभी न कभी तो पूर्ण होगी ही| अभी तो किसी भी तरह की कोई अपेक्षा व कोई कामना नहीं है, न ही भगवान से कोई प्रार्थना है| जैसी हरिः इच्छा, वही मेरी इच्छा| पूर्वजन्मों की कुछ वासनाएँ अवशिष्ट थीं इसलिए यह जन्म लेना पड़ा| अब और कोई वासना न रहे| जन्म-मरण में कोई रुचि नहीं रही है| आत्मा की शाश्वतता में आस्था है|
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परमात्मा के साकार रूप आप सभी निजात्माओं को नमन ! आप सब के ह्रदय में परमात्मा का अहैतुकी परम प्रेम जागृत हो| सभी का कल्याण हो|.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !
कृपा शंकर
१७ सितम्बर २०१९

जगन्माता की उपासना .....

जगन्माता की उपासना .....

परमात्मा की मातृरूप में भी उपासना भारतवर्ष की ही देन है| जगन्माता की आराधना भारतवर्ष में अनेक उग्र व अनेक सौम्य रूपों में की जाती है| जिस व्यक्ति का जैसा स्वभाव है, उसी के अनुकूल वह जगन्माता की आराधना कर सकता है|

एक बार मुझे गहन प्रेरणा मिली परमात्मा के सौम्य मातृरूप की उपासना करने की| संत तुलसीदास ने रामचरितमानस के आरंभ में भगवती सीता की वंदना जिन शब्दों में की है, उन्होनें मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया ...
"उद्भव स्थिति संहार कारिणीं क्लेश हारिणीम्| सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं राम वल्लभाम्||"
उपरोक्त मंत्र बहुत अधिक प्रभावशाली मंत्र है, जो वास्तव में सब तरह के क्लेशों को दूर करता है| युवावस्था में भगवती सीता जी का ध्यान मुझे बहुत प्रिय था|


भारत में श्रीराधा जी की आराधना अनेक संप्रदायों में बहुत अधिक लोकप्रिय है, विशेषकर वृंदावन क्षेत्र में|
शक्ति साधनाओं में श्री ललिता सहस्त्रनाम स्तोत्र, आध्यात्मिक और काव्यात्मक दृष्टि से मुझे सर्वश्रेष्ठ लगा| कई वर्षों तक मैं नित्य प्रातः श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ सुनता था और ध्यान करता था| पारिवारिक संस्कारों के कारण संस्कृत भाषा के स्तोत्रों को समझने में कभी कोई कठिनाई नहीं हुई|


बाद में जब गुरुकृपा से चैतन्य के विस्तार की और सर्वव्यापी अनंत आकाश तत्व व घनीभूत प्राण शक्ति की अनुभूतियाँ होने लगीं तब से सम्पूर्ण अस्तित्व ही मातृमय व परमशिवमय हो गया|


भगवान हमारे पिता भी हैं, माता भी हैं और सर्वस्व हैं| उनका जो भी रूप हमें प्रिय लगता है, उसी रूप में उपासक के समक्ष वे स्वयं की अनुभूति करा देते हैं| पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण उनके प्रति "परमप्रेम" है जिसे भक्ति सूत्रों में "भक्ति" कहा गया है| भक्ति के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते| अतः ऐसे वातावरण और संगति में ही रहें जिसमें भक्ति का निरंतर विकास हो|

रामचरितमानस और भगवद्गीता दोनों ही ज्ञान व भक्ति के ग्रंथ हैं| भगवद्गीता में तो मुझे भक्ति और ज्ञान के सिवाय अन्य कुछ भी दिखाई नहीं देता| सर्वव्यापी भगवान वासुदेव की अनत कृपा हम सब पर निरंतर है|
"त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव|
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव||"
आप ही माता हैं , आप ही पिता हैं , आप ही बंधु हैं और आप ही सखा हैं| आप ही विद्या है और आप ही धन हैं , हे देव आप मेरे सर्वस्व हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ सितंबर २०१९

अब शब्दों का कोई महत्व नहीं रहा है, मंजिल सामने ही है .....

अब शब्दों का कोई महत्व नहीं रहा है, मंजिल सामने ही है .....
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एक अवस्था ऐसी भी आती है जहाँ शब्दों का कोई महत्व नहीं रह जाता और वाणी मौन हो जाती है| जब हम किसी अनजान गंतव्य की ओर जाते हैं तो साथ में एक मार्गदर्शिका और मानचित्र भी साथ ले जाते हैं, मार्ग में मिलने वाले पथिकों से पूछते भी रहते हैं, और मील के पत्थरों व निर्देशक संकेतों को भी देखते रहते हैं| पर एक बार जब गंतव्य सामने आ जाता है तब किसी भी उपकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती, न किसी को पूछना पड़ता है, गंतव्य सामने ही तो है| तब सारे संदेहों व जिज्ञासाओं का समापन भी हो जाता है|
वैसे ही जैसे .....
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवत्यात्मारामो भवति (नारद भक्तिसूत्र)||६||
परमात्मा से परम प्रेम होने पर मनुष्य .... उन्मत्त हो जाता है, फिर परमात्मा की उपस्थिति के आभास से स्तब्ध हो जाता है, और फिर अपनी आत्मा में रमण करते करते आत्माराम हो जाता है|
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अब परमात्मा को व्यक्त करने वाले शब्दों का कोई महत्व नहीं है| किसी से मैं पूछूँ कि चंद्रमा कहाँ है, तो वह अपनी अंगुली से दिखायेगा| एक बार चंद्रमा को देखने के पश्चात उस अंगुली का कोई महत्व नहीं रह जाता| अपनी मंजिल को देखने के पश्चात किसी मार्गदर्शिका या मानचित्र की भी आवश्यकता नहीं रहती| जब परमात्मा स्वयं हाथ थाम लेते हैं तब किन्हीं मार्गदर्शक की भी आवश्यकता नहीं रहती| मार्गदर्शज स्वयं परमात्मा हो जाते हैं| हम वह स्वयं बनें जो हमारे महान गुरु थे| अब हमें उनकी अंगुलियाँ पकड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है|
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब में मुझे परमात्मा के ही दर्शन होते हैं| आप सब को सादर दंडवत् प्रणाम!
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ सितंबर २०१९

भगवान को सिर्फ हमारा प्रेम चाहिए .....

भगवान को सिर्फ हमारा प्रेम चाहिए .....
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कोई भी माता-पिता अपने पुत्र के बिना सुखी नहीं रह सकते| भगवान हमारे माता-पिता और सर्वस्व हैं| यदि हम उनके बिना सुखी नहीं है तो वे भी हमारे बिना सुखी नहीं रह सकते| जितनी पीड़ा हमें उनसे वियोग की है, उससे अधिक पीड़ा उनको भी है| वे भी हमारे बिना नहीं रह सकते| एक न एक दिन तो वे स्वयं को व्यक्त करेंगे ही|
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वास्तव में यह संसार एक विचित्र लीला है जिसे समझना हमारी बुद्धि से परे है| सब प्राणी परमात्मा के ही अंश हैं, और परमात्मा ही कर्ता हैं| हमारा भी एकमात्र सम्बन्ध परमात्मा से है| स्वयं परमात्मा ही विभिन्न रूपों में एक-दूसरे से मिलते रहते हैं| उनके सिवाय अन्य कोई नहीं है| वे सब कर्मफलों से परे हैं, अपनी संतानों के माध्यम से वे ही कर्मफलों को भी भुगत रहे हैं| हम अपने अहंकार और ममत्व के कारण ही कष्ट पाते हैं| माया के बंधन शाश्वत नहीं हैं, उनकी कृपा से एक न एक दिन वे भी टूट जायेंगे| वे आशुतोष हैं, प्रेम और कृपा करना उनका स्वभाव है| वे अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते|
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परमात्मा के पास सब कुछ है पर एक ही चीज की कमी है, जिसके लिए वे भी तरसते हैं, और वह है ..... हमारा प्रेम| कभी न कभी तो हमारे प्रेम में भी पूर्णता आएगी, और कृपा कर के हमसे वे हमारा समर्पण भी करवा लेंगे| क्या अपने माँ-बाप से मिलने के लिए कोई प्रार्थना करनी पडती है? अब तो प्रार्थना करना फालतू सी बात लगती है| माता-पिता से मिलना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| फिर भी हम इतना तो कह ही सकते हैं कि हे परम प्रिय, हमारे प्रेम में पूर्णता दो, हमारी कमियों को दूर करो| अज्ञानता में किये गए कर्मफलों से मुक्त करो|
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वेदांत की दृष्टी से तो हम यह देह नहीं बल्कि परमात्मा की पूर्णता हैं| उस चेतना में हम यह कह सकते हैं कि एकमात्र "मैं" ही हूँ, मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई अन्य नहीं है, सब प्राणी मेरे ही प्रतिविम्ब हैं, मैं विभिन्न रूपों में स्वयं से ही मिलता रहता हूँ, मैं द्वैत भी हूँ और अद्वैत भी, मैं साकार भी हूँ और निराकार भी, एकमात्र अस्तित्व मेरा ही है| मैं ही परमशिव हूँ और मैं ही परमब्रह्म हूँ, यह देह नहीं|
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ईश्वर प्रदत्त विवेक हम सब को प्राप्त है| उस विवेक के प्रकाश में ही उचित निर्णय लेकर सारे कार्य करने चाहिएँ| वह विवेक ही हमें एक-दुसरे की पहिचान कराएगा और यह विवेक ही बताएगा कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं| आप सब को नमन! आप मेरी ही निजात्मा हैं|
तत्वमसि | सोहं | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१५ सितम्बर २०१९

यह एक चेतावनी है, आगे खतरा ही खतरा है| साधू , सावधान !

यह एक चेतावनी है, आगे खतरा ही खतरा है| साधू , सावधान !
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"ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते|
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते||गीता २:६२||"
"क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः|
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति||गीता २:६३||"
"उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत|
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति||" (कठोपनिषद् १:३:१४)
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भय की बात नहीं है| भगवान आश्वासन भी. दे रहे हैं .....
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि|
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||गीता १८:५८||
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तुरंत उठ ! वैराग्यवान होकर सिर्फ परमात्मा का अपने प्रियतम रूप में स्मरण कर ! दोष विषयों में नहीं बल्कि उनके चिंतन में है |
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१३ सितंबर २०१९