इस युद्धभूमि में आप हजारों तलवारों के बीच से सुरक्षित निकल सकते हैं, कोई आपका बाल भी बांका नहीं कर सकता, लेकिन अपने कर्मफलों से नहीं बच सकते। कर्मफलों से बचने का एक ही उपाय है, वह है परमात्मा को पूर्ण समर्पण। अन्य कोई उपाय नहीं है।
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"कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥"
"निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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धर्म और अधर्म दोनोंको छोड़ कर समभाव से सर्वत्र व्याप्त परमात्मा की शरण लें जिन से अन्य कुछ है ही नहीं। कर्ताभाव से मुक्त होकर तत्त्व रूप से उन्हीं में स्वयं का विलय कर दें, तभी आत्मज्ञान की प्राप्ति होगी जो परम कल्याण का साधन है। आत्म स्वरूप में स्थित हो जाने को ही 'कैवल्य' कहते हैं। यह उच्चतम स्थिति है जिसमें सारे संचित और प्रारब्ध कर्म भस्म हो जाते हैं। परमात्मा की विशेष कृपा से ही यह बात समझ में आ सकती है। सब पर भगवान की विशेष कृपा हो।
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परसों मैने एक दृश्य देखा कि सारा विश्व जलमग्न हो गया है, कहीं कोई अन्य नहीं है। मैं ही अनंत सृष्टि और सम्पूर्ण अस्तित्व हूँ। एक व्यक्ति कहीं दूर तैर रहा था, जो मुझे देखते ही मुझमें समाहित हो गया। केवल मैं ही था जो उस कैवल्य में विलीन हो गया। वह कैवल्य ही परमशिव है, ब्रह्म है, और विष्णु है। उस से परे कुछ भी नहीं है। भगवान एक प्रवाह हैं जो मेरे माध्यम से प्रवाहित हो रहे हैं। सत्य तो यह है कि मैं उनके साथ एक हूँ । मैं शिव हूँ, सत्य हूँ, ब्रह्म हूँ, और अनन्य हूँ।
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'मेरा' कोई अस्तित्व नहीं है, 'मैं' कुछ हूँ ही नहीं। सारी समस्याओं का मूल कारण 'मेरा' कुछ होना है। मैं जब नहीं था तब केवल परमशिव थे। मैं नहीं होता तो केवल परमशिव होते। मैँ नहीं रहूँगा तब केवल परमशिव ही रहेंगे। उनके कैवल्य में मेरा समर्पण पूर्ण हो। किसी भी तरह की आकांक्षा/कामना/इच्छा रूपी पृथकता का जन्म ही न हो।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०२४
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