Sunday 31 March 2019

सबसे बड़ा दोष .... "आहार दोष" .....

सबसे बड़ा दोष .... "आहार दोष" .....
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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः| भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्||३:१३||
इसका भावार्थ है कि यज्ञ के अवशिष्ट अन्न का भोजन करने वाले श्रेष्ठ पुरुष हैं| देवयज्ञ आदि कर के उसमें बचे हुए अमृत नामक अन्न को भक्षण करना जिन का स्वभाव है वे सब पापों से अर्थात् गृहस्थ में होने वाले चक्की चूल्हे आदि के पाँच पापों से और प्रमाद से होनेवाले हिंसा आदि से जनित अन्य पापों से भी छूट जाते हैं| तथा जो उदरपरायण लोग केवल अपने लिये ही अन्न पकाते हैं वै स्वयं पापी हैं और पाप ही खाते हैं|
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आहार दोष सबसे बड़ा दोष है क्योंकि जैसा होगा अन्न, वैसा ही होगा हमारा मन| यहाँ भगवान स्वयं यह बात कह रहे हैं कि जो लोग केवल स्वयं के लिए ही अन्न पकाते हैं वे स्वयं तो पापी हैं ही, और पाप को भी खाते है| अब प्रश्न यह है कि यज्ञ का अवशिष्ट भोजन क्या है, और उसका आहार कैसे करें?
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इसके लिए इस लेख के पाठकों को स्वयं परिश्रम कर के उत्तर ढूँढना होगा| स्वयं की मेहनत ही काम आयेगी, दूसरे की नहीं| यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण और मनुस्मृति में पञ्च महायज्ञों का वर्णन है| वे क्या हैं? यह जानना ही होगा| भोजन बनाते समय पांच प्रकार के पाप कौन से हो जाते हैं, यह भी स्वयं को ही जानना होगा| गीता में भी भगवान ने इसका आदेश दिया है, उसका स्वाध्याय भी स्वयं को ही करना होगा|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मार्च २०१९

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