Saturday, 8 December 2018

पृथकता का बोध हमारी अज्ञानता है .....

पृथकता का बोध हमारी अज्ञानता है .....
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(१) प्राप्त करने योग्य क्या है ? कुछ भी नहीं| सब कुछ तो पहिले से ही मिला हुआ है| भगवान को पाने की बात अब इस समय कुछ विचित्र सी लगती है, क्योंकि कभी उनको खोया ही नहीं था|
(२) भगवान क्या स्वयं से परे हैं? बिलकुल नहीं| भगवान कहीं बाहर या दूर या स्वयं से परे नहीं हैं| वे स्वयं ही सब कुछ हैं| वे अनुभूत नहीं होते क्योंकि हमने स्वयं को आसक्ति के दोषों यानी मान और मोह से ढक रखा है| वे कहते हैं .....
निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः |
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ||१५:५||
इसका अर्थ स्वयं समझें| यहाँ "अध्यात्मनित्या" शब्द पर विशेष विचार करें| क्या भगवान का यह आदेश नहीं है कि हम निरंतर आत्म तत्व यानि परमात्मा से एकत्व का चिंतन करें ?
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
८ दिसंबर २०१८

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