मेरा यह वर्तमान जन्म ही सर्वश्रेष्ठ है .....
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एकांत में हमें अपने विचारों पर, और अन्यों के साथ अपनी वाणी पर सजगता पूर्वक नियंत्रण रखना चाहिए|
अनियंत्रित शब्द .... स्वयं की आलोचना, निंदा व अपमान का कारण बन सकते हैं|
एकांत में परमात्मा के किसी पवित्र मन्त्र का निरंतर जाप हमारी रक्षा करता है|
. जहाँ तक मैं समझता हूँ, परमात्मा हाथ में डंडा लेकर किसी बड़े सिंहासन पर बैठा कोई अलोकिक पुरुष नहीं है जो अपनी संतानों को दंड और पुरष्कार दे रहा है|
जैसी अपनी सोच होती है वैसी ही परिस्थितियों का निर्माण हो जाता है| हमारे विचार और सोच ही हमारे कर्म हैं|
परमात्मा तो एक अगम अचिन्त्य परम चेतना है जो हम से पृथक नहीं है| वह चेतना ही यह लीला खेल रही है|
कुछ लोग यह सोचते हैं कि परमात्मा ही सब कुछ करेगा और वही हमारा उद्धार करेगा| पर ऐसा नहीं है| हमारी उन्नत आध्यात्मिक चेतना ही हमारी रक्षा करेगी|
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मनुष्य देह में हमारा जन्म अपने प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिए ही होता है|
जब तक संचित कर्म अवशिष्ट हैं तब तक बारंबार पुनर्जन्म होता ही रहेगा|
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इस निरंतर पुनरागमन से मुक्ति के लिए अहंभाव को समर्पित करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है|
यह मनुष्य देह, इस देह की ही कामनापूर्ति के लिए नहीं मिली है|
यह एक साधन है जिसका उपयोग परमात्मा की प्राप्ति के लिए ही करना चाहिए|
जब तक हम स्वयं नहीं चाहें, तब तक न तो कोई शैतान और न ही कोई दुरात्मा हमें प्रभावित कर सकता है|
ये सब बातें हम लोग करते हैं दूसरों पर दोषारोपण करने और अपने दायित्व से परे भागने के लिए|
अपनी परिस्थितियों के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं और हम स्वयं अपने स्वयं के प्रयास से ही स्वयं को मुक्त कर सकते हैं| .
हे प्रभु, नष्ट ही करना है तो यह अहंकार नष्ट करो| "मुझे", "मैं" और "मेरा" इस बोध से मुक्त करो|
मेरा यह वर्तमान जन्म ही सर्वश्रेष्ठ है| अगले जन्म की प्रतीक्षा मुझे नहीं करनी चाहिए|
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सर्वव्यापक चेतना परमात्मा का तो सभी के प्रति समभाव है|
वह चेतना तो सभी को समान दृष्टि से देखती है, उसका किसी से द्वेष नहीं, किसी से प्रेम नहीं|
हमारे विचार और संकल्प ही हमारे कर्म हैं जो सुख-दूःख के हेतु बनते हैं।
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जब तक हम स्वयं नहीं चाहें, तब तक न तो कोई शैतान और न ही कोई दुरात्मा हमें प्रभावित कर सकता है|
ये सब बातें हम लोग करते हैं दूसरों पर दोषारोपण करने और अपने दायित्व से परे भागने के लिए|
अपनी परिस्थितियों के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं और हम स्वयं अपने स्वयं के प्रयास से ही स्वयं को मुक्त कर सकते हैं|
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नियमित ध्यान और भक्ति से मार्गदर्शन मिलता है पर यह स्वयं को करना पड़ता है| कोई दूसरा हमें मुक्त करने नहीं आएगा| अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयं को ही ढूँढना पड़ेगा|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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यह एक साधन है जिसका उपयोग परमात्मा की प्राप्ति के लिए ही करना चाहिए|
जब तक हम स्वयं नहीं चाहें, तब तक न तो कोई शैतान और न ही कोई दुरात्मा हमें प्रभावित कर सकता है|
ये सब बातें हम लोग करते हैं दूसरों पर दोषारोपण करने और अपने दायित्व से परे भागने के लिए|
अपनी परिस्थितियों के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं और हम स्वयं अपने स्वयं के प्रयास से ही स्वयं को मुक्त कर सकते हैं| .
हे प्रभु, नष्ट ही करना है तो यह अहंकार नष्ट करो| "मुझे", "मैं" और "मेरा" इस बोध से मुक्त करो|
मेरा यह वर्तमान जन्म ही सर्वश्रेष्ठ है| अगले जन्म की प्रतीक्षा मुझे नहीं करनी चाहिए|
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सर्वव्यापक चेतना परमात्मा का तो सभी के प्रति समभाव है|
वह चेतना तो सभी को समान दृष्टि से देखती है, उसका किसी से द्वेष नहीं, किसी से प्रेम नहीं|
हमारे विचार और संकल्प ही हमारे कर्म हैं जो सुख-दूःख के हेतु बनते हैं।
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जब तक हम स्वयं नहीं चाहें, तब तक न तो कोई शैतान और न ही कोई दुरात्मा हमें प्रभावित कर सकता है|
ये सब बातें हम लोग करते हैं दूसरों पर दोषारोपण करने और अपने दायित्व से परे भागने के लिए|
अपनी परिस्थितियों के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं और हम स्वयं अपने स्वयं के प्रयास से ही स्वयं को मुक्त कर सकते हैं|
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नियमित ध्यान और भक्ति से मार्गदर्शन मिलता है पर यह स्वयं को करना पड़ता है| कोई दूसरा हमें मुक्त करने नहीं आएगा| अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयं को ही ढूँढना पड़ेगा|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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"आशा" और "ममता" नाम के खम्भों को हमने पकड़ रखा है या उन्होंने हमें ?
ReplyDeleteलगता तो यही है कि खम्बे को हमने ही पकड़ रखा है, खम्बे ने हमको नहीं |
"आशा" और "आस्था" में बहुत अधिक अंतर होता है |
आस्था तो सिर्फ परमात्मा में ही होनी चाहिए, पर आशा कहीं भी नही, क्योंकि किसी भी तरह की आशा, निराशा ही प्रदान करती है |
वर्त्तमान क्षण ही सत्य है | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
मनुष्य जाति का विवेक यानि प्रज्ञा ही उसकी महाविनाश से रक्षा कर रही है|
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