(मेरी) चेतना कहीं पर भी रहे, हर (भौतिक, मानसिक, व आध्यात्मिक) स्तर पर परमात्मा से परमप्रेम (भक्ति) की उच्चतम अभिव्यक्ति हो।
शांभवी मुद्रा में भगवान वासुदेव इस समय स्वयं कूटस्थ में मेरे समक्ष बिराजमान हैं। उनकी उपस्थिती का बोध सदा निरंतर बना रहे। एक पल के लिए भी मेरे दृष्टिपथ से वे ओझल न हों। जिस पर भी मेरी दृष्टि पड़े, या जिसकी भी दृष्टि मुझ पर पड़े, उसमें उसी क्षण भगवान के प्रति भक्ति जागृत हो जाये। भगवान स्वयं मेरी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों से कार्य कर रहे हैं। मेरा अन्तःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) अब उन्हीं का है। मेरा सर्वस्व उन्हीं का है। अब मैं नहीं सिर्फ वे ही वे हैं। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ जून २०२३
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