“परमतत्त्व ज्ञानगम्य कब होगा ?"
(ब्रह्मलीन स्वामी मृगेंद्र सरस्वती "सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र" द्वारा २१ फरवरी २०१४ को प्रेषित लेख)
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"इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः।
नारायण ! भगवान् पहले ज्ञान का निरूपण करते हुए फिर संक्षेप में ज्ञेय का निरूपण किया । ज्ञान और ज्ञेय का निरूपण करते हुए अपने प्रिय सखा अर्जुन को माध्यम बनाकर सारे जगत् को बता तो दिया , लेकिन यह ज्ञानगम्य किसे होगा? अनुभव में परिणत कब होगा? तब भगवान् ने कहा " मद्भक्तः " जो परमेश्वर से अनुपम प्रेम करेगा वही इसका साक्षाद् अनुभव कर सकेगा । भगवान् कहते अनुभव होने पर वह मेरा ही स्वरूप होगा । भगवान् ने परमात्मा के लिए असीम प्रेम मोक्ष का साधन बतलाया ।
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नारायण ! कश्मीर में " पामपुर " नामक ग्राम के आस - पास केशर की खेती होती है । वहाँ प्रायः साढ़े सात सौ वर्ष पूर्व एक कन्या उन्पन्न हुई । जिसका नाम था " पद्मा " । मुस्लिम राज्य था । राजनैतिक उथल - पुथल थी । कन्या ब्राह्मण के घर पैदा हुई थी । उस युग में ब्याह छोटी उम्र में कर दिया जाता था । बारह साल की थी तब उस लड़की का ब्याह हो गया । ससुराल गयी तो वहाँ उसकी सास सौतेली थी , पति की अपनी माँ मर चुकी थी , सौतेली माँ थी । सास को इस लड़की के प्रति कोई सद्भाव नहीं था । हमेशा उसे क्लेश ही देती रहती थी । फिर भी यह लड़की शिकायत करती नहीं थी । अन्यीं को मालूम न पड़े इसलिये सास जब बहु को भोजन परोसती थी तो पहले एक पत्थर रख कर उसे चावल के भात से ढाँक देती थी । घर में सब समझे कि बहू बहुत खाती है । उन्हें क्या पता था कि उसके अन्दर पत्थर रख कर भात से ढँका गया है ! पर वह पद्मा चुपचाप सहती रही । यह तपस्या जीवन में आवश्यक है । जो व्यक्ति हमेशा परिस्थितियों को बदलने में लगा रहता है उसका सारा ध्यान उसी ओर चला जाता है । जो परिस्थिति को सहन करने का अभ्यास डालता है वही किसी उच्च उपलब्धि को कर सकता है । इसलिये उस स्त्री को किसी पर क्रोध भी नहीं आता था , किसी से शिकायत भी नहीं थी ।
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नारायण ! संसार में अनेक सुधारवादी गतिविधियाँ हुई , चाहे भारत में चाहे अन्यत्र , लेकिन जितने सुधारवादी हुए हैं वे कभी परमात्मा के साक्षात्कार के रास्ते पर नहीं जा पाये । वे केवल सुधार में लगे रहे और वह सुधार अन्त में बिगाड़ ही सिद्ध हुआ । ये दोनों मार्ग अलग है । संसार में जो " हेय - उपादेय " बुद्धि रखेगा वह "अहेय - अनुपादेय " ब्रह्मतत्त्व को कभी पा नहीं सकता । जो " अहेय - अनुपादेय " परमार्थतत्त्व को पकड़ना चाहता है वह " हेय - उपादेय " दृष्टि कर नहीं सकता । इसलिये हमारे सभी प्राचीन परम्पराओं में परमात्मतत्त्वसम्बन्धी अनुभवादि आते पर सुधारवादी परम्पराओं में ऐसा कुछ नहीं होता ।
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नारायण ! एक बार " शिवरात्रि " के पर्व पर पद्मा बर्तन माँजने " वितस्ता नदी " के तट पर गई हुई थी । कश्मीर में शिवरात्रि बड़ी धूम - धाम से मनाते हैं । वितस्ता नदी को ही उर्दू वाले झेलम कहते हैं । वहीं पद्मा की कोई पड़ोसन भी आयी थी । पड़ोसन ने पद्मा से कहा " आज तो शिवरात्रि है , तेरी पाँचों अंगुलियां घी में होँगी ? " पद्मा दुःखी तो थी ही , बोली " शिवरात्रि हो चाहे न हो , मेरी तो शालग्राम की बटिया भली ! " पड़ोसन ने पूछा " क्या मतलब ? " उसने सारा किस्सा सुना दिया । जहाँ ये बाते चल रही थी उसके पास ही आदमियों का घाट था , वहाँ पद्मा के ससुर खड़े थे । उन्होंने सारी बाते सुन ली । घर आकर उन्होंने सास को बहुत डाँटा । पर फल उल्टा निकला । सास और ज्यादा अत्याचार करने लगी । लड़के को सिखाने लगी " पद्मा डाकिनी है । रात में सिंह पर बैठ कर जाती है , लोगों को खाकर आती है । " इत्यादि । पद्मा का धैर्य टूट गया । उसने “ असीम “ से मिलने का ही निश्चय किया ।
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नारायण ! पद्मा घर छोड़कर चल दी । विभिन्न ग्रामों में शिवमन्दिरों में दर्शन करना , महेश्वर की कीर्ति का गान करना , महादेव का ध्यान - पूजन करना , यही उसकी चर्या थी । भगवान् शङ्कर ने उसे दर्शन दिया । उसे तुरंत समझ आ गया कि सारा संसार प्रकृति का ही खेल है । जब प्रकृति का ही खेल है तो इसमें शर्म किसकी करनी है ? उसने वस्त्र पहनना छोड़ दिया , दिगम्बर घूमने लगी । भोजन की चिन्ता न करे । किसी ने जबर्दस्ती मुँह में डाल दिया तो खा लिया , नहीं तो नहीं । छेड़ने वाले कई बार पूछते थे " अरे नंगी क्यों घूमती है ? , हँसकर पद्मा बोलती थी " संसार में कोई पुरुष तो है नहीं ? प्रकृति से बनी सारी शकलें औरत ही हैं । औरत के सामने औरत क्या कपड़ा पहने ? " लोक उसका तात्पर्य क्या समझे । वे केवल हँसते थे । परमात्मा के कालातीत विश्वाधिक रूप का साक्षात्कार करना ही उसे बाकी रह गया था ।
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नारायण ! दक्षिण भारत में विश्वेन्द्र सागर नामक एक ब्रह्मनिष्ठ महात्मा थे । उन्हें भगवान् ने प्रेरणा दी कि कश्मीर में स्थित उस योग्य शिष्य को उपदेश करो । जब किसी में योग्यता आ जाती है तब भगवान् स्वयं उपदेश की व्यवस्था कर देते हैं , गुरु चरण की प्राप्ति हो जाती है । गुरु ढूँढने से नहीं मिला करते । कारण यह है कि गुरु कौन है इसकी परीक्षा आप कैसे कर सकते हो ? गुरु ही अधिकारी शिष्य को ढूँढ़ लेता है । श्री विश्वेन्द्र सागर कश्मीर पहुँचे । उन्हें देखते ही पद्मा जोर से चिल्लाई " अरे आदमी आ गया ! " वहाँ रोटी बनाने के लिए बड़े - बड़े तन्दूर होते हैं । कपड़े तो थे नहीं अतः " पुरुष " के सामने नग्नता हटाने के लिये वह उसी तन्दूर में घुस गयी । " श्री स्वामी विश्वेन्द्र सागर जी " समझ गये , पहचान लिया उन्होंने । उसे कहा " अरे बाहर आओ । " तन्दूर के अन्दर अग्निमूर्ति भगवान् ने पद्मा को दिव्य वस्त्र पहना दिया जिन्हें पहन कर वह बाहर आयी । धीरे - धीरे महात्मन् ने उसे उपनिषदों का अर्थ समझाया । भगवान् जिस ज्ञेयतत्त्व का उपदेश अर्जुन को संक्षेप में किया था । उस कालातीत विश्वाधिक तत्त्व का श्री स्वामी विश्वेन्द्र सागर जी ने विस्तार से निरूपण किया । श्रवणादि के फलस्वरूप पद्मा की ज्ञाननिष्ठा दृढ़ हो गयी ।
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नारायण ! एक बार अनेक शिष्य बैठे थे , गुरु ने प्रश्न किये " सबसे श्रेष्ठ प्रकाश कौन सा है? " लोगों ने नाना उत्तर दिये । पद्मा ने तो " परमात्मज्ञान ही सच्चा प्रकाश है । " दूसरा प्रश्न था " सबसे प्रधान तीर्थ कौन सा है ? " पद्मा का जवाब था " ब्रह्मज्ञान में लीन होकर रहना ही श्रेष्ठ तीर्थ है । " तीसरा सवाल था " सब सम्बन्धियों में कौन श्रेष्ठ है ? " उसने बताया " परम शिव ही सारे सम्बन्धियों में श्रेष्ठ हैं । " चोथा प्रश्न था " उस परम आनन्द का साधन क्या है ? " उत्तर था " उसमें तन्मय हो जाना ही आनन्द का साधन है । " गुरु जी ने समझ लिया कि पद्मा की निष्ठा पूर्ण हो गयी । उन्होंने उसका " लल्लेश्वरी " नाम रखा । वह सर्वत्र परमात्मज्ञान का उपदेश देते हुए विचरती रही । भाषा - श्लोकों में वह ज्ञान देती थी ।
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नारायण ! लल्लेश्वरी कहा करती थी कि मन एक गधा है ! इसे वश में रखो , नहीं तो केशर की क्यारियाँ चर जायेगा । मन को वश में करना सबसे ज्यादा जरूरी है । शरीररूप क्षेत्र केसर की खेती करने के लिए मिला है । पर सारी योग्यतायें चर जायेगा अगर मन को छूट्टा छोड़ दिया । यह गधा है , अपना भला - बुरा समझता नहीं ।
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नारायण ! इसलिये भगवान् ने अपने श्रीमुख से गीता गाकर कहा कि जो मुझ परमात्मा को प्रेम का एकमात्र आधार बनायेगा वही " एतद् विज्ञाय " इसका अनुभव कर सकेगा । अन्यथा अनुभव होगा नहीं । ऐसा करना कब तक है ? भगवान् कहते हैं " मद्भावायोपद्यते " जब तक परमात्मभाव में स्थिर न हो जाये ।
एक ही परमात्मा अज्ञात , ज्ञे और ज्ञात होता है । हर हालत में , बन्धन अवस्था में भी परमात्मा के सिवाय कुछ नहीं । हम परमात्मा से तब भी दूर नहीं । हमेशा ही हमारा उसमें निवास है । ऐसा नहीं कि अभी दूर है । बाद में मिलेंगे । हम निरन्तर उनकी गोद में हैं , वे हमें निरन्तर सहला रहे हैं । ऐसी भावना रखें ।
श्री माता लल्लेश्वरी को प्रणाम !
नारायण स्मृतिः
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