Wednesday, 20 November 2024

जो हम स्वयं की दृष्टि में हैं, भगवान की दृष्टि में भी वही हैं ---

 जो हम स्वयं की दृष्टि में हैं, भगवान की दृष्टि में भी वही हैं। अतः निरंतर अपने शिव-स्वरूप में रहने की उपासना करें। यही हमारा स्वधर्म है।

भगवान को हम वही दे सकते हैं, जो हम स्वयं हैं। जो हमारे पास नहीं है वह हम भगवान को नहीं दे सकते। हम भगवान को प्रेम नहीं दे सकते क्योंकि हम स्वयं प्रेममय नहीं हैं।
गीता के सांख्य योग में भगवान हमें -- "निस्त्रैगुण्य", "निर्द्वन्द्व", "नित्यसत्त्वस्थ", "निर्योगक्षेम", व "आत्मवान्" बनने का आदेश देते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
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इसे और भी अधिक ठीक से समझने के किए भगवान का ध्यान करें। आचार्य शंकर व अन्य आचार्यों के भाष्य पढ़ें। इसका चिंतन, मनन, व निदिध्यासन करें। बनना तो पड़ेगा ही, इस जन्म में नहीं तो अनेक जन्मों के पश्चात। मंगलमय शुभ कामनाएँ !!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ नवम्बर २०२३

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