Wednesday, 20 November 2024

आजकल जो समाचार आ रहे हैं, वे अच्छे नहीं हैं, अब मैंने अपनी सोच ही बदल ली है ---

आजकल जो समाचार आ रहे हैं, वे अच्छे नहीं हैं। अब मैंने अपनी सोच ही बदल ली है। अब चाहे परमाणु युद्ध हो, या हाइड्रोजन बम फटे, या चाहे सारा विश्व ही टूट कर बिखर जाये, मुझे कोई भय नहीं है।

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मुझे तब तक कुछ भी नहीं हो सकता और कोई मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, जब तक परमात्मा की वैसी ही इच्छा न हो। यह सृष्टि मेरी नहीं, परमात्मा की है। इसकी रक्षा या विनाश करना उनका कार्य है। मेरा स्वधर्म उनको पूर्ण समर्पण है, न कि अन्य कुछ। मैं केवल अपने स्वधर्म का पालन करूंगा।
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मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। कैसी भी परिस्थिति हो, भगवान के भक्तों की रक्षा होगी, रक्षा होगी, और रक्षा होगी। उन सब की भी रक्षा होगी जो सत्यनिष्ठा से स्वधर्म का पालन कर रहे हैं। परमात्मा हमारे जीवन में पूरी तरह अभिव्यक्त हो। फिर कोई हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। गीता में भगवान का वचन है --
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"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९:२९॥"
अर्थात् -- मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ॥
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"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
अर्थात् -- यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है॥
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"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
अर्थात् -- हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता॥
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वाल्मीकि रामायण में भगवान ने वचन दिया है --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। ⁣अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥"
अर्थात् -- जो एक बार भी मेरी शरण में आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है।⁣
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अतः आने वाला समय कैसा भी हो, भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। हर परिस्थिति में हम सामान्य रहें। यह याद रखें --
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
अर्थात् -- जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है॥
यहाँ पार्थ हम स्वयं हैं, और सारी सृष्टि ही भगवान वासुदेव हैं। हम निरंतर उनकी चेतना में रहें।
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वैसे भी भगवान विष्णु स्वयं ही यह सारी सृष्टि बन गए हैं। उनके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। विष्णुसहस्त्रनाम का पहला श्लोक ही बताता है --
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥"
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अतः उनकी चेतना में निरंतर रहें। भय और चिंता का यहाँ कोई स्थान ही नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ तत्सत् !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ नवंबर २०२४

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