हम किसकी उपासना करें? ---
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इस विषय को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के १२वें अध्याय 'भक्ति-योग' में जितनी अच्छी तरह से समझाया है, उतना स्पष्ट अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलेगा। सिर्फ समझने की आवश्यकता है। हम इसे इसलिये नहीं समझ नहीं पाते क्योंकि हमारे मन में भक्ति नहीं, व्यापार है। भगवान हमारे लिए एक साधन हैं; जिनके माध्यम से हम हमारे साध्य -- रुपया-पैसा, धन-संपत्ति, यश और इंद्रिय-सुखों को प्राप्त करना चाहते हैं। भगवान को हमने उपयोगिता का एक साधन बना लिया है, इसलिए भगवान का नाम हम दूसरों को ठगने के लिये लेते हैं। वास्तव में हम स्वयं को ही ठग रहे हैं। हमें भगवान की प्राप्ति नहीं होती इसका एकमात्र कारण "सत्यनिष्ठा का अभाव" है। अन्य कोई कारण नहीं है।
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हमारा लक्ष्य यानि साध्य तो भगवान स्वयं ही हों। भगवान कहते हैं ---
"मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२:२॥"
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
अर्थात् -- "मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं॥"
"परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥"
"इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥"
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इस से पहिले भगवान ११वें अध्याय के ५५वें श्लोक में भगवान कह चुके हैं ---
"मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव॥११:५५॥"
अर्थात् -- "हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संगरहित है, जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर है, वह मुझे प्राप्त होता है॥"
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गुरु के उपदेश व आदेशानुसार योगमार्ग के साधक कूटस्थ में भगवान का ध्यान पूर्ण भक्ति से करते हैं। निराकार तो कुछ भी नहीं है। जिसकी भी सृष्टि हुई है, वह साकार है। उपासना साकार की ही हो सकती है। पूरी तरह समझकर अध्याय १२ (भक्तियोग) का खूब स्वाध्याय और ध्यान करें। मन में छाया असत्य का सारा अंधकार दूर होने लगेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२१
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